1) "पूर्वजों के ईश्वर! दयासागर प्रभु! तूने अपने शब्द से सब कुछ बनाया
2) और अपनी प्रज्ञा से मनुष्य को गढ़ा, जिससे वह तेरी बनायी हुई सृष्टि का शीर्ष बने,
3) औचित्य और न्याय से संसार का शासन करें और निष्कपट हृदय से निर्णय दे।
4) मुझे अपने सिंहासन पर विराजमान प्रज्ञा प्रदान कर और अपने पुत्रों से मुझे अलग न कर।
5) क्योंकि मैं तेरा सेवक, तेरी दासी का पुत्र हूँ, दुर्बल और अल्पायु मनुष्य हूँ, मुझ में न्याय एवं विधि के ज्ञान का अभाव है।
6) वास्तव में यदि मनुष्यों में कोई पूर्ण हो, किन्तु उस में तेरी प्रज्ञा न हो, तो वह कुछ भी नहीं समझा जायेगा।
7) तूने मुझे अपनी प्रजा का राजा और अपने पुत्र-पुत्रियों को न्यायाधीश चुना है;
8) तूने मुझे अपने पवित्र पर्वत पर एक मन्दिर और तू जिस नगर में निवास करता है, उस में एक वेदी बनवाने का आदेश दिया - वह उस पवित्र शिविर-जैसा हो, जिसे तूने प्रारम्भ से तैयार करवाया था।
9) "प्रज्ञा तेरे पास रहती है, वह तेरे कार्य जानती है। वह विद्यमान थी, जब तूने संसार बनाया। वह जानती है, कि तुझे क्या प्रिय है और वह भी, जो तेरी आज्ञाओं के अनुकूल है।
10) प्रज्ञा को अपने पवित्र स्वर्ग से उतरने दे। उसे अपने महिमामय सिंहासन से भेज, जिससे वह मेरे साथ रह कर क्रियाशील हो और मैं जानूँ कि तुझे क्या प्रिय है;
11) क्योंकि वह सब कुछ जानती और समझती है। वह सावधानी से मेरा पथप्रदर्शन करेगी और अपनी महिमा से मेरी रक्षा करेगी।
12) इस प्रकार मेरे कार्य ग्राह्य होंगे, मैं तेरी प्रजा का निष्पक्षता से न्याय करूँगा और अपने पिता के सिंहासन के योग्य बनूँगा।
13) "ईश्वर के मन की थाह कौन ले सकता है? कौन ईश्वर की इच्छा जान सकता है?
14) मनुष्यों के विचार अनिश्चित हैं और हमारे उद्देश्यों अस्थिर है;
15) क्योंकि नश्वर शरीर आत्मा के लिए भारस्वरूप है और मिट्टी की यह काया मन की विचार शक्ति घटा देती है।
16) हम पृथ्वी पर की चीजें कठिनाई से जान पाते हैं। जो हमारे सामने है, उसे हम मुष्किल से समझ पाते हैं? तो आकाश में क्या है, इसका पता कौन लगा सकता है?
17) यदि तूने प्रज्ञा का वरदान नहीं दिया होता और अपने पवित्र आत्मा को नहीं भेजा होता, तो तेरी इच्छा कौन जान पाता?
18) इस तरह पृथ्वी पर रहने वालों के पथ सीधे कर दिये गये हैं। जो बात तुझे प्रिय है, उसकी शिक्षा मनुष्यों को मिल गयी और प्रज्ञा के द्वारा उनका उद्धार हुआ है।"