1) पुत्र! दरिद्र की जीविका मत छीनो और प्रतीक्षा करने वाली आँखों को निराश मत करो।
2) भूखे को मत सताओ और दरिद्र को मत चिढ़ाओे।
3) कटु हृदय को उत्पीड़ित मत करो और कंगाल को देने में विलम्ब मत करो।
4) संकट में पड़े की याचना मत ठुकराओे, कंगाल से अपना मुँह मत मोड़ो।
5) दरिद्र से आँखें मत फेरो, उसे अवसर मत दो कि वह तुम को अभिशाप दे।
6) यदि वह अपनी आत्मा की कटुता के कारण तुम को अभिशाप दे, तो उसका सृष्टिकर्ता उसकी प्रार्थना सुनेगा।
7) सभा में मिलनसार बनो और बड़े को प्रणाम करो।
8) कंगाल की बात पर कान दो और सौजन्य से उसके नमस्कार का उत्तर दो।
9) अत्याचारी के हाथों से उत्पीड़ित को छुड़ाओे और न्याय करने में आगा-पीछा मत करो।
10) अनाथों के दयालु पिता बनो और पति की तरह उनकी माता के सहायक बनो।
11) तब तुम मानो सर्वोच्च प्रभु के पुत्र बनोगे और वह तुम को माता से भी अधिक प्यार करेगा।
12) प्रज्ञा अपनी प्रजा को महान् बनाती है। जो उसकी खोज में लगे रहते हैं, वह उनकी देखरेख करती है।
13) जो उसे प्यार करता है, वह जीवन को प्यार करता है। जो प्रातःकाल से उसे ढूँढ़ते हैं, वे आनन्दित होंगे।
14) जो उसे प्राप्त कर लेता है, वह महिमान्वित होगा। वह जहाँ कहीं जायेगा, प्रभु उसे वहाँ आशीर्वाद प्रदान करेगा।
15) जो उसकी सेवा करते हैं, वे परमपावन प्रभु की सेवा करते हैं। जो उसे प्यार करते हैं, प्रभु उन को प्यार करता है।
16) जो उसकी बात मानता है, वह न्यायसंगत निर्णय देता है। जो उसके मार्ग पर चलता है, उसका निवास सुरक्षित है।
17) जो उस पर भरोसा रखता है, वह उसे प्राप्त करेगा और उसका वंश भी उसका अधिकारी होगा।
18) प्रारम्भ में प्रज्ञा उसे टेढ़े-मेढ़े रास्ते पर ले चलेगी और उसकी परीक्षा लेगी।
19) वह उस में भय तथा आतंक उत्पन्न करेगी। वह अपने अनुशासन से उसे उत्पीड़ित करेगी और तब तक अपने नियमों से उसकी परीक्षा करती रहेगी, जब तक वह उस पूर्णतया विश्वास नहीं करती।
20) इसके बाद वह उसे सीधे मार्ग पर ले जा कर आनन्दित कर देगी
21) और उस पर अपने रहस्य प्रकट करेगी। वह उसे ज्ञान और न्याय का विवेक प्रदान करेगी।
22) किन्तु यदि वह भटक जायेगा, तो वह उसका त्याग करेगी और उसे विनाश के मार्ग पर आगे बढ़ने के लिए छोड़ देगी।
23) परिस्थिति के अनुसार आचरण करो, अपने को बुराई से दूर रखो
24) और तुम्हें अपने पर लज्जा नहीं होगी;
25) क्योंकि एक प्रकार की लज्जा पाप की ओर ले जाती और दूसरे प्रकार की लज्जा महिमा और सम्मान की ओर।
26) धृष्टता के कारण अपनी हानि मत करो और अपने पतन का कारण मत बनो।
27) अपने पड़ोस के रोब को अपने पतन का कारण न बनने दो।
28) अवसर आने पर बोलने में संकोच मत करो और अपनी प्रज्ञा को मत छिपाओे;
29) क्योंकि प्रज्ञा भाषा में और ज्ञान शब्दों में प्रकट होता है।
30) सत्य का विरोध मत करो और नम्रता से अपना अज्ञान स्वीकार करो।
31) अपने पाप स्वीकार करने में संकोच मत करो। पाप के कारण किसी की अधीनता स्वीकार मत करो।
32) शक्तिशाली का विरोध मत करो; नदी के प्रवाह का सामना मत करो।
33) मृत्यु तक न्याय के लिए संघर्ष करो और प्रभु-ईश्वर तुम्हारे लिए युद्ध करेगा।
34) जब तुम करनी में आलसी और निष्क्रिय हो, तो कथनी में धृष्ट मत बनो!
35) अपने दासों को निकाल कर और अपने अधीन लोगों पर अत्याचार कर अपने घर में सिंह मत बनो।
36) लेने के लिए अपना हाथ मत पसारो और देने के लिए उसे बन्द मत रखो।