1) बुराई मत करो और बुराई तुम पर हावी नहीं होगी।
2) अन्याय से दूर रहो और वह तुम्हारे पास नहीं फटकेगा।
3) पुत्र! अधर्म के कूँड़ों में बीज न बोओ, तो उसकी सात गुनी फसल नहीं लुनोगे।
4) तुम न तो प्रभु से अधिकार माँगो और न राजा से सम्मान का आसन।
5) तुम न तो प्रभु के सामने धार्मिकता का और न राजा के सामने प्रज्ञा का स्वाँग भरो।
6) न्यायाधीश बनने का प्रयत्न मत करो। कहीं ऐसा न हो कि तुम अन्याय नहीं दूर कर सको या डर के मारे शासक का पक्ष लो और अपने ईमान पर कलंक लगाओ।
7) नगर-सभा के विरुद्ध पाप मत करो और भीड़ की दृष्टि में कलंकित मत बनो।
8) एक ही पाप में दो बार मत फॅसो, क्योंकि एक के दण्ड से भी नहीं बचोगे।
9) प्रार्थना करते समय माँगने में संकोच मत करो।
10) याचना और भिक्षादान की उपेक्षा मत करो।
11) यह मत कहो, "ईश्वर मेरे बहुसंख्यक चढ़ावों पर ध्यान देगा। जब मैं प्रभु को चढ़ावे अर्पित करूँगा, तो वह उन्हें स्वीकार करेगा।"
12) दुःखी मनुष्य का उपहास मत करो, क्योंकि ईश्वर नीचा भी दिखाता और ऊपर भी उठाता है।
13) अपने भाई के विरुद्ध झूठी बातों का प्रचार मत करो और अपने मित्र के साथ भी ऐसा मत करो।
14) हर समय झूठ मत बोलो, इस से कोई लाभ नहीं होता।
15) बड़े-बूढ़ों की सभा में बकवास मत करो और प्रार्थना करते समय रट मत लगाओे।
16) कठोर परिश्रम से घृणा मत करो और न खेती-बारी से, जो सर्वोच्च प्रभु द्वारा निर्धारित है।
17) पापियों की संगति मत करो।
18) याद रखो कि क्रोध में देर नहीं होगी।
19) अपने को बहुत विनम्र बनाये रखो; क्योंकि विधर्मी को आग और कीड़ों से दण्डित किया जायेगा।
20) रुपये-पैसे के लिए अपने मित्र को न बेचो और न ओफ़िर के सोने के लिए सच्चे भाई को।
21) समझदार और साध्वी पत्नी का परित्याग मत करो, क्येांकि वह स्वर्ण से भी अधिक वांछनीय है।
22) ईमानदार नौकर के साथ दुव्र्यवहार मत करो और न उस मजदूर के साथ, जो पूरी लगन से काम करता है।
23) तुम बुद्धिमान् दास को अपने समान प्यार करो और उसे मुक्त करना अस्वीकार मत करो।
24) यदि तुम्हारे पशु हो, तो उनकी देखरेख करो। यदि उन से लाभ है, तो उन्हें अपने पास रखो।
25) यदि तुम्हारे पुत्र हों, तो उन्हें शिक्षा दिलाओ और बचपन से ही उन्हें अनुशासन में रखो।
26) यदि तुम्हारी पुत्रियाँ हों, तो उनकी रक्षा करो और उनके साथ ढिलाई मत करो।
27) अपनी पुत्री के विवाह का प्रबन्ध करो यह एक महत्वपूर्ण कार्य है। किन्तु उसे एक समझदार व्यक्ति को सौंपो।
28) यदि तुम्हारी पत्नी मनपसन्द है, तो उसका परित्याग मत करो। यदि वह तुम को पसन्द नहीं है, तो उस पर विश्वास मत करो।
29) सारे हृदय से अपने पिता का आदर करो और अपनी माता का दुःख मत भुलाओ।
30) याद रखो कि तुम्हें उन से जन्म मिला; उनके उपकार का बदला कैसे दे सकते हो ?
31) सारे हृदय से प्रभु पर श्रद्धा रखो और उसके याजकों का आदर करो।
32) अपने सृष्टिकर्ता को अपनी सारी शक्ति से प्यार करो। और उसके सेवकों को निराश मत करो।
33) सारे हृदय से ईश्वर का आदर करो और याजको का सम्मान करो।
34) प्रज्ञा के अनुसार उन्हें उनका भाग दो: प्रथम फल, प्रायश्चित-बलि, स्कन्धभाग,
35) समर्पण-बलि और पवित्र चढ़ावों के प्रथम फल।
36) हाथ बढ़ा कर दरिद्र को दान दो, जिससे तुम्हें अशीर्वाद प्राप्त हो।
37) सब जीवितों के प्रति उदार बनो, मृतकों को अपने दान से वंचित मत करो।
38) रोने वालों को सान्त्वना दो और शोक मनाने वालों के साथ शोक मनाओ।
39) बीमारों से मिलने में लापरवाही मत करो। इससे तुम लोकप्रिय बनोगे।
40) सब बातों में अपनी अन्तगति याद रखो और तुम जीवन भर पाप नहीं करोगे।