2 (1-2) ईश्वर! शत्रुओं से मेरा उद्धार कर; आक्रमकों से मेरी रक्षा कर।
3) कुकर्मियों के पंजे से मुझे छुड़ा, रक्त-पिपासुओं से मेरी रक्षा कर।
4) देख, वे मुझे मारने के लिए घात लगाये बैठे हैं, शक्तिशाली शत्रु मुझ पर आक्रमण करते हैं। प्रभु! मैंने न तो कोई पाप किया और न कोई अपराध।
5) मैं निर्दोष हूँ, फिर भी वे दौड़ते हुए आ कर मेरी घात में बैठे हैं। उठ कर मेरी सहायता कर, मेरी दुर्गति पर ध्यान दे।
6) सर्वशक्तिमान् प्रभु-ईश्वर! इस्राएल के ईश्वर! तू जाग कर इन सब राष्ट्रों को दण्ड दे, इन सब दुष्ट विश्वासघातियों पर दया न कर।
7) वे शाम को लौट कर कुत्तों की तरह गुर्राते हुए शहर में विचरते हैं।
8) वे डींग मारते हैं। उनके शब्द तलवार..जैसे पैने हैं। वे सोचते हैं - "हमें कौन सुनता है?"
9) प्रभु! तू उन पर हँसता और उन सब राष्ट्रों का उपहास करता है।
10) तू ही मेरा बल है; मैं तेरी प्रतीक्षा करता हूँ। ईश्वर ही मेरा गढ़ है।
11) सत्यप्रतिज्ञ ईश्वर मेरी सहायता करता है; मैं अपने शत्रुओं का डट कर सामना करता हूँ।
12) उनका वध न कर। ऐसा न हो कि मेरी प्रजा भूल जाये। तेरा सामर्थ्य उन्हें भगा दे और नीचा दिखाये; क्योंकि प्रभु; तू ही हमारी ढाल है।
13) वे अपने हर शब्द से पाप करते हैं। उनका घमण्ड, उनकी निन्दा और उनके झूठे शब्द उनके लिए फन्दा बनें।
14) तेरा क्रोध उन्हें भस्म कर दे, उनका नाम-निशान भी नहीं रहे। वे जान जायें कि ईश्वर पृथ्वी के सीमान्तों तक याकूब पर राज्य करता है।
15) वे शाम को लौट कर कुत्तों की तरह गुर्राते हुए शहर में विचरते हैं।
16) वे आहार की खोज में भटकते फिरते हैं, वे तृप्त न होने पर रात भर हुआते हैं।
17) मैं तेरे सामर्थ्य का बखान करता हूँ। मैं प्रातः तेरी सत्यप्रतिज्ञता की स्तुति करता हूँ; क्योंकि तू मेरा गढ़ है, संकट के समय मेरा शरणस्थान।
18) तू ही मेरा बल है; मैं तेरी स्तुति करूँगा। ईश्वर ही मेरा गढ़ है; वह मेरा सत्यप्रतिज्ञ ईश्वर है।