1) हमारे ईश्वर! तू सचमुच कृपालु और सत्यप्रतिज्ञ है। तू सहिष्णु है और दया से सब कुछ का संचालन करता है।
2) जब हम पाप करते है, तो भी हम तेरे हैं; क्योंकि हम तेरा सामर्थ्य जानते हैं। किन्तु हम पाप नहीं करेंगे; क्योंकि हम तेरे कहलाते हैं।
3) तेरा ज्ञान हमें पूर्ण धार्मिकता तक पहुँचाता है और तेरे सामर्थ्य की पहचान अमरत्व की जड़ है;
4) क्योंकि हम न तो मनुष्यों की कपटी कल्पना द्वारा भटके- न चत्रिकारों की व्यर्थ कृति द्वारा और न विविध रंगों से पुती हुई मूर्ति द्वारा,
5) जिसका दृश्य मूर्ख में आशा उत्पन्न करता है: वह एक मृत मूर्ति की निर्जीव आकृति पर मुग्ध होता है।
6) जो मूर्तियाँ बनाते हैं, जो उन पर मुग्ध होते और उनकी पूजा करते है, वे बुराई के अनुयायी हैं और इस प्रकार की आशा के योग्य है।
7) कुम्हार परिश्रम से गीली मिट्टी गूँधता और हमारे उपयोग के लिए सब प्रकार के पात्र बनाता है। वह एक ही मिट्टी से समान रूप से उच्च प्रयोजन के पात्र भी बनाता है और दूसरे प्रयोजन के लिए भी। कुम्हार निश्चित करता है कि कौन पात्र किस काम आयेगा।
8) वह व्यर्थ परिश्रम से उसी मिट्टी से एक निरर्थक देवमूर्ति गढ़ता है, यद्यपि वह स्वयं कुछ समय पहले मिट्टी से जन्मा और शीघ्र ही उस मिट्टी में लौटने वाला है, जहाँ से वह लाया गया है, जब उस से उसका जीव वापस माँगा गया होगा।
9) उसे कोई चिन्ता नहीं कि उसे मरना होगा और उसका जीवन अल्पकालिक है; बल्कि वह स्वर्ण और रजतकारों से होड़ लगाता, काँसा ढालने वालों का अनुकरण करता और मिथ्या मूर्तियाँ बनाने पर गर्व करता है।
10) उसका हृदय राख उसकी आशा धूल से अधिक व्यर्थ और उसका जीवन मिट्टी से अधिक तुच्छ है;
11) क्योंकि वह अपने निर्माता को नहीं पहचानता, जिसने उस में सक्रिय आत्मा को डाला और जीवनदायक प्राण फ़ूँके।
12) वह हमारे जीवन को लीला समझता है, हमारे अस्तित्व को एक लाभकारी मेला! वह कहता है कि सब कुछ से, बुराई से भी लाभ उठाना चाहिए।
13) वह किसी भी व्यक्ति से यह अच्छी तरह जानता है कि वह पाप करता है, जब वह मिट्टी से भंगुर पात्र और देवमूर्तियाँ बनाता है।
14) वे लोग सब से अधिक बुद्धिमान् और निर्दोष बच्चे से भी अधिक अभागे हैं, जो तेरी प्रजा के शत्रु बन कर उस पर अत्याचार करते थे।
15) उन्होंने राष्ट्रों की सब मूर्तियों को देवता माना है, जो अपनी आँखों से नहीं देखती, अपने नथनों से साँस नहीं लेती, अपने कानों से नहीं सुनती, अपने हाथ की उँगलियों से नहीं टटोलती और अपने पैरों से नहीं चलती:
16) क्योंकि एक मनुष्य ने उन्हें बनाया, एक व्यक्ति ने उन्हे गढ़ा, जिसे उधार के रूप में प्राण मिले थे। कोई भी मनुष्य अपने-जैसे कोई देवता बनाने में असमर्थ है।
17) मत्र्य होने के कारण वह अपने अपवित्र हाथों से वही बना सकता है, जो मृत है। वह अपनी आराध्य वस्तुओं से श्रेष्ठ है; क्योंकि वह जीवित है, किन्तु उन्हें कभी जीवन नहीं मिलेगा।
18) वे सब से घृणित जन्तुओं की पूजा करते हैं, जो अन्य पशुओें से भी अधिक मूर्ख है।
19) जो पशु सुन्दर भी नहीं है, कि कोई उन पर मोहित हो, जैसा कि अन्य पशुओं के विषय में सम्भव है; क्योंकि उन्हे न तो ईश्वर का समर्थन मिला और न उसका आशीर्वाद।