2 (1-2) मैं प्रभु की प्रतीक्षा करता रहा; उसने झुक कर मेरी पुकार सुनी।
3) उसने मुझे विनाश के गर्त से, दलदल से कीच से निकाला। उसने मेरे पैर चट्टान पर टिकाकर मुझे दृढ़ कदमों से आगे बढ़ने दिया।
4) उसने मेरे मुख में एक नया गीत, हमारे ईश्वर का स्तुतिगान रखा। बहुत-से लोग यह देख कर प्रभु पर श्रद्धा और भरोसा रखेंगे।
5) धन्य है वह मनुष्य, जिसने प्रभु का भरोसा किया। और घमण्डियों तथा मिथ्यावादियों का साथ नहीं दिया।
6) प्रभु! मेरे ईश्वर! तूने हमारे लिए कितनी महान योजनाएँ और कार्य सम्पन्न किये! तू अतुलनीय है। यदि मैं तेरे कार्यों की घोषणा और वर्णन करना चाहूँ, तो वे इतने अधिक हैं कि मैं उनके वर्णन में असमर्थ हूँ।
7) तूने न तो यज्ञ चाहा और न चढ़ावा, बल्कि तूने मुझे सुनने के कान दिये। तूने न तो होम माँगा और न बलिदान।
8) तब मैंने कहा: देख! मैं आ रहा हूँ। मुझे धर्मग्रन्थ से यह आदेश मिला है कि मैं तेरी आज्ञाओं का पालन करूँ।
9) मेरे ईश्वर! मैं वही करना चाहता हूँ, जो तुझे प्रिय है। तेरी संहिता मेरे हृदय में घर कर गयी है।
10) मैंने भरी सभा में तेरे न्याय की घोषणा की है। प्रभु! तू जानता है कि मैंने अपना मुख बन्द नहीं रखा।
11) मैंने तेरी न्यायप्रियता को अपने हृदय में नहीं छिपाया। मैंने तेरी सत्यप्रतिज्ञता और सहायता का बखान किया। मैंने भरी सभा में तेरे प्रेम और सत्य को नहीं छिपाया।
12) प्रभु! तू मुझ पर अपनी कृपादृष्टि बनाये रखेगा, तेरी सत्यप्रतिज्ञता और तेरा सत्य मेरी रक्षा करते रहेंगे।
13) असंख्य विपत्तियाँ मुझे घेरे रहती हैं, मैं अपने दोषों के भार से दब जाता हूँ, मैं उन्हें देखने में असमर्थ हूँ। वे मेरे सिर के बालों से भी अधिक हैं। मेरा हृदय हताश हो गया है।
14) प्रभु! मेरा उद्धार कर। प्रभु! शीघ्र ही मेरी सहायता कर।
15) जो मेरे जीवन के ग्राहक हैं, वे सब-के-सब लज्जित हों। जो मेरी दुर्गति की कामना करते हैं, वे अपमानित हो कर हट जायें।
16) जो मुझ से "अहा! अहा!" कहते हैं, वे कलंकित हो कर घबरायें।
17) जो तेरी खोज में लगे हैं, वे सभी उल्लास के साथ आनन्द मनायें। जो तेरे द्वारा मुक्ति चाहते हैं, वे निरन्तर यह कहते रहेंः प्रभु महान् है।
18) मैं दरिद्र और निस्सहाय हूँ, प्रभु मेरी सुधि लेता है। तू ही मेरा सहायक और उद्धारक है। मेरे ईश्वर! विलम्ब न कर।