1) एक सौ उनचासवें वर्ष यूदाह के आदमियों को यह खबर मिली कि अन्तियोख यूपातोर भारी सेना ले कर यहूदिया पर आक्रमण करने आ रहा है
2) और उसके साथ उसका संरक्षक तथा राजप्रशासक लीसियस भी है। उनके पास एक लाख दस हजार पैदल सैनिक थे, पाँच हजार तीन सौ घुड़सवार, बाईस हाथी तथा तीन सौ ऐसे रथ, जिनके पहियों में हँसिये लगे थे।
3) मनेलास भी उन से जा मिला। वह कपटपूर्ण बातों से अन्तियोख को प्रोत्साहित करता था। उसे अपने देश के कल्याण की चिन्ता नहीं थी, किन्तु वह आशा करता था कि ऐसा करने से उसे अपनी पहली प्रतिष्ठा प्राप्त होगी।
4) किन्तु राजाओं के राजा के विधान से अन्तियोख का कोप उस दुष्ट पर भड़क उठा। लीसियस ने उसे बताया कि केवल मनेलास सारे उपद्रव का मूल है, इसलिए राजा ने उसे बरेआ ले जाने और वहाँ के रिवाज़ के अनुसार उसे प्राण दण्ड देने का आदेश दिया।
5) वहाँ पचास हाथ ऊँची एक मीनार थी, जो राख से भरी थी। उसके शिखर पर घूमने वाली एक कीप थी और जो कुछ भी उस में डाला जाता, वह राख में गिरता।
6) मन्दिरों के लुटेरों और अन्य घोर कुकर्मियों को उस मीनार के ऊपर ले जा कर कीप में डाला और प्राणदण्ड दिया जाता था।
7) संहिता के उल्लंघन करने वाले मनेलास को ऐसा ही प्राणदण्ड दिया गया। उसे नहीं दफ़नाया गया।
8) यह उचित भी था, क्योंकि उसने वेदी के विरुद्ध, जिसकी राख और आग पवित्र है, बहुत-से अपराध किये। उसे राख में मरना पड़ा।
9) राजा आगबबूला था। वह उस उद्देश्य से आगे बढ़ा कि वह यहूदियों के साथ उस से भी अधिक बुरा व्यवहार करे, जैसा उसके पिता के समय हुआ था।
10) जब यूदाह को इसका पता चला, तो उसने लोगों को आदेश दिया कि वे दिन-रात प्रभु से प्रार्थना करते रहें, जिससे वह पहले की तरह उनकी सहायता करे; क्योंकि वह समय आ गया, जब वे संहिता, स्वदेश और पवित्र मन्दिर से वंचित किये जायेंगे।
11) प्रभु अपनी प्रजा को, जिस में थोड़े दिनों से नया जीवन आने लगा था, ईशनिन्दक गैर-यहूदियों के हाथ न पड़ने दे।
12) सब ने यूदाह का प्रस्ताव स्वीकार किया। वे भूमि पर मुँह के बल पड़ कर तीन दिन तक आँसू बहाते और उपवास करते हुए निरन्तर दयालु प्रभु से प्रार्थना करते रहे। इसके बाद यूदाह ने उन्हें साहस बँधाया और तैयार रहने को कहा।
13) नेताओं के साथ परामर्श करने के बाद, इस से पहले कि राजा की सेना यहूदियों में घुस आये और नगर पर अधिकार कर ले, उसने प्रस्थान करने और ईश्वर की सहायता से निर्णयात्मक युद्ध करने का निश्चय किया।
14) उसने युद्ध का परिणाम संसार के सृष्टिकर्ता के हाथ दे कर, अपने आदमियों को उत्साहित किया कि वे संहिता, मन्दिर, नगर, स्वदेश और उसकी संस्थाओं के लिए मरण तक साहसपूर्वक युद्ध करें। उसने मोदी के पास पड़ाव डाला।
15) वह अपने सैनिकों को संकेत-शब्द- ’ईश्वर की विजय’ -देने के बाद चुने हुए शूरवीर युवकों के साथ रात को राजा के तम्बू पर टूट पड़ा। उन्होंने शिविर में लगभग दो हज़ार लोगों को मार गिराया और महावत के साथ प्रमुख हाथी का वध किया।
16) वे शिविर में इस प्रकार डर और आतंक फैलाने के बाद
17) दिन निकलते ही सकुशल लौटे। यह आक्रमण इसलिए सफल हुआ कि प्रभु यूदाह की रक्षा करता था।
18) राजा को यहूदियों के आक्रमण से यहूदियों की वीरता का पता चला। इसलिए अब उसने कपट से किलाबन्द नगर अपने अधिकार में करने का प्रयत्न किया।
19) उसने उनके किलाबन्द बेत-सूर पर आक्रमण किया, किन्तु उसे भागना पड़ा। उसने फिर उस पर आक्रमण किया, तो उसे फिर पराजित होना पड़ा।
20) यूदाह ने वहाँ आवश्यक हथियार भेजे थे।
21) लेकिन यहूदी सेना के एक व्यक्ति रदोकस ने शत्रुओं पर अपनी सेना के भेद प्रकट किये। इसलिए उसकी खोज की गयी, उसे पकड़ा और प्राणदण्ड दिया गया।
22) जब राजा ने फिर बेत-सूर के निवासियों से बातचीत और सन्धि करनी चाही, तो उन्होंने यह स्वीकार किया। राजा ने वहाँ से चल कर यूदाह के आदमियों पर आक्रमण किया, किन्तु वह पराजित हो गया।
23) उसी समय उसे पता चला कि फ़िलिप विद्रोही बन गया है, जिसे वह राजप्रशासक बना कर अन्ताकिया में छोड़ आया था। इस से वह इतना घबरा गया कि उसने यहूदियों को बुला कर उन से सन्धि करने का प्रस्ताव किया। उसने उनकी उचित माँगों को स्वीकार किया और शपथ खा कर उन्हें पूरा करने का वचन दिया। इस सन्धि के बाद उसने बलि चढ़ाची, मन्दिर का सम्मान किया और उसे उदार दान दिये।
24) उसने मक्काबी का स्वागत किया, पतोलेमाइस से गरेनियों के नगर तक के प्रान्तों पर हेगेमोनीदेश को राज्यपाल के रूप में नियुक्त किया
25) और स्वयं पतोलेमाइस के लिए प्रस्थान किया। पतोलेमाइस के निवासी इस सन्धि से सन्तुष्ट नहीं थे। उन्होंने इस पर असन्तोष प्रकट किया और वे इसे रद्द करना चाहते थे।
26) तब लीसियस मंच पर आया। उसने तर्कों द्वारा सन्धि के औचित्य पर प्रकाश डाला और लोगों को शान्त किया। इसके बाद वह अन्ताकिया लौटा। यह है राजा के आगमन और प्रस्थान का वृतान्त।