2 (1-2) ईश्वर! सियोन में तेरा स्तुतिगान करना हमारे लिए उचित है। हम तेरे लिए अपनी मन्नतें पूरी करते हैं।
3) सब मनुष्य तेरे पास आते हैं, क्योंकि तू प्रार्थनाएँ सुनता है।
4) हमारा अधर्म हम पर हावी हो गया, किन्तु तू हमारा पाप क्षमा करता है।
5) धन्य है वह, जिसे तू चुनता और अपने मंदिर में निवास करने देता है। हम तेरे घर के वैभव से, तेरे मंदिर की पवित्रता से समृद्ध होंगे।
6) अपने न्याय के अनुरूप तू अपने चमत्कारों द्वारा हमारी प्रार्थना का उत्तर देता है। तू हमारा उद्धारक ईश्वर है, समस्त पृथ्वी और सुदूर द्वीपों की आशा।
7) वह अपने सामर्थ्य से पर्वतों को स्थापित करता है। वह पराक्रम से विभूशित है।
8) वह समुद्र का गर्जन, उसकी लहरों का कोलाहल और राष्ट्रों का उपद्रव शान्त करता है।
9) पृथ्वी के सीमान्तों के निवासी तेरे चमत्कार देख कर आश्चर्यचकित हैं। पूर्व और पश्चिम के प्रदेश तेरे कारण उल्लसित हो कर आनन्द मनाते हैं।
10) तूने पृथ्वी की सुधि ली, उसे सींचा और उपज से भर दिया। तू मनुष्य के अन्न का प्रबन्ध करता है। तू भूमि को इस प्रकार तैयार करता है।
11) तू जोती हुई भूमि सींचता है, उसे बराबर करता, पानी बरसा कर नरम बनाता और उसके अंकुरों को आशिष देता है।
12) तू वर्ष भर वरदान देता रहता है, तेरे मार्गों के आसपास की भूमि अच्छी फसल से भरी हुई है।
13) परती भूमि के चरागाह हरे-भरे हैं। पहाड़ियों में आनन्द के गीत गूँजते हैं।
14) चरागाह पशुओं से भरे हुए हैं। घाटियाँ अनाज की फसल से ढकी हुई हैं। सर्वत्र आनन्द तथा उल्लास के गीत सुनाई पड़ते हैं।