1) “द्वीपो! मरे सामने मौन रहो! राष्ट्रों में नयी शक्ति का संचार हो! वे पास आ कर अपना पक्ष प्रस्तुत करें। हम मिल कर न्यायासन के पास जायें।
2) किसने पूर्व में उस व्यक्ति को प्रेरित किया, जो सर्वत्र विजय प्राप्त करता है? कौन राष्ट्रों को उसके हाथ देता और राजाओं को उसके सामने नीचा दिखाता है? उसकी तलवार उन्हें धूल में मिलाती और उसका धनुष उन्हें भूसी की तरह बिखेरता है।
3) वह उनका पीछा करता और मार्ग पर बिना पैर धरे निरापद आगे बढ़ता है।
4) किसने यह कार्य किया है? उसने ही, जो प्रारम्भ से मनुष्यों को सम्बोधित करता आ रहा है: मैं ही प्रभु हूँ, प्रथम हूँ और अन्त तक वही रहूँगा।“
5) द्वीप देख चुके हैं और डरते हैं, पृथ्वी के सीमान्त काँपते हैं: वे निकट बढ़ते आ रहे हैं।
6) प्रत्येक अपने साथी की सहायता करता और अपने भाई से कहता हैः “दृढ़ बने रहो“।
7) शिल्पकार सुनार को ढारस बँधाता है और हथौड़ा चलाने वाला निहाई पर काम करने वाले को। वे कहते हैं: “जोड़ने का काम पूरा हो गया है“। बाद में वे कीलें ठोंकते, जिससे मूर्ति न हिले।
8) “मेरे सेवक इस्राएल! याकूब, जिसे मैंने चुना है! अपने भक्त इब्राहीम की सन्तान!
9) मैं तुम को पृथ्वी के सीमान्तों से लाया, मैंने तुम को दूर-दूर के क्षेत्रों से बुलाया। मैंने कहा, ’तुम मेरे सेवक हो’। मैंने तुम को चुना और नहीं त्यागा।
10) डरो मत, मैं तुम्हारे साथ हूँ। चिन्ता मत करो, मैं तुम्हारा ईश्वर हूँ। मैं तुम्हें शक्ति प्रदान कर तुम्हारी सहायता करूँगा, मैं अपने विजयी दाहिने हाथ से तुम्हें सँभालूँगा।
11) जो तुम्हारा विरोध करते थे, वे लज्जित और अपमानित होंगे। जो तुम से लड़ते थे, वे नष्ट हो कर मिट जायेंगे।
12) तुम अपने शत्रुओं को ढूँढोगे और उन्हें नहीं पा सकोगे; क्योंकि जो तुम से युद्ध करते हैं, वे नष्ट हो कर मिट जायेंगे;
13) क्योंकि मैं तुम्हारा प्रभु-ईश्वर हूँ। मैं तुम्हारा दाहिना हाथ पकड़ कर तुम से कहता हूँ - मत डरो, देखो, मैं तुम्हारी सहायता करूँगा।
14) याकूब! तुम कीड़े-जैसे हो गये हो। इस्राएल! तुम शव-जैसे हो गये हो। प्रभु कहता है- मैं तुम्हारी सहायता करूँगा, इस्राएल का परमपावन प्रभु तुम्हारा उद्धारक है।
15) मैं तुम, को दँवरी का यन्त्र बनाता हूँ- नया, दुधारा और पैना। तुम पहाड़ों को दाँव कर चूर-चूर करोगे और पहाड़ियों को भूसी बना दोगे।
16) तुम उन्हें ओसाओगे- हवा उन्हें उड़ा ले जायेगी और आँधी उन्हें छितरा देगी। तुम प्रभु में आनन्द मनाओगे और इस्राएल के परमपावन ईश्वर पर गौरव करोगे।
17) “दरिद्र पानी ढूँढते हैं और पाते नहीं, उनकी जीभ प्यास के मारे सूख गयी है। मैं, प्रभु, उनकी दुहाई पर ध्यान दूँगा; मैं, इस्राएल का ईश्वर, उन्हें नहीं त्यागूँगा।
18) मैं उजाड़ पहाड़ियों पर से नदियाँ और घाटियों में जलधाराएँ बहा दूँगा। मैं मरुभूमि को झील बनाऊँगा और सूखी भूमि को जलस्रोतों से भर दूँगा।
19) मैं मरुभूमि में देवदार, बबूल, मेंहदी और जैतून लगा दूँगा। मैं उजाड़खण्ड में खजूर, चीड़ और चनार के वृक्ष लगाऊँगा।
20) इस प्रकार सब देख कर जानेंगे, सब उस पर विचार कर स्वीकार करेंगे कि प्रभु ने यह सब किया है, इस्राएल के परमपावन ईश्वर ने इसकी सृष्टि की है।“
21) प्रभु कहता है, “अपना पक्ष प्रस्तुत करो!“ याकूब का अधिराज कहता है, “अपने तर्कों का प्रतिपादन करो,
22) तुम्हारे देवता आकर हम को बतायें कि क्या होने वाला है। उन्होंने पहले क्या-क्या कहा था? हमें याद दिलाओ, हम ध्यान से सुनेंगे और जान जायेंगे कि इसका परिणाम क्या हुआ।
23) हमें बताओ कि भविष्य में क्या होने वाला है, जिससे हम तुम को देवता मान लें। भला या बुरा, कोई भी कार्य कर दिखाओ, तब हम डर कर तुम पर श्रद्धा रखेंगे।
24) देखो! तुम कुछ भी नहीं हो और तुम्हारे कार्य कुछ भी नहीं हैं।
25) “मैंने उत्तर दिशा से एक व्यक्ति को प्रेरित किया है और वह आ गया है। मैंने उसे नाम ले कर पूर्व से बुलाया है। जिस तरह कुम्हार पैरों से मिट्टी रौंदता है, उसी तरह वह शासकों को पैरों से कुचलता है।
26) किसने यह बात प्रारम्भ से कही, जिससे हम यह जान सकें? किसने पहले से यह बताया, जिससे हम कह सकें- यह उचित ही है? नहीं, किसी ने इसकी घोषणा नहीं की; नहीं, किसी ने इसकी भविष्यवाणी नहीं की; नहीं, किसी ने तुम्हारी बातें नहीं सुनीं।
27) मैंने सब से पहले सियोन से कहा- वे आ रहे हैं। मैंने येरूसालेम को यह शुभ सन्देश सुनाया।
28) मैंने इधर-उधर देखा- कोई नहीं दिखाई पड़ा। उनमें कोई नहीं था- जो परामर्श दे सके, जो पूछे जाने पर उत्तर दे सके,
29) देखो, वे सब निरर्थक हैं, उनके कार्य व्यर्थ हैं। उनकी मूर्तियाँ सिर्फ़ हवा हैं।