2 (1-2) मैंने कहा था, "मैं सावधान रहूँगा, जिससे मैं अपनी जिह्वा से पाप न करूँ। जब तक विधर्मी मेरे पास हैं, मैं अपने मुँह पर लगाम लगाऊँगा।"
3) मैं मौन और शान्त रहा। मैं व्यर्थ चुप रहा, मेरी वेदना बढ़ गयी।
4) मेरा हृदय मेरे अन्तरतम में जलता रहा। मैं आहें भरता रहा, मुझ में आग धधकने लगी और मेरी जिह्वा बोल उठी:
5) "प्रभु! मुझे बता कि मेरा अन्त कब होगा, मेरे कितने दिन शेष हैं, जिससे मैं समझूँ कि मैं कितना क्षणभंगुर हूँ?
6) देख, तूने मेरे दिनों को बित्ते से मापा है, मेरी आयु तेरे सामने नहीं के बराबर है। सब मनुष्य श्वास मात्र हैं।
7) मनुष्य छाया की तरह अपनी राह चलता है, उसकी सारी क्रियाशीलता निरर्थक है। वह धन एकत्र करता है और नहीं जानता कि उसे कौन बटोर लेगा।
8) "प्रभु! मुझे क्या पाने की आशा है? मेरी आशा तुझ पर लगी है।
9) मुझे अपने पापों से मुक्त कर! मैं मूर्खों के अपमान का पात्र न बनूँ।
10) मैंने अपना मुँह बन्द किया, उसे नहीं खोलूँगा; क्योंकि यह कार्य तेरा ही है।
11) "अब मुझ पर प्रहार न कर, मैं तेरे हाथ की मार से नष्ट हो गया हूँ।
12) तू दण्ड दे कर मनुष्य को सुधारता है। जो सम्पत्ति उसे प्रिय है, तू उसे मकड़ी के जाले की तरह नष्ट करता है; क्योंकि मनुष्य श्वास मात्र है।
13) "प्रभु! मेरी प्रार्थना और मेरी पुकार सुन, मेरे आँसुओं पर ध्यान दे, मौन न रह; क्योंकि मैं तेरे यहाँ अतिथि हूँ, अपने पूर्वजों की तरह प्रवासी हूँ।
14) मुझ से अपनी कोपदृष्टि हटा, जिससे चले जाने और समाप्त होने के पूर्व मुझे सान्त्वना मिले।"