1) राजाओें! सुनो और समझो। पृथ्वी भर के शासको! शिक्षा ग्रहण करो।
2) तुम, जो बहुसंख्यक लोगों पर अधिकार जताते हो और बहुत-से राष्ट्रों का शासन करने पर गर्व करते हो, मेरी बातों पर कान दो ;
3) क्योंकि प्रभु ने तुम्हें प्रभुत्व प्रदान किया, सर्वोच्च ईश्वर ने तुम्हे अधिकार दिया। वही तुम्हारे कार्यों का लेखा लेगा और तुम्हारे विचारों की जाँच करेगा।
4) तुम उसके राज्य के सेवक मात्र हो। इसलिए यदि तुमने सच्चा न्याय नहीं किया, विधि का पालन नहीं किया और ईश्वर की इच्छा पूरी नहीं की,
5) तो वह भीषण रूप में अचानक तुम्हारे सामने प्रकट होगा; क्योंकि उच्च अधिकारियों का कठोर न्याय किया जायेगा।
6) जो दीन-हीन है, वह क्षमा और दया का पात्र है; किन्तु जो शक्तिशाली है, उनकी कड़ी परीक्षा ली जायेगी।
7) सर्वेश्वर पक्षपात नहीं करता और बड़ों के सामने नहीं झुकता; क्योंकि उसी ने छोटे और बड़े, दोनों को बनाया और वह सब का समान ध्यान रखता है,
8) किन्तु शक्तिशालियों की कठोर परीक्षा ली जायेगी।
9) इसलिए शासको! मैं तुम्हे शिक्षा देता हूँ, जिससे तुम प्रज्ञा प्राप्त करो और विनाश से बचे रहो;
10) क्योंकि जो पवित्र नियमों का श्रद्धापूर्वक पालन करते हैं, वे पवित्र माने जायेंगे और जो उन नियमों से शिक्षा ग्रहण करेंगे, वे उनके आधार पर अपनी सफाई दे सकेंगे।
11) इसलिए मेरी इन बातों को अपनाओ और इनका मनन करो, जिससे तुम्हें शिक्षा प्राप्त हो।
12) प्रज्ञा देदीप्यमान है। वह कभी मलिन नहीं होती। जो लोग उसे प्यार करते हैं, वे उसे सहज ही पहचानते हैं। जो उसे खोजते है, वे उसे प्राप्त कर लेते हैं।
13) जो उसे चाहते हैं, वह स्वयं आ कर उन्हें अपना परिचय देती है।
14) जो उसे खोजने के लिए बड़े सबेरे उठते हैं, उन्हें परिश्रम नहीं करना पड़ेगा। वे उसे अपने द्वार के सामने बैठा हुआ पायेंगे।
15) उस पर मनन करना बुद्धिमानी की परिपूर्णता है। जो उसके लिए जागरण करेगा, वह शीघ्र ही पूर्ण शान्ति प्राप्त करेगा।
16) वह स्वयं उन लोगो की खोज में निकलती है, जो उसके योग्य है। वह कृपापूर्वक उन्हें मार्ग में दिखाई देती है और उनके प्रत्येक विचार में उन से मिलने आती है।
17) शिक्षा की सदिच्छा प्रज्ञा का प्रारम्भ है।
18) शिक्षा की सदिच्छा प्रज्ञा का प्रेम है। शिक्षा का प्रेम उसकी आज्ञाओें का पालन है। उसकी आज्ञाओें के पालन में अमरता है।
19) अमरता ईश्वर के निकट पहुँचाती है
20) इसलिए प्रज्ञा की सदिच्छा राजत्व दिलाती है।
21) राष्ट्रों के शासको! यदि तुम्हें सिंहासन और मुकुट प्रिय है, तो प्रज्ञा पर श्रद्धा रखो, जिससे तुम अनन्त काल तक राज्य कर सको।
22) प्रज्ञा क्या है और वह कहाँ से उत्पन्न होती है- मैं यह प्रकट करूँगा। मैं तुम से रहस्य नहीं छिपाऊँगा। मैं उसकी उत्पत्ति के रहस्य का पता लगाऊँगा। मैं उसके विषय में अपनी जानकारी प्रकाश में लाऊँगा और सत्य के मार्ग से नहीं भटकूँगा।
23) मैं घुलाने वाली ईर्ष्या का साथ नहीं दूँगा, क्योंकि इसका प्रज्ञा से कोई सम्बन्ध नहीं।
24) बुद्धिमानों की भारी संख्या में संसार का कल्याण है और बुद्धिमान् राजा अपनी प्रजा का आश्रय है;
25) इसलिए मेरी शिक्षा ग्रहण करो, उस से तुम्हें लाभ होगा।