1) यूदाह मक्काबी अपने आदमियों को साथ ले कर छिपे-छिपे गाँवों का दौरा करता था। वे अपने संबंधियों को बुला भेजते और उन लोगों को अपने दल में भर्ती कर लेते थे, जो यहूदी धर्म के प्रति ईमानदार रहे थे। इस प्रकार उन्होंने लगभग छः हजार लोगों को एकत्र किया।
2) उन्होंने प्रभु से प्रार्थना की कि वह उस प्रजा पर कृपादृष्टि करे, जिस पर चारों ओर से अत्याचार किया जा रहा है; उस मन्दिर में दया करे, जो विधर्मियों द्वारा अपवित्र किया गया है;
3) उस नगर पर सहानुभूति दिखाये, जिसका विनाश और पूर्ण संहार किया जा रहा हैं; उस रक्त की पुकार पर ध्यान दे, जो उसकी दुहाई दे रहा है;
4) उन निर्दोष बच्चों को याद करे, जिनका अधर्म से वध किया गया है और उन लोगों को दण्डित करे, जिन्होंने उसकी निंदा की है।
5) जब मक्काबी ने अपनी सेना संगठित कर ली, तो गैर-यहूदी उसके सामने नहीं टिक पाते थे; क्योंकि अब प्रभु का कोप दया बन गया था।
6) वह अचानक नगरों और गाँवों में घुसता और उन्हें जला देता। उसने उन स्थानों पर अधिकार कर लिया, जो उसके काम के थे। इस तरह उसने कई शत्रुओं को भगा दिया।
7) वह इस प्रकार के आक्रमण प्रायः रात में किया करता। उसकी वीरता की चर्चा दूर-दूर तक फैल गयी।
8) जब फिलिप ने देखा कि यूदाह की शक्ति धीरे-धीरे बढ़ने लगी और उसकी विजयों की संख्या निरंतर बढ़ती जा रही थी, तो उसने केले-सीरिया आर फेनीके के शासक पतोलेमेउस को पत्र लिख कर निवेदन किया कि वह राजा का पक्ष सुदृढ़ करने के लिए सहायता भेजे।
9) उसने तुरंत पत्रक्लस के पुत्र निकानोर को, जो राजा का एक घनिष्ठ मित्र था, बुला भेजा, उसे विभिन्न जातियों के कम-से-कम बीस हजार सैनिकों का सेनापति नियुक्त किया और समस्त यहूदी जाति का संहार करने यहूदिया भेजा। उसने सेनापति गोरगियस को भी उनके साथ कर दिया, जो अनुभवी एवं युद्धनिपुण सेनापति था।
10) निकानोर ने सोचा कि राजा रोमियों को कर के रूप में जो दो हजार मन चुकाता था, वह राशि यहूदी युद्ध निपुण की बिक्री से प्राप्त हो सकेगी।
11) उसने तुरंत समुद्रतट के नगरों में घोषणा की कि यहूदी दासों को बेचा जायेगा और आश्वासन दिया कि एक मन में नब्बे दास मिलेंगे। उसने उस दण्ड की कल्पना नहीं कि जो उसे सर्वशक्तिमान् की ओर से मिलने वाला था।
12) यूदाह को निकानोर के आगमन का पता चल गया और उसने अपने साथियों को इसकी सूचना दी।
13) उन में जो कायर थे और जिन्हें ईश्वर के न्याय पर भरोसा नहीं था, वे लोग दूसरी जगह भाग गये।
14) शेष लोगों ने वह बेच दिया, जो उनके पास था और प्रभु से प्रार्थना की कि वह उन्हें उस विधर्मी निकानोर के हाथों से बचायें, जिसने उन्हें युद्ध से पहले ही दास के रूप में बेचा।
15) यदि वे बचाये जाने के योग्य न हो, तो ईश्वर उनके पूर्वजों के लिए निर्धारित विधान के कारण उन्हें बचाये और इसलिए भी कि वे ईश्वर के पवित्र और महिमामय नाम को समर्पित है।
16) मक्काबी ने अपनी सेना एकत्र की, जिसकी संख्या छः हजार थी। उसने उन्हें समझाया कि वे शत्रु से नहीं डरें और गैर-यहूदियों की संख्या से भयभीत न हों, जो अन्याय से उन पर चढे़ आ रहे हैं, बल्कि उनका साहसपूर्वक सामना करें।
17) वे यह याद रखें कि उन्होंने किस प्रकार घृष्टता-पूर्वक पवित्र-स्थान को दूषित किया, कितनी क्रूरता से नगर को उजाड़ा और पूर्वजों के रीति-रिवाजों को समाप्त किया।
18) उसने यह भी कहा, "दूसरें लोगों को अपने अस्त्र-शस्त्रों और अपनी वीरता का भरोसा है, किंतु हमें उस सर्वशक्तिमान् ईश्वर का भरोसा है, जो न केवल हम पर आक्रमण करने वालों का, बल्कि पलक मारते ही समस्त संसार का विनाश कर सकता है"।
19) उसने उन्हें उनके पूर्वजों को प्रदत्त सहायता का स्मरण दिलाया: जिस प्रकार सनहेरीब के एक लाख पचासी हजार आदमी मर गये थे।
20) उसने उस लडाई की भी याद दिलायी, जो बाबुल में गलातियों के साथ हुई थी। उस समय चार हजार मकेदूनियों को मिला कर कुल आठ हजार लोग थे और जब मकेदूनियों का दल विचलित हो रहा था, तो उन आठ हजार आदमियों ने ईश्वर की सहायता से एक लाख बीस हजार लोगों को पराजित किया और लूट का भी बहुत धन प्राप्त किया।
21) ऐसी बातों द्वारा उसने उनका साहस बंधाया और उन्हें अपने विधि-निषेधों और अपने देश के लिए जीवन अर्पित करने को तैयार किया। इसके बाद उसने सेना को चार दलों में बाँटा
22) और अपने भाइयों को, अर्थात् सिमोन, यूसुफ़ और योनातान को, एक-एक दल का अध्यक्ष बनाया। उसने प्रत्येक को पन्द्रह सौ आदमी दिये।
23) उसने एलआजार को पवित्र ग्रंथ का एक अंश पढ़ सुनाने को कहा। इसके बाद उसने उन्हें यह संकेत-वाक्य दिया: "ईश्वर सहायक है!" और पहले दल के नेता के रूप में उसने निकानोर पर आक्रमण किया।
24) उन्होंने शत्रुओं में नौ हजार से अधिक का वध किया, निकानोर की सेना के अधिकांश सैनिकों को घायल और पंगु बना दिया और उसकी सेना को भगा दिया। यह इसलिए हुआ कि सर्वशक्तिमान् उनका सहायक था।
25) निकानोर के साथ जो उनके खरीदार आये थे, उन्होंने उनका पैसा लूटा और काफी दूर तक शत्रुओं को खदेड़ा, किंतु दिन ढलने के कारण उन्हें लौटना पड़ा।
26) यह विश्राम-दिवस का पूर्व दिन था, इसलिए उन्होंने उन्हें दूर तक खदेड़ना उचित नहीं समझा।
27) उन्होंने शत्रुओं के अस्त्र-शस्त्र एकत्रित किये और उनके कवच उतार लिये। इसके बाद उन्होंने विश्राम-दिवस मनाया और उल्लास के साथ प्रभु का स्तुतिगान और धन्यवाद किया, जिसने उस दिन उनकी सहायता की थी और इस प्रकार फिर उन पर दया दिखाने लगा था।
28) उन्होंने विश्राम-दिवस के बाद अत्याचार-पीड़ितों, विधवाओं और अनाथों के बीच लूट का अंश बाँट दिया। जो बचा, उसे अपने और अपने बच्चों के बीच बाँट लिया।
29) इसके बाद उन्होंने सामूहिक प्रार्थना की और कृपालु प्रभु से निवेदन किया कि वह अंत तक अपने सेवकों पर दयादृष्टि रखे।
30) उन्होंने तिमोथेव और बक्खीदेस की सेना का भी सामना किया और युद्ध में उन में बीस हजार से अधिक लोगों को मार गिराया। इसके अतिरिक्त उन्होंने कुछ ऊँचे गढ़ों को अपने अधिकार में कर लिया और लूट का बहुत बड़ा माल दो बराबर भागों में विभाजित किया - एक अपने लिए दूसरा भाग अत्याचार-पीडित लोगों, अनाथों, विधवाओं और बूढों में बाँट दिया।
31) उन्होंने राजधानी से अपने सभी हथियार जमा किये और उन्हें सुविधाजनक स्थानों पर रख दिया। लूट का बाकी माल वे येरूसालेम ले गये।
32) उन्होंने तिमोथेव के सेनापति का भी वध किया। वह घोर कुकर्मी था और यहूदियों का बहुत अपकार कर चुका था।
33) जब वे अपने देश में विजय का उत्सव मना रहे थे, तो उन्होंने उन लोगों को जला दिया जिन्होंने मंदिर के फाटकों को जला दिया था और कल्लिस्थेनेस को भी, जिसने किसी घर में शरण ली थी। इस तरह उस से अपने अधर्म का उचित बदला चुकाया गया।
34) महादुष्ट निकानोर, जो एक हजार व्यापारियों को ले आया था, जिससे वह उनके हाथों यहूदियों को बेचे,
35) ईश्वर की सहायता से उन्हीं लोगों द्वारा नीचा दिखाया गया, जिन्हें वह तुच्छ समझता था। उसने अपने भड़कीले वस्त्र उतारने पडे़ और वह भगोड़े दास की तरह देहाती रास्तों से अकेला अंताकिया पहुँचा। उसे अपनी सेना का विनाश कराने में अपूर्व सफलता मिली।
36) उसने रोमियों से कहा था कि वह येरूसालेम के जिन लोगों को युद्ध में दास बना लेगा, उन्हें बेच कर, कर चुका देगा; लेकिन अब उसे यह मानना पडा कि यहूदियों का एक सहायक है और वे तब अजेय हैं, जब तक वे उसके दिये हुए विधान का पालन करते हैं।