1) प्रभु! तूने मेरी थाह ली है; तू मुझे जानता है।
2) मैं चाहे लेटूँ या बैठूँ, तू जानता है। तू दूर रहते हुए भी मेरे विचार भाँप लेता है।
3) मैं चाहे चलूँ या लेटूँ, तू देखता है। मैं जो भी कहता हूँ, तू सब जानता है।
4) मेरे मुख से बात निकल ही नहीं पायी कि प्रभु! तू उसे पूरी तरह जान गया।
5) तू मुझे आगे और पीछे से सँभालता है। तेरा हाथ मेरी रक्षा करता रहता है।
6) तेरी यह सूक्ष्म दृष्टि मेरी समझ के परे है। यह उतनी ऊँची है कि मैं इसे छू नहीं पाता।
7) मैं कहाँ जा कर तुझ से अपने को छिपाऊँ? मैं कहाँ भाग कर तेरी आँखों से ओझल हो जाऊँ,
8) यदि मैं आकाश तक चढूँ, तो तू वहाँ है। यदि मैं अधोलोक में लेटूँ, तो तू वहाँ है।
9) यदि मैं उषा के पंखों पर चढ़ कर समुद्र के उस पार बस जाऊँ,
10) तो वहाँ भी तेरा हाथ मुझे ले चलता, वहाँ भी तेरा दाहिना हाथ मुझे सँभालता है
11) यदि मैं कहूँ: "अन्धकार मुझे छिपाये और रात मुझे चारों ओर घेर ले",
12) तो तेरे लिए अन्धकार अंधेरा नहीं है और रात दिन की तरह प्रकाशमान है। अन्धकार तेरे लिए प्रकाश-जैसा है।
13) तूने मेरे शरीर की सृष्टि की; तूने माता के गर्भ में मुझे गढ़ा।
14) मैं तेरा धन्यवाद करता हूँ - मेरा निर्माण अपूर्व है। तेरे कार्य अद्भुत हैं, मैं यह अच्छी तरह जानता हूँ।
15) जब मैं अदृश्य में बन रहा था, जब मैं गर्भ के अन्धकार में गढ़ा जा रहा था,
16) तो तूने मेरी हड्डियों को बढ़ते देखा। तूने मेरे सब कर्मों को देखा। वे सब तेरे ग्रन्थ में लिखे हैं। घटित होने के पूर्व ही मेरे दिनों की सीमा निर्धारित की गयी।
17) ईश्वर! मेरे लिए तेरे विचार कितने दुर्बोध है! उनकी संख्या कितनी अपार है!
18) यदि मैं उन्हें गिनना चाहूँ, तो वे बालू के कणों से भी अधिक हैं। यदि मैं उन्हें पूरा गिन पाऊँ, तब भी मैं घाटे में होऊँगा।
19) ईश्वर! कितना अच्छा होता कि तू दुष्टों का विनाश करता! रक्तपिपासु मनुष्यो! मुझ से दूर हटो।
20) वे कपट से तेरा से तेरा नाम लेते और व्यर्थ ही तुझ से विद्रोह करते हैं।
21) प्रभु! क्या मैं तेरे बैरियों से बैर न करूँ? क्या मैं तेरे विरोधियों से घृणा न करूँ?
22) मैं हृदय से उन से बैर करता हूँ। मैं उन्हें अपने निजी शत्रु मानता हूँ।
23) ईश्वर! मुझे परख कर मेरे हृदय को पहचान ले; मुझे जाँच कर मेरी चिन्ताओं को जान ले।
24) मेरी रखवाली कर, जिससे मैं कुमार्ग पर पैर न रखूँ; मुझे अनन्त जीवन के मार्ग पर ले चल।