📖 - स्तोत्र ग्रन्थ

अध्याय ➤ 01- 02- 03- 04- 05- 06- 07- 08- 09- 10- 11- 12- 13- 14- 15- 16- 17- 18- 19- 20- 21- 22- 23- 24- 25- 26- 27- 28- 29- 30- 31- 32- 33- 34- 35- 36- 37- 38- 39- 40- 41- 42- 43- 44- 45- 46- 47- 48- 49- 50- 51- 52- 53- 54- 55- 56- 57- 58- 59- 60- 61- 62- 63- 64- 65- 66- 67- 68- 69- 70- 71- 72- 73- 74- 75- 76- 77- 78- 79- 80- 81- 82- 83- 84- 85- 86- 87- 88- 89- 90- 91- 92- 93- 94- 95- 96- 97- 98- 99- 100- 101- 102- 103- 104- 105- 106- 107- 108- 109- 110- 111- 112- 113- 114- 115- 116- 117- 118- 119- 120- 121- 122- 123- 124- 125- 126- 127- 128- 129- 130- 131- 132- 133- 134- 135- 136- 137- 138- 139- 140- 141- 142- 143- 144- 145- 146- 147- 148- 149- 150-मुख्य पृष्ठ

अध्याय 71

1) प्रभु! मैं तेरी शरण आया हूँ। मुझे कभी निराश न होने दे।

2) तू न्यायी है- मुझे छुड़ा, मेरा उद्धार कर; मेरी सुन और मुझे बचा।

3) तू मेरे लिए आश्रय की चट्टान और रक्षा का सुदृढ़ गढ़ बन जा; क्योंकि तू ही मेरी चट्टान और मेरा गढ़ है।

4) मेरे ईश्वर! मुझे दुष्टों के हाथ से, कुकर्मियों और अत्याचारियों के पंजे से छुड़ा।

5) प्रभु-ईश्वर! युवावस्था से तू ही मेरी आशा और भरोसा है।

6) मैं जन्म से तुझ पर ही निर्भर रहा, तूने मुझे गर्भ से निकाला। मैं निरन्तर तेरा गुणगान करता हूँ।

7) मुझे देख कर बहुत-से लोग आश्चर्य करते थे, किन्तु तू मेरा सुरक्षित आश्रय था।

8) मैं दिन भर तेरी स्तुति करता और तेरी महिमा का गीत गाता था।

9) अब मैं बूढ़ा हो चला हूँ, मुझे नहीं छोड़; मैं दुर्बल हो गया हूँ, मुझे नहीं त्याग;

10) क्योंकि मेरे शत्रु मेरी निन्दा करते हैं; जो मेरी घात में बैठे हैं, वे आपस में परामर्श करते हैं।

11) वे कहते हैं, "ईश्वर ने उसे त्याग दिया है, उसका पीछा करो और उसे पकड़ लो; क्योंकि उसे कोई नहीं छुड़ायेगा"।

12) प्रभु! मुझ से दूर न जा, मेरे ईश्वर! शीघ्र ही मेरी सहायता कर।

13) जो मेरे प्राणों के गाहक हैं, वे लज्जित होकर पीछे हटें। जो मेरी दुर्गति चाहते हैं, वे तिरस्कृत और कलंकित हों।

14) मेरी आशा कभी नहीं टूटेगी, मैं निरन्तर तेरा स्तुतिगान करता रहता हूँ।

15) मैं दिन भर तेरी न्यायप्रियता और तेरे मुक्ति-विधान की चरचा करता रहता हूँ, यद्यपि मैं उसकी थाह नहीं ले सकता।

16) मैं प्रभु-ईश्वर के महान् कार्यों का बखान करता हूँ, मैं तेरी ही न्यायप्रियता घोषित करता हूँ।

17) ईश्वर! मुझे युवावस्था से तेरी शिक्षा मिली है, मैं अब तक तेरे महान् कार्य घोषित करता रहा।

18) प्रभु! अब मैं बूढ़ा हो चला, मेरे केश पक गये; फिर भी, मेरा परित्याग न कर, जिससे मैं इस पीढ़ी के लिए तेरे सामर्थ्य का, भावी पीढ़ियों के लिए तेरे पराक्रम का बखान करूँगा।

19) ईश्वर! तेरा न्याय आकाश तक व्याप्त है, तूने महान कार्य प्रदर्शित किये। ईश्वर! कौन तेरे सदृश है?

20) तूने मुझे बहुत-से घोर संकटों में डाला, किन्तु तू मुझे फिर नवजीवन प्रदान करेगा। तू पृथ्वी की गहराइयों से मुझे फिर ऊपर उठायेगा।

21) तू मेरा सम्मान बढ़ा कर मुझे फिर सान्त्वना प्रदान करेगा।

22) मेरे ईश्वर! मैं वीणा बजाते हुए तेरी सत्यप्रतिज्ञता का बखान करूँगा। इस्राएल के परमपावन प्रभु! मैं सितार बजाते हुए तेरी स्तुति करूँगा।

23) तेरी स्तुति करते हुए मेरे होंठ आनन्द के गीत गायेंगे; क्योंकि तूने मेरा उद्धार किया है।

24) मेरी जिह्वा दिन भर तेरी न्यायप्रियता का बखान करती रहेगी; क्योंकि जो मेरी दुर्गति चाहते थे, वे लज्जित और कलंकित हो गये हैं।



Copyright © www.jayesu.com