📖 - मक्काबियों का दूसरा ग्रन्थ

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अध्याय 14

1) तीन वर्ष बाद यूदाह और उसके आदमियों को यह मालूम हुआ कि सिलूकस का पुत्र देमेत्रियस एक बड़ी सेना और एक बेड़े के साथ त्रीपुलिस बन्दरगाह पहुँच गया है

2) तथा उसने अन्तियोख और उसके प्रशासक लीसियस को मरवा कर देश पर अधिकार कर लिया है।

3) अलकिमस पहले प्रधानयाजक था और उसने विद्रोह के समय स्वेच्छा से अपने को अपवित्र किया। जब उसने देखा कि वह फिर कभी पवित्र वेदी की सेवा नहीं कर पायेगा,

4) तो वह एक सौ इक्यानवें वर्ष राजा देमेत्रियम के पास पहुँचा। उसने येरूसालेम के मन्दिर की प्रथा के अनुसार उसे सोने का एक मुकुट, खजूर की डाली और जैतून की कुछ टहनियाँ भेंट कीं। उसने उस दिन और कुछ नहीं किया।

5) लेकिन एक दिन उसे तब अपने उन्माद की सफलता का अवसर मिला, जब देमेत्रियस ने उसे अपनी सभा में बुलाया और उससे पूछा कि यहूदियों के क्या मनोभाव और क्या योजनाएँ हैं।

6) उसने उत्तर दिया, "जो यहूदी हसीदी कहलाते हैं और जिनका नेता यूदाह मक्काबी है, वे युद्ध और विद्रोह का अवसर ढूँढ़ते रहते हैं और राज्य में अशान्ति फैलाते हैं।

7) इस कारण मुझे अपने पूर्वजों की प्रतिष्ठा, अर्थात् प्रधानयाजक के पद से वंचित किया गया है और

8) मैं इसलिए आया हूँ कि मैं हृदय से राजा का हित और अपने देश-भाइयों का कल्याण चाहता हूँ; क्योंकि उन लोगों के मूर्खतापूर्ण व्यवहार के कारण, जिनका उल्लेख कर चुका हूँ, हमारी समस्त जनता को बहुत-से कष्ट झेलने पड़ते हैं।

9) राजा! आप को अब उन सब बातों की जानकारी प्राप्त हो गयी है, इसलिए मैं आप से निवेदन करता हूँ कि आप सब के प्रति अपने सद्भाव के अनुसार हमारे देश और हमारी पददलित जनता का कल्याण करें।

10) जब तक यूदाह उनका नेता है, राज्य में शान्ति रहे, यह असम्भव है।"

11) अलकिमस के इन शब्दों के तुरन्त बाद राजा के अन्य मित्र, जो यूदाह के शत्रु थे, देमेत्रियस का क्रोध भड़काने लगे।

12) इस पर उसने निकानोर को, जो गज-सेना का अध्यक्ष रह चुका था, यहूदिया का राज्यपाल नियुक्त किया।

13) और उसे यह आदेश दे कर भेजा कि वह यूदाह को समाप्त कर दे, उसके आदमियों को तितर-बितर कर दे और अलकिमस को महामन्दिर का प्रधानयाजक नियुक्त करे।

14) जो गैर-यहूदी यूदाह के कारण यहूदिया से भाग गये थे, अब वे झुण्ड के झुण्ड निकानोर के पास यह सोच कर आने लगे कि यहूदियों के दुर्भाग्य और विपत्तियों से हमें लाभ होगा।

15) जैसे ही यहूदियों को निकानोर के आगमन और गैर-यहूदियों के आक्रमण की योजना का पता चला, वे अपने सिर पर राख डाल कर उस से प्रार्थना करने लगे, जिसने सदा के लिए अपनी प्रजा को बसाया था और जो सुस्पष्ट चमत्कारों से अपनी विरासत की सहायता करता रहता है।

16) वे अपने सेनापति के आदेश पर तुरन्त वहाँ से चल कर दस्साव नामक गाँव के पास शत्रुओं पर टूट पड़े।

17) यूदाह के भाई सिमोन ने निकानोर की सेना पर आक्रमण तो किया था, किन्तु शत्रु के अप्रत्याशित विरोध के कारण उसे पराजित हो कर धीरे-धीरे हट जाना पड़ा।

18) फिर भी यह जानकर कि यूदाह के आदमियों में कितनी बहादुरी है और स्वदेश की रक्षा के लिए वे कितने उत्साह के साथ लड़ सकते हैं, निकानोर निर्णयात्मक युद्ध करने से डरता था।

19) उसने पस्सिदोनियस, थेवदतस और मत्तथ्या को भेज कर सन्धि का प्रस्ताव किया।

20) प्रस्ताव की शर्तों का अध्ययन करने के बाद सेनापति ने उन्हें सैनिकों को समझाया। उन्होंने सर्वसम्मति से प्रस्ताव स्वीकार किया

21) और एक दिन निश्चित किया, जब दोनों सेनापति एक दूसरे से अकेले में मिलेंगे। दोनों सेनाओं की ओर से एक-एक रथ आगे बढ़ा और दोनों के बीच आसन रखे गये।

22) उधर यूदाह ने उपयुक्त जगहों पर सशस्त्र सैनिक छोड़ रखे थे, जिससे शत्रु अचानक विश्वासघात न कर पाये। मामला पूरी तरह तय हो गया।

23) बाद में निकानोर येरूसालेम में पड़ा रहा लेकिन उसने संहिता के प्रतिकूल कभी कदम नहीं उठाया। उसने उन लोगों को विदा किया, जो उसके साथ आये थे।

24) वह प्रत्येक अवसर पर यूदाह को अपने साथ रखने लगा, क्योंकि वह उसे हृदय से चाहने लगा था।

25) उसने उसे विवाह करने और गृहस्थ जीवन बिताने की सलाह दी। यूदाह ने विवाह कर लिया और वह शान्ति में जीवन का आनन्द उठाने लगा।

26) जब अलकिमस ने उनकी मित्रता देखी, तो वह सन्धि की एक प्रति ले कर देमेत्रियस के पास गया। उसने उस से कहा कि निकानोर देशद्रोही बन गया है, क्योंकि उसने विद्रोही यूदाह को अपना साथी बना लिया है।

27) राजा क्रुद्ध हुआ और उस दुष्ट के मिथ्या अभियोगों से उत्तेजित हो कर निकानोर को लिखा कि वह उस सन्धि से सहमत नहीं है और उसे आज्ञा देता है, कि वह मक्काबी को बँधवा कर अविलम्ब अन्ताकिया भेजे।

28) जब निकानोर को यह आदेश मिला, तो उसे बड़ा दुःख हुआ। सन्धि रद्द करना उसे अच्छा नहीं लगा, क्योंकि यूदाह ने कोई अनुचित बात नहीं की थी।

29) राजा के आदेश की अवज्ञा करना उसके लिए सम्भव नहीं था, इसलिए वह उसे कपटपूर्ण ढंग से पूरा करने का अवसर ढूँढ़ने लगा।

30) इधर जब मक्काबी ने देखा कि निकानोर अब उस से कतराने-सा लगा है और उसकी घनिष्ठता अब रूखाई में बदल गयी है, तो वह समझने लगा कि इस रूखाई का परिणाम अच्छा नहीं होगा। उसने बड़ी संख्या में अपने आदमियों को अपने पास बुलाया और निकानोर से छिप कर रहने लगा।

31) जब निकानोर को पता चला कि वह व्यक्ति बड़ी चालाकी से उसके हाथ से निकल भागा, तो वह परम-पावन मन्दिर जा कर याजकों को, जो नियमित बलियाँ चढ़ा रहे थे, यह आदेश दिया कि वे यूदाह को उसके हवाले कर दें।

32) उन्होंने शपथ खा कर कहा कि वे नहीं जानते थे कि वह व्यक्ति कहाँ है, जिसे वह ढूँढ़ता है।

33) इस पर उसने मन्दिर की ओर अपना दाहिना हाथ उठा कर यह शपथ खायी, "यदि तुम लोग यूदाह को बाँध कर मेरे हवाले नहीं करोगे, तो मैं यह मन्दिर ढा कर और बलि की वेदी गिरा कर इसी स्थान पर दियोनीसियस के लिए एक विशाल मन्दिर बनवाऊँगा।"

34) यह कह कर वह वहाँ से चला गया। याजकों ने स्वर्ग की ओर हाथ जोड़ कर यह कहते हुए उस से प्रार्थना की, जो सदा हमारी प्रजा का सहायक रहा,

35) "सर्वेश्वर प्रभु! तुझे किसी बात की कमी नहीं, फिर भी तूने हमारे बीच मन्दिर के रूप में अपना निवास बनवाना चाहा है।

36) परमपावन प्रभु! समस्त पवित्रता के स्रोत! इस मन्दिर को कभी अपवित्र नहीं होने दे, जिसका अभी-अभी शुद्धीकरण हुआ है।"

37) निकानोर के यहाँ राजिस पर अभियोग लगाया गया। वह येरूसालेम की परिषद् का सदस्य, नगर का शुभचिन्तक और जनता में सम्मानित था। वह अपने उपकारों के कारण यहूदियों का पिता कहलाता था।

38) पहले विद्रोह में उसे यहूदी राष्ट्रवादी होने के कारण दण्ड दिया गया था और उसने यहूदी संस्कृति के लिए बहुत दृढ़तापूर्वक तन-मन से संघर्ष किया था।

39) निकानोर ने यहूदियों के प्रति बैर का प्रमाण देने के उद्देश्य से पाँच सौ से अधिक आदमियों को उसे गिरफ्तार करने भेजा।

40) उसका विचार था कि इस गिरफ्तारी से यहूदियों को भारी धक्का लगेगा।

41) जब सैनिक बुर्ज पर अधिकार करने के लिए प्रवेश फाटक पर प्रहार करने लगे और उन्हें द्वारों में आग लगाने का आदेश मिला, तो यह देख कर कि अब उसके बचने का कोई उपाय नहीं है, राजिस ने स्वयं अपने पेट में तलवार भोंक ली।

42) उन दुष्टों के हाथ पड़ने और अपनी कुलीनता के प्रतिकूल घोर अपमान का शिकार बनने की अपेक्षा उसने गौरव के साथ मरना उचित समझा।

43) किन्तु उसने हड़बड़ी में अपने पर घातक प्रहार नहीं किया। जब उसने देखा कि वे लोग फाटक से घुस रहे हैं, तो वह शूरवीर की तरह दीवार पर चढ़ गया और वहाँ से साहसपूर्वक नीचे खड़े लोगों के बीच कूद पड़ा।

44) वे लोग तुरन्त हट गये, जिससे वह एक खाली जगह आ गिरा।

45) यद्यपि उसके भारी घावों से खून बह रहा था, फिर भी वह अभी जीवित था। वह क्रोध में उठा और भीड़ पार कर एक ऊँची चट्टान पर खड़ा हो गया।

46) उसका रक्त बह गया था, तो उसने दोनों हाथों से अपनी अँतड़ियाँ निकाल कर लोगों के बीच फेंक दीं। उसने जीवन और जीव के प्रभु से प्रार्थना की कि वह उन्हें किसी दिन उसे लौटा दे और उसकी मृत्यु हो गयी।



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