📖 - प्रवक्ता-ग्रन्थ (Ecclesiasticus)

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अध्याय 14

1) धन्य है वह मनुष्य, जिसने अपने मुख से पाप नहीं किया और जो अपने पुराने पापों के कारण दुःखी न हो!

2) धन्य है वह मनुष्य, जिसका अन्तःकरण उसे दोषी नहीं ठहराता और जिसने आशा नहीं छोड़ी है!

3) क्षुद्र मनुष्य को धन शोभा नहीं देता और कृपण का सोना किसी काम का नहीं।

4) जो अपना पेट काट कर धन संचित करता है, वह उसे दूसरों के लिए संचित करता है, पराये लोग उसका धन भोगेंगे।

5) जो अपना ही शत्रु है, वह किसका हित करेगा? वह अपने ही धन का उपभोग नहीं करता।

6) जो अपने साथ दुव्र्यवहार करता, उस से बुरा कोई नहीं; वह अपने से अपनी बुराई का बदला चुकाता है।

7) यदि वह भलाई करता, तो अनजाने ऐसा करता और अन्त में अपनी बुराई प्रकट करता है।

8) ईर्ष्यालु मनुष्य दुष्ट है। वह मुँह मोड़ कर दूसरो का तिरस्कार करता है।

9) लालची अपने भाग से सन्तुष्ट नहीं होता उसका लालच उसे खा जाता है।

10) कृपण रोटी का लालच करता, किन्तु अपनी मेज़ पर भूखा रहता है।

11) पुत्र! अपने धन का उपभोग करो और प्रभु को उचित बलिदान चढ़ाओ।

12) याद रखो कि मृत्यु के आने में देर नहीं है और तुम अधोलोक का निर्णय नहीं जानते।

13) मरने से पहले अपने मित्र की भलाई करो और जहाँ तक बन पड़े, उसे उदार दान दो।

14) वर्तमान की अच्छी चीजों से अपने को वंचित मत रखो और सुख का अपना भाग हाथ से न जाने दो।

15) क्या तुम को अपना धन दूसरों के लिए नहीं छोड़ना पड़ेगा? क्या तुम्हारे परिश्रम का फल चिट्ठी डाल कर नहीं बँटेगा ?

16) दे दो, ले लो और आनन्द मनाओ।

17) मरने से पहले धर्माचरण करो, क्योंकि अधोलोक में तुम को सुख नहीं मिलेगा।

18) हर शरीर वस्त्र की तरह जीर्ण हो जाता है और यह निर्णय अपरिवर्तनीय है "तुम मर जाओगे"। जिस तरह हरे पेड़ के पत्तों में

19) कुछ फूट कर निकलते और कुछ गिर जाते हैं, उसी तरह शरीरधारियो की पीढ़ियों में होता है- कोई मरती और कोई उत्पन्न होती है।

20) कोई भी नश्वर कृति अन्त में नही टिकेगी और उसका निर्माता भी उसके साथ चला जायेगा।

21) हर सत्कार्य टिका रहेगा और उसके कर्ता का सम्मान किया जायेगा।

22) धन्य है वह मनुष्य, जो प्रज्ञा की खोज करता रहता और विवेक की प्राप्ति के लिए उत्सुक है;

23) जो अपने मन में प्रज्ञा के मार्ग का चिन्तन और उसके रहस्य समझने का प्रयत्न करता है; जो शिकारी की तरह उसका पीछा करता और उसकी गति-विधि की ताक में रहता है;

24) जो उसकी खिड़की के अन्दर झाँकता और उसके द्वार पर कान लगा कर सुनता है;

25) जो उसके घर के पास निवास करता और उसकी दीवार में अपने तम्बू की खूँटी गाड़ता है; जो उसके निकट अपना तम्बू खड़ा करता और सुखद स्थान में निवास करता है;

26) जो अपने पुत्रों को उसके आश्रय में रखता और उसकी डालियों के नीचे रहता है!

27) वह उसकी छाया में गरमी से बचता और उसकी महिमा में विश्राम पाता है।



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