📖 - प्रवक्ता-ग्रन्थ (Ecclesiasticus)

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अध्याय 42

1) सुनी हुई बात को दूसरों से कहना और रहस्य प्रकट करना। इस प्रकार तुम सच्ची लज्जा का अनुभव करोगे और सबों में लोकप्रिय होगे। निम्नलिखित बातों को लज्जाजनक मत मानो और लोकलज्जा के कारण पाप मत करो:

2) सर्वोच्च प्रभु की संहिता और उसका विधान, विधर्मी को न्यायोचित दण्ड,

3) साथी और सहयात्री के साथ हिसाब, दूसरों के साथ विरासत का विभाजन,

4) तराजू और बाँटों की सच्चाई, बहुत या कम सम्पत्ति,

5) व्यापारी के साथ सौदा, सन्तति का निरन्तर अनुशासन, दुष्ट नौकर को कोड़ों की मार।

6) यदि पत्नी दुष्ट हो, तो उसे बन्द रखो।

7) जहाँ बहुत हाथ हों, वहाँ सामान पर ताला लगाओे। अमानत का माल गिनो और तोलो, जो देते या लेते हो , उसका हिसाब रखो।

8) नासमझ एवं मूर्ख और लम्पट बूढे़ को डाँटने में लज्जा का अनुभव मत करो। इस से तुम समझदार समझे जाओगे और सभी लोग तुम्हारा समर्थन करेंगे।

9) पिता के लिए पुत्री की चिन्ता का कारण है, उसकी चिन्ता उसे सोने नहीं देती। जब छोटी है, तो वह डरता है कि कहीं अविवाहित न रह जाये और जब उसका विवाह हो गया है, तो इसलिए कि कहीं उसका परित्याग न हो।

10) जब कुँवारी है, तो शीलभंग और पिता के घर में रहते गर्भवती होने की आशंका है। जब विवाहिता है, तो अपने पति के प्रति विश्वासघात की और उसके घर में बाँझपन की आशंका है।

11) चंचल पुत्री पर सख्त निगरानी रखो। कहीं ऐसा न हो कि तुम्हारे शत्रु तुम्हारी निन्दा करें, नगर में तुम्हारी बदनामी हो, लोग तुम को अभिशाप दें और तुम को भरी सभा में कलंक लगे।

12) वह किसी पुरुष के सामने अपना सौन्दर्य प्रकट न करे। और स्त्रियों की बीच नहीं बैठे;

13) क्योंकि कपड़ों से कीड़े निकलते हैं और एक स्त्री की दुष्चरत्रिता दूसरी को प्रभावित करती है।

14) स्नेही स्त्री की अपेक्षा उसके लिए कठोर पुरुष अच्छा है। पुत्री को हर प्रकार के कलंक से सावधान रहना चाहिए।

15) अब मैं प्रभु के कार्यों का स्मरण करूँगा। मैंने जो देखा है, उसका बखान करूँगा। प्रभु ने अपने शब्द द्वारा अपने कार्य सम्पन्न किये और अपनी इच्छा के अनुसार निर्णय किया।

16) सूर्य सब कुछ आलोकित करता है समस्त सृष्टि प्रभु की महिमा से परिपूर्ण है।

17) स्वर्गदूतों को भी यह सामर्थ्य नहीं मिला है कि वे उन सब महान् कार्यो का बखान करें, जिन्हें सर्वशक्तिमान् प्रभु ने सुस्थिर कर दिया है, जिससे विश्वमण्डल उसकी महिमा पर आधारित हो।

18) वह समुद्र और मानव हृदय की थाह लेता और उनके सभी रहस्य जानता है;

19) क्योंकि सर्वोच्च प्रभु सर्वज्ञ है और भविष्य भी उस से छिपा हुआ नहीं। वह भूत और भविष्य, दोनो को प्रकाश में लाता और गूढ़तम रहस्यों को प्रकट करता है।

20) वह हमारे सभी विचार जानता है, एक शब्द भी उस से छिपा नहीं रहता।

21) उसकी प्रज्ञा के कार्य सुव्यवस्थित हैं; क्योंकि वह अनादि और अनन्त है। उस में न तो कोई वृद्धि है।

22) और न कोई ह्रास और उसे किसी परामर्शदाता की आवश्यकता नहीं।

23) उसकी सृष्टि कितनी रमणीय है! हम उसकी झलक मात्र देख पाते हैं।

24) उसके समस्त कार्य अनुप्रमाणित और चिरस्थायी हैं; उसने जो कुछ बनाया है, वह उसका उद्देश्य पूरा करता है।

25) सब चीजें दो-दो प्रकार की होती हैं, एक दूसरी से ठीक विपरीत। उसने कुछ भी व्यर्थ नहीं बनाया।

26) वे एक दूसरी की कमी पूरी करती है। प्रभु की महिमा देखने पर कौन तृप्त होगा?



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