2 (1-2) मेरे ईश्वर! मेरे ईश्वर! तूने मुझे क्यों त्याग दिया? तू मेरी पुकार सुन कर मेरा उद्धार क्यों नहीं करता?
3) मेरे ईश्वर! मैं दिन में पुकारता हूँ और तू उत्तर नहीं देता; मैं रात में पुकारता हूँ और मुझे शान्ति नहीं मिलती,
4) यद्यपि तू मन्दिर में विराजमान है। इस्राएल तेरा स्तुतिगान करता है।
5) हमारे पूर्वजों को तेरा भरोसा था; उन्होंने तुझ पर भरोसा रखा और तूने उनका उद्धार किया।
6) उन्होंने तेरी दुहाई दी और तूने उन्हें मुक्त किया। उन को तेरा भरोसा था और तूने उन्हें निराश नहीं होने दिया।
7) परन्तु मैं मनुष्य नहीं, कीट हूँ; मनुष्यों द्वारा तिरस्कृत, लोगों द्वारा परित्यक्त।
8) मुझे जो भी देखते हैं, मेरा उपहास करते हैं; वे सिर हिलाते हुए मेरी हंसी उड़ाते हैं।
9) "उसने प्रभु पर भरोसा रखा, वही अब उसे बचाये; यह वह उसे प्यार करता है, तो वह उसे छुड़ाये"।
10) तूने मुझे गर्भ से निकाला और माता की गोद में सुरक्षित रखा।
11) मैं जन्म से ही तुझ अर्पित किया गया; माता के गर्भ से ही तू मेरा रक्षक है।
12) मुझ से दूर न जा, क्योंकि विपत्ति निकट है और मेरा कोई सहायक नहीं।
13) बहुत-से सांड़ मेरे चारों ओर खड़े हैं; बाशान प्रदेश के सांड़ मुझे घेर रहे हैं।
14) वे भूखे और गरजते सिंह की तरह मुझे फाड़ खाने के लिए खड़े हैं।
15) मैं पानी की तरह बह गया; मेरी सब हडिडयाँ जोड़ से उखड़ गयी हैं। मेरा हृदय मोम की तरह मेरे सीने में पिघल रहा है।
16) मेरी शक्ति ठीकरे की तरह सूख गयी; मेरी जिह्वा तालू से चिपक गयी। वे मुझे मृत्यु की धूल में मिलाने जा रहे हैं।
17) कुत्ते मुझे घेर रहे हैं; कुकर्मियों का दल मेरे चारों ओर खड़ा है। वे मेरे हाथ-पैर छेद रहे हैं।
18) मैं अपनी एक-एक हड्डी गिन सकता हूँ। वे मुझे देखते और घूरते रहते हैं।
19) वे मेरे वस्त्र आपस में बाँटते और मेरे कुरते पर चिट्ठी डालते हैं।
20) प्रभु! मुझ से दूर न जा। तू मेरा बल है; शीघ्र ही मेरी सहायता कर।
21) मेरी आत्मा को तलवार से बचा, मेरे प्राणों को कुत्तों के पंजों से।
22) मुझे सिंह के जबड़े से छुड़ा, मेरे प्राणों की जंगली सांडों के सींगों से।
23) मैं अपने भाइयों के सामने तेरे नाम का बखान करूँगा, मैं सभाओं में तेरा स्तुतिगान करूँगा।
24) प्रभु के श्रद्धालुु भक्तों! उसकी स्तुति करो। याकूब के वंशजों! उसकी महिमा गाओ। इस्राएल के सब वंशजों! उस पर श्रद्धा रखो;
25) क्योंकि उसने दीन-हीन का तिरस्कार नहीं किया, उसे उसकी दुर्गति से घृणा नहीं हुई, उसने उस से अपना मुख नहीं छिपाया, उसने उसकी पुकार पर ध्यान दिया।
26) मैं तुझ से प्रेरित हो कर भरी सभा में तेरा गुणगान करूँगा। मैं प्रभु-भक्तों के सामने अपनी मन्नतें पूरी करूँगा।
27) जो दरिद्र हैं, वे खा कर तृप्त हो जायेंगे; जो प्रभु की खोज में लगे हैं, वे उसकी स्तुति करेंगे। उनका हृदय सदा-सर्वदा जीवित रहे।
28) समस्त पृथ्वी प्रभु का स्मरण करेगी और उसकी ओर अभिमुख हो जायेगी। सभी राष्ट्र उसे दण्डवत् करेंगे;
29) क्योंकि प्रभु ही राजा है। वही राष्ट्रों का शासन करता है।
30) पृथ्वी के सभी शासक उसी के सामने नमस्तक होंगे। सभी मनुष्य उसी की आराधना करेंगे। मैं उसके लिए जीवित रहूँगा।
31) मेरा वंश उसकी सेवा करता रहेगा। वह आने वाली पीढ़ी के लिए प्रभु के कार्यों का बखान करेगा
32) और जिन लोगों का अब तक जन्म नहीं हुआ, उनके लिए प्रभु का नाम घोषित करेगा।