📖 - एज़ेकिएल का ग्रन्थ (Ezekiel)

अध्याय ➤ 01- 02- 03- 04- 05- 06- 07- 08- 09- 10- 11- 12- 13- 14- 15- 16- 17- 18- 19- 20- 21- 22- 23- 24- 25- 26- 27- 28- 29- 30- 31- 32- 33- 34- 35- 36- 37- 38- 39- 40- 41- 42- 43- 44- 45- 46- 47- 48- मुख्य पृष्ठ

अध्याय 33

1) मुझे प्रभु की यह वाणी सुनाई पड़ीः

2) “मानवपुत्र! अपने लोगों से बात कर यह कहो- यदि मैं किसी देश पर तलवार भेजता हूँ और उस देश के लोग अपने बीच से किसी व्यक्ति को चुन कर उसे अपना पहरेदार नियुक्त करते हैं:

3) यदि वह व्यक्ति देश पर तलवार आते देखता और तुरही बजा कर लोगों को चेतावनी देता है,

4) तो यदि तुरही की आवाज़ सुन कर कोई चेतावनी पर ध्यान नहीं देता और तलवार आ कर उसका वध कर देती हैं, तो अपनी मृत्यु के लिए वह स्वयं उत्तरदायी होगा;

5) उसने तुरही की आवाज़ सुनकर भी चेतावनी पर ध्यान नहीं दिया। अपनी मृत्यु के लिए वह स्वयं उत्तरदायी होगा; किन्तु यदि उसने चेतावनी पर ध्यान दिया होता, तो उसका जीवन सुरक्षित रह जाता।

6) पर यदि वह पहरेदार तलवार आते देख कर भी तुरही नहीं बजाता, जिससे लोग सावधान हो जायें और तलवार आ कर किसी का वध कर देती है, तो भले ही वह अपने पाप के कारण मर जायेगा, किन्तु वह पहरेदार उनकी मृत्यु के लिए उत्तरदायी होगा।

7) “मानवपुत्र! मैंने तुम को इस्राएल के घराने का पहरेदार नियुक्त किया है। तुम मेरी वाणी सुनोगे और इस्रएलियों को मेरी ओर से चेतावनी दोगे।

8) यदि मैं किसी दुष्ट से कहूँ, ’दुष्ट तू मर जायेगा’ और तुम कुमार्ग छोड़ने के लिए उसे चतावनी नहीं दोगे, तो वह अपने पाप के कारण मर जायेगा, किन्तु तुम उसकी मृत्यु के लिए उत्तरदायी होगे।

9) और यदि तुमने कुमार्ग छोड़ने के लिए उसे चेतावनी दी और उसने नहीं छोड़ा, तो वह अपने पाप के कारण मर जायेगा, किन्तु तुम्हारा जीवन सुरक्षित रह जायेगा।

10) “मानवपुत्र! इस्राएल के घराने से तुम यह कहोगे- तुम लोगों ने कहा हैः ’हम अपने अपराधों और पापों के बोझ से दब गये हैं और हम उनके कारण नष्ट हो रहे हैं, तो हम कैसे जीवित रह सकते हैं?“

11) उन से कहोगे-प्रभु-ईश्वर यह कहता हैं: अपने अस्तित्व की शपथ! मुझे दुष्ट की मृत्यु से प्रसन्नता नहीं होती, बल्कि इस से होती है कि दुष्ट अपना कुमार्ग छोड़ दे और जीवित रहे। अपना दुराचरण छोड़ दो, छोड़ दो; क्योंकि इस्राएल के घराने! तुम क्यों मर जाते?

12) “मानवपुत्र! तुम अपने लोगों से यह कहोगे- धर्मी की धार्मिकता, उसके पाप करने पर, उसे नहीं बचा पायेगी और दुष्ट की दुष्टता, उसके दुष्टता छोड़ देने पर, उसके विनाश का कारण नहीं बनेगी और पाप करने पर धर्मी अपनी धर्मिकता के कारण जीवित नहीं रह सकेगा।

13) यद्यपि मैं धर्मी से कहता हूँ कि वह अवश्य जीवित रहेगा, फिर भी यदि वह अपनी धार्मिकता के भरोसे पाप करता है, तो उसका कोई भी सत्कर्म स्मरण नहीं रखा जायेगा, बल्कि उस पाप के कारण, जो उसने किया है, उसकी मृत्यु हो जायेगी।

14) यद्यपि मैं दुष्ट से यह कहता हूँ, ’तुम अवश्य मरोगे’, फिर भी यदि वह कुमार्ग छोड़ देता और न्याय और सत्य का आचरण करता है;

15) यदि दुष्ट बन्धक लौटा देता, लूटा हुआ सामान वापस कर देता, जीवन प्रदान करने वाले नियमों का पालन करता और पाप का परित्याग करता है, तो वह निश्चय ही जीवित रहेगा, वह नहीं मरेगा।

16) उसके द्वारा किये गये पापों में से किसी को भी याद नहीं रखा जायेगा। उसने न्याय और सत्य का आचरण किया है; वह अवश्य जीवित रहेगा।

17) “तब भी तुम्हारे लोग यह कहते हैं, ’प्रभु का मार्ग न्यायसंगत नहीं है’ जब कि स्वयं उनका मार्ग न्यायसंगत नहीं है।

18) जब धर्मी धर्मिकता छोड़ कर पाप करता, तो इसके कारण उसकी मृत्यु हो जायेगी।

19) किन्तु यदि दुष्ट कुमार्ग छोड़ देता और न्याय और सत्य का आचरण करता है, तो वह इसके कारण जीवित रेहेगा।

20) तब भी तुम यह कहते हो, ’प्रभु का न्याय न्यायसंगत नहीं है’। इस्राएल के घराने! मैं तुम लोगों में से प्रत्येक का उसके आचरण के अनुसार न्याय करूँगा।“

21) हमारे निर्वासन के बारहवें वर्ष के दसवें महीने के पाँचवे दिन एक व्यक्ति, जो येरूसालेम से भाग निकला था, मेरे पास आया और यह बोला, “नगर का पतन हो गया है“।

22) उस भगोड़े के आने से पहले ही सन्ध्या समय प्रभु का हाथ मुझ पर पड़ चुका था और उसने उस आदमी के आने से पहले ही प्रातः काल मेरा मुँह खोल दिया और मेरा गूँगापन जाता रहा।

23) मुझे प्रभु की यह वाणी सुनाई पड़ीः

24) “मानवपुत्र! इस्राएल देश के इन उजाड़खण्डों के निवासी यह कहा करते है, ’इब्राहीम तो अकेले थे, तब भी उन्होंने इस देश पर अधिकार कर लिया। किन्तु हमारी संख्या तो बहुत अधिक है; निश्चय ही यह देश हमें अधिकार में करने के लिए मिला है।’

25) इसलिए उन लोगों से यह कहो- प्रभु-ईश्वर यह कहता हैः तुम रक्त-सहित मांस खाते हो, अपनी देवमूर्तियों पर भरोसा करते और रक्त बहाते हो। क्या तब भी तुम इस देश पर अधिकार करते?

26) तुम तलवार उठा लेते हो। तुम घृणित कार्य करते हो और तुम में से प्रत्येक अपने पडोसी की पत्नी का शील भंग करता है। क्या तब भी तुम इस देश पर अधिकार करते?

27) “उन से यह कहो- प्रभु-ईश्वर यह कहता हैः अपने अस्तित्व की शपथ! वे लोग, जो इन उजाड़खण्डों में निवास करते हैं, निश्चित ही तलवार के घाट उतारे जायेंगे और मैं उस व्यक्ति को, जो खुले मैदान में निवास करता है, जानवरों का आहार बनने दूँगा और वे लोग, जो किलों और गुफाओं में निवास करते हैं, महामारी से मरेंगे।

28) मैं देश को निर्जन और उजाड़ बना दूँगा, उसकी शक्ति का गर्व समाप्त हो जायेगा और इस्राएल के पर्वत इतने उजाड़ हो जायेंगे कि उन से हो कर कोई नहीं गुजरेगा।

29) जब मैं उनके द्वारा किये हुए वीभत्स कर्मों के कारण देश को निर्जन और उजाड़ बना दूँगा, तब वे यह समझ जायेंगे कि मैं ही प्रभु हूँ।

30) “मानवपुत्र! तुम्हारे देशवासी घरों की दीवारों और दरवाजों के सामने तुम्हारी चर्चा करते हैं। वे एक दूसरे से कहते हैं, ’चल कर सुनो कि प्रभु की वाणी कया है’।

31) इसके बाद वे तुम्हारे पास उसी प्रकार आते हैं, जिस प्रकार लोग आया करते हैं और वे मेरी प्रजा की तरह तुम्हारे सामने बैठते हैं तथा तुम्हारी वाणी सुनते, किन्तु उस पर नहीं चलतेः क्योंकि वे मुह से मीठी बातें करते हैं, लेकिन उनका हृदय स्वार्थ में लिप्त है।

32) देखो तुम उनकी दृष्टि में उस व्यक्ति की तरह हो, जो मधुर स्वर में प्रेमगीत गाता और निपुणता से वाद्ययंत्र बजाता है; क्योंकि वे तुम्हारी वाणी सुनते, किन्तु उस पर नहीं चलते।

33) जब यह पूरा होगा- और यह अवश्य पूरा होगा - तो वे यह समझ जायेंगे कि उनके बीच एक नबी विद्यमान था।



Copyright © www.jayesu.com