2 (1-2) ईश्वर! तूने हमारे पूर्वजों के समय में, प्राचीन काल में क्या-क्या किया था, हमने वह अपने कानों से सुना है, हमारे पूर्वजों ने हमें बताया है।
3) उन्हें बसाने के लिए तूने अपने हाथ से राष्ट्रों को निर्वासित किया। उनकी वृद्धि के लिए तूने अन्य जातियों का दमन किया;
4) क्योंकि वे अपनी तलवार के बल देश के अधिकारी नहीं बने, वे अपने बाहुबल से विजयी नहीं हुए; बल्कि वह तेरे दाहिने हाथ, तेरे बाहुबल और तेरी कृपादृष्टि का परिणाम था; क्योंकि तू उनको प्यार करता था।
5) ईश्वर! मेरे राजा! तू ही याकूब को विजय दिलाता है।
6) तेरी सहायता से हमने अपने शत्रुओं को भगाया, तेरे नाम के प्रताप से हमने अपने आक्रामकों को रौंदा है।
7) मुझे अपने धनुष का भरोसा नहीं था, मेरी तलवार मुझे विजय नहीं दिलाती थी।
8) तूने ही हमें हमारे शत्रुओं पर विजय दिलायी, तूने हमारे बैरियों को नीचा दिखाया है।
9) हम प्रतिदिन ईश्वर का स्तुतिगान करते हैं, हम निरन्तर तेरे नाम को धन्य कहेंगे।
10) किन्तु अब तूने हमें त्यागा और अपमानित होने दिया, अब तू हमारी सेनाओं का साथ नहीं देता।
11) हम अपने शत्रुओं के सामने से हटते हैं और वे जब चाहें, हम पर छापा मारते हैं।
12) तूने हमें, भेड़-बकरियों की तरह, वध के लिए छोड़ दिया, तूने हमें राष्ष्ट्रों के बीच बिखेर दिया है।
13) तूने अपनी प्रजा को सस्ते दामों पर बेचा और उस से तुझे कोई लाभ नहीं हुआ।
14) हमारे पड़ोसी हम पर ताना मारते हैं। आसपास रहने वाले हमारा उपहास करते हैं।
15) गै़र-यहूदी राष्ट्रों में हमारे निन्दा होती है। लोग सिर हिलाते हुए हम पर हँसते हैं।
16) (16-17) मेरा कलंक दिन भर मेरे सामने है। अपमान और ईश-निन्दा सुनते-सुनते मैं प्रतिशोध की कामना करने वाले शत्रुओं के सामने लज्जा के मारे अपना मुख छिपाता हूँ।
18) यह सब होते हुए भी हमने तुझे नहीं भुलाया।
19) हमने तेरे विधान के साथ विश्वासघात नहीं किया था। हमारा हृदय नहीं मुकर गया था, तुझ से विमुख नहीं हुआ था। हमारे पैर तेरे मार्ग से नहीं भटके थे,
20) जब तूने हमारा देश उजाड़ कर उसे गीदड़ों का अड्डा बनाया और मृत्यु की छाया से हमें ढक दिया।
21) यदि हमने अपने ईश्वर का नाम भुलाया होता और पराये देवता के आगे हाथ फैलाये होते,
22) तो क्या ईश्वर ने यह नहीं देखा होता? वह तो हृदयों का रहस्य जानता है।
23) तेरे कारण दिन भर हमारा वध किया जाता है। वध होने वाली भेड़ों में हमारी गिनती हुई है।
24) प्रभु! जाग! तू सोता क्यों है? उठ! हमें सदा के लिए न त्याग।
25) तू हम से अपना मुख क्यों छिपाता है? और हमारी दयनीय दशा क्यों भुलाता है?
26) क्योंकि हमारी आत्मा धूल में पड़ी हुई है, हमारा शरीर मिट्टी में रौंदा गया है। उठ कर हमारी सहायता कर। अपनी सत्यप्रतिज्ञता के कारण हमारा उद्धार कर।