2 (1-2) प्रभु! मेरे बल! मैं तुझे प्यार करता हूँ। प्रभु मेरी चट्टान है, मेरा गढ़ और मेरा उद्धारक।
3) ईश्वर ही मेरी चट्टान है, जहाँ मुझे शरण मिलती है। वही मेरी ढाल है, मेरा शक्तिशाली उद्धारकर्ता और आश्रयदाता।
4) प्रभु धन्य है! मैंने उसकी दुहाई दी और मैं अपने शत्रुओं पर वियजी हुआ।
5) मैं मृत्यु के पाश में पड़ गया था, विनाश की प्रचण्ड धारा में बह रहा था।
6) मैं अधोलोक के जाल में फँस गया था, मेरे लिए मृत्यु का फन्दा बिछाया गया था।
7) मैंने अपने संकट में प्रभु को पुकारा, मैंने अपने ईश्वर की दुहाई दी। उसने अपने मन्दिर में मेरी वाणी सुनी, मेरी दुहाई उसके कान तक पहुँची।
8) तब पृथ्वी विचलित हो कर काँपने लगी और पर्वतों की नींव हिलने लगी। उसका क्रोध भड़क उठा और वे काँपने लगे।
9) उसके नथनों से धुआँ उठा, भस्मकारी अग्नि और दहकते अंगारे उसके मुख से निकल पड़े।
10) वह आकाश खोल कर उतरा; उसके चरणों तले घोर अन्धकार था।
11) वह केरूब पर सवार हो कर उड़ गया; पवन के पंख उसे ले चले।
12) वह अन्धकार ओढ़े था। वह काले घने बादलों से घिरा था।
13) उसके मुखमण्डल के तेज से बादल हटते जा रहे थे- औले और दहकते अंगारे झरने लगे।
14) प्रभु आकाश में गरज उठा, सर्वोच्च ईश्वर की वाणी सुनाई पड़ी-ओले और दहकते अंगारे झरने लगे।
15) उसने बाण चला कर शत्रुओं को तितर-बितर कर दिया, बिजली चमका कर उन्हें भगा दिया।
16) प्रभु! तेरी धमकी के गर्जन से, तेरी क्रोधभरी फुंकार से महासागर का तल दिखाई पड़ा, पृथ्वी की नींव प्रकट हो गयी।
17) वह ऊपर से हाथ बढ़ा कर मुझे संभालता और महासागर से मुझे निकाल लेता है,
18) मुझे मेरे शक्तिशाली शत्रुओं से छुड़ाता है, उन विरोधियों से, जो मुझ से प्रबल है।
19) वे संकट के समय मुझ पर आक्रमण करते थे, परन्तु प्रभु मेरा सहायक बना।
20) वह मुझे संकट में से निकाल लाया, उसने मुझे छुड़ाया, क्योंकि वह मुझे प्यार करता है।
21) प्रभु मेरी धार्मिकता के अनुसार मेरे साथ व्यवहार करता है, मेरे हाथों की निर्दोषता के अनुरूप;
22) क्योंकि मैं प्रभु के मार्ग पर चलता रहा। मैंने अपने ईश्वर के साथ विश्वासघात नहीं किया।
23) मैंने उसके सब नियमों को अपने सामने रखा, मैंने उसकी आज्ञाओं का उल्लंघन नहीं किया।
24) मैं उसकी दृष्टि में धर्माचरण करता रहा; मैंने किसी प्रकार का अपराध नहीं किया।
25) प्रभु ने मेरी धार्मिकता के अनुसार मेरे साथ व्यवहार किया, उसने मेरे हाथों की निर्दोषता का ध्यान रखा।
26) तू निष्ठावान् के लिए निष्ठावान् है और अनिन्द्य के लिए अनिन्द्य।
27) तू शुद्ध के लिए शुद्ध है और टेढ़े के लिए टेढ़ा।
28) तू अपमानित प्रजा को विजय दिलाता और घमण्डियों को नीचा दिखाता है।
29) प्रभु! तू ही मेरा दीपक जलाता है, मेरा ईश्वर मेरे अन्धकार को आलोकित करता है।
30) मैं तेरे बल पर शत्रुओं के दल में कूद पड़ता हूँ। मैं ईश्वर के बल पर चारदीवारी लाँघ जाता हूँ।
31) ईश्वर का मार्ग अदोष है, प्रभु की वाणी विश्वसनीय है। वह उन सब लोगों की ढाल है, जो उसकी शरण जाते हैं।
32) प्रभु के सिवा और कौन ईश्वर है? हमारे ईश्वर के सिवा और कौन चट्टान है?
33) वही ईश्वर मुझे शान्ति प्रदान करता और मार्ग प्रशस्त कर देता है।
34) वह मेरे पैरों को हिरनी की गति देता और मुझे पर्वतों पर बनाये रखता है।
35) वह मेरे हाथों को युद्ध का प्रशिक्षण देता और मेरी बाँहों को काँसे का धनुष चढ़ाना सिखाता है।
36) तू मुझे अपनी विजय ढाल देता है। तेरा दाहिना हाथ मुझे संभालता और स्वयं झुक कर मुझे महान् बनाता है।
37) तू मेरा मार्ग प्रशस्त करता है; इसलिए मैरे पैर नहीं फिसलते।
38) मैं अपने शत्रुओं का पीछा कर उन को पकड़ लेता हूँ और उनका संहार किये बिना नहीं लौटता।
39) मैं उन्हें मारता हूँ और वे फिर नहीं उठते, वे गिर कर मेरे पैरों तले पड़े रहते हैं।
40) तू युद्ध के लिए मुझे शक्ति सम्पन्न बनाता और मेरे विरोधियों को मेरे सामने झुकाता है।
41) तू मेरे शत्रुओं को भागने को विवश करता है और मैं अपने विरोधियों का विनाश करता हूँ।
42) वे पुकारते तो हैं, किन्तु कोई नहीं सुनता; वे प्रभु की दुहाई देते हैं, किन्तु वह मौन रहता है।
43) मैं उन्हें आंधी की धूल की तरह चूर-चूर करता और सड़कों के कीचड़ की तरह रौंद देता हूँ।
44) तू मुझे अपनी प्रजा के विद्रोह से मुक्त करता और मुझे राष्ट्रों का अधिपति बनाता है। जिन को मैं नहीं जानता था, वे मेरे अधीन हो जाते हैं।
45) विदेशी मेरे दरबारी बनते हैं, वे मेरा आदेश सुनते ही उसका पालन करते हैं।
46) विदेशी योद्धाओं का साहस टूट जाता है; वे काँपते हुए अपने किलों से निकलते हैं।
47) प्रभु की जय! मेरी चट्टान धन्य है! मेरे मुक्तिदाता ईश्वर की स्तुति हो।
48) वही ईश्वर मुझे प्रतिशोध लेने देता और राष्ट्रों को मेरे अधीन करता है।
49) तू मुझे मेरे शत्रुओं से मुक्त करता, मुझे विरोधियों पर विजय दिलाता और मुझे हिंसा करने वालों से छुड़ाता है।
50) प्रभु! मैं राष्ट्रों के बीच तुझे धन्यवाद दूँगा और तेरे नाम का स्तुतिगान करूँगा।
51) वह अपने राजा को विजय दिलाता रहता है। उसकी सत्यप्रतिज्ञता उसके अभिषिक्त के लिए- दाऊद और उसके वंश के लिए-सदा सर्वदा बनी रहती है।