2 (1-2) प्रभु का गुणगान करना कितना अच्छा है! सर्वोच्च ईश्वर! तेरे नाम का भजन गाना,
3) तम्बूरा और वीणा बजाते हुए, सितार के मधुर संगीत के साथ,
4) प्रातः तेरे प्रेम का और रात को तेरी सत्यप्रतिज्ञता का बखान करना कितना अच्छा है!
5) प्रभु! तेरे कार्य मुझे आनन्दित करते हैं; तेरी सृष्टि देख कर मैं उल्लसित हो कर कहता हूँ;
6) प्रभु तेरे कार्य कितने महान् है! तेरी योजनाएँ कितनी गूढ़ हैं!
7) अविवेकी मनुष्य यह नहीं जानता, मूर्ख यह नहीं समझता।
8) विधर्मी भले ही घास की तरह बढ़ते हों, सब दुष्ट भले ही फलते-फूलते हों, किन्तु वे सदा-सर्वदा के लिए नष्ट किये जायेंगे,
9) जब कि तू, प्रभु! सदा-सर्वदा स्वर्ग में विराजमान रहता है।
10) प्रभु! निश्चय ही तेरे शत्रुओं का विनाश होगा और सब कुकर्मी तितर-बितर हो जायेंगे।
11) तूने मुझे जंगली भैंसे-जैसा बल प्रदान किया है। मैं उत्तम तेल से नहाता हूँ।
12) मेरी आँख ने अपने शत्रुओं की पराजय देखी है, मेरे कान ने अपने दुष्ट बैरियों के पतन के विषय में सुना है।
13) धर्मी खजूर की तरह फलता-फूलता और लेबानोन के देवदार की तरह बढ़ता है।
14) वे प्रभु के मन्दिर में रोपे गये हैं, वे हमारे ईश्वर के प्रांगण में फलते-फूलते हैं।
15) वे लम्बी आयु में भी फलदार हैं। वे रसदार और हरे-भरे रहते हैं,
16) जिससे वे प्रभु का न्याय घोषित करें: "प्रभु मेरी चट्टान है। उस में कोई अन्याय नहीं।"