1) लीसियस को इन घटनाओं से बड़ा क्षोम हुआ। वह राजा का अभिभावक और संबंधी था और उसे राज्य का प्रबंध सौंपा गया था।
2) कुछ दिन बाद वह अस्सी हजार पैदल सैनिक और अपना सारा घुड़सवार दल ले कर यहूदियों से लड़ने चल पड़ा। वह येरूसालेम में यूनानियों को बसाना चाहता था।
3) उसका विचार था कि दूसरी जातियों के मंदिरों की तरह उस मंदिर पर भी कर लगेगा और वह प्रति वर्ष प्रधानयाजक का पद बेच देगा।
4) उसने ईश्वर के सामर्थ्य का ध्यान नहीं रखा, उसे केवल अपने लाखों पैदल सैनिकों, हजारों घुडसवारों और अपने अस्सी हाथियों का भरोसा था।
5) वह यहूदिया में प्रवेश कर बेत-सूर के पास पहुँचा। वह एक किलाबंद स्थान है, जो येरूसालेम से लगभग डेढ़ सौ फर्लांग दूर है। उसने उसका घेराव किया।
6) जैसे ही मक्काबी के आदमियों ने सुना कि लीसियस ने किलाबंद नगर पर घेरा डाला है, तो वे सारी जनता के साथ रोते और विलाप करते हुए प्रभु से प्रार्थना करने लगे कि वह इस्राएल की रक्षा के लिए उन्हें एक सहायक दूत भेजे।
7) मक्काबी ने स्वयं सब से पहले शस्त्रों से सुसज्जित हो कर दूसरों को उत्साहित किया कि वे जोखिम का सामना करते हुए अपने भाइयों की सहायता करें। वे एक साथ पूरे उत्साह से निकल पड़े।
8) अभी वे येरूसालेम के पास ही थे कि एक घुड़सवार दिखाई पड़ा, जो उनके आगे-आगे चल रहा था।
9) उन्होंने दयालु ईश्वर को एक स्वर में धन्यवाद किया और इसके बाद उन में इतना साहस भर आया कि वे न केवल मनुष्यों, बल्कि उग्र जानवरों का सामना करने और लोहे की दीवारों पर भी आक्रमण करने की तैयार हो गये।
10) वे पंक्तिबद्ध हो कर आगे बढ़ते गये। उनके साथ स्वर्ग का वह सहायक था, जिसे दयालु प्रभु ने उन्हें भेजा था।
11) वे सिंहों की तरह शत्रुओं पर टूट पडे़ और ग्यारह हजार पैदल सौनिकों तथा सोलह सौ घुडसवारों को मार गिराया। बचे हुए लोगों को उन्होंने खदेड़ दिया।
12) उन में जो भागने में सफल हुए, वे अधिकांश घायल थे और उन्हें अपने हथियार खोने पड़े। लीसियस को भी लज्ज़ित हो कर भागना पडा़।
13) लीसियस नासमझ व्यक्ति था जब उसने अपनी पराजय पर विचार किया, तो वह समझ गया कि इब्रानी लोग केवल इसलिए अजय हैं कि सर्वशक्तिमान् ईश्वर उनके लिए युद्ध करता है।
14) इसलिए उसने उचित शर्तों पर यहूदियों के साथ संधि करने दूत भेजे। उसने उन्हें यह आश्वासन दिया कि वह राजा को उनके पक्ष में कर लेगा।
15) मक्काबी लीसियस के ये सभी प्रस्ताव स्वीकार कर गया; क्योंकि उसने देखा कि लोगों का हित इसी में है। राजा ने भी वे सभी शर्तें स्वीकार कर ली, जिन्हें मक्काबी ने यहूदियों की ओर से लिख कर लीसियस को दिया था।
16) यहूदियों के नाम लीसियस का पत्र इस प्रकार था: "लीसियस का यहूदियों को नमस्कार!
17) आपके दूत योहन और अबसालोम ने मुझे आपका पत्र दिया और निवेदन किया कि मैं उस में लिखित प्रस्तावों का अनुमोदन करूँ।
18) राजा के सामने जो कुछ प्रस्तुत करना था, उसे मैंने प्रस्तुत किया और उन्होंने जो उचित था, उसे स्वीकार किया।
19) यदि भविष्य में आप लोग राज्य के प्रति सद्भाव बनाये रखेंगे, तो मैं भी आपके कल्याण के लिए प्रयत्न करता रहूँगा।
20) मैंने अपने और आप लोगों के दूतों को आज्ञा दी है कि वे एक-एक विषय पर आप से बातचीत करें।
21) आप लोगों का कल्याण हो! एक सौ अड़तालीसवें वर्ष के ज़्यूस करिंथस मास के चैबीसवें दिन।"
22) राजा का पत्र इस प्रकार था:
23) "भाई लीसियस को राजा अंतियोख का नमस्कार! हमारे पिता देवलोक सिधार गये। हमारी इच्छा है कि हमारे राज्य के लोग विश्वस्त हो कर अपने-अपने कामों में लगे रहें।
24) हम सुनते हैं कि यहूदी हमारे पिता की इच्छा के अनुसार रहना चाहते हैं और इसलिए वे निवेदन करते हैं कि उन्हें अपने विधि-निषेधों के पालन की अनुमति दी जाये।
25) हम चाहते हैं कि उस जाति को तंग नहीं किया जाये इसलिए हमने यह निर्णय किया कि उन्हें मंदिर लौटा दिया जाये और उन्हें अपने पूर्वजों के परंपरागत रीति-रिवाजों के अनुसार जीवन बिताने की अनुमति दी जाये।
26) अच्छा हो, यदि आप दूत भेज कर उन से संधि कर लें, जिससे वे हमारे विचार जान कर निश्चिन्त हो जायें और अपने कामों में शांतिपूर्वक लगे रहें।"
27) लोगों के नाम राजा का पत्र इस प्रकार था: "यहूदियों की परिषद् तथा शेष यहूदियों को राजा अंतियोख का नमस्कार!
28) हम आपका कल्याण चाहते हैं। हम सकुशल हैं।
29) मनेलास ने हमें बतलाया है कि आप लोग अपने यहाँ लौट कर अपने काम-काज में लग जाना चाहते हैं।
30) इसलिए जो यहूदी जंथिकस मास की तीसवीं तारीख तक ऐसा करेंगे, उन्हें आश्वासन दिया जाता है कि
31) वे पहले की तरह भोजन-संबंधी अपने नियमों और अपने विधि-निषेधों का पालन कर सकते हैं। उन में किसी को भी अनजान में किये हुए अपराधों के लिए तंग नहीं किया जायेगा।
32) मैंने मनेलास को भेजा, जिससे वह आप लोगों को आश्वासन दे।
33) आप लोगों का कल्याण हो! एक सौ अड़तालीसवें वर्ष के जंथिकस मास के पन्द्रहवें दिन।"
34) रोमियों ने भी उन्हें एक पत्र भेजा। वह इस प्रकार था: "यहूदियों को क्विन्तुस मम्मियुस और तितुस मानियुस नामक राजदूतों का नमस्कार!
35) राजा के संबंधी लीसियस ने आप लोगों को जिन बातों की अनुमति दी है, उस से हम भी सहमत हैं।
36) जिन बातों के संबंध में उन्होंने राजा की राय लेना उचित समझा, आप उन पर विचार कर लेने के बाद किसी को शीघ्र हमारे पास भेज दें, जिससे हम वे बातें आपकी ओर से राजा के सामने प्रस्तुत कर सकेंं। कारण यह है कि हम अंताकिया जाने वाले हैं।
37) इसलिए आप शीघ्र ही कुछ लोगों को हमारे पास भेजंे, जिससे हमें आपके विचारों का पता चले।
38) आप लोग स्वस्थ रहें! एक सौ अडतालीसवें वर्ष के जंथिकस मास के पन्द्रहवें दिन।"