📖 - मक्काबियों का दूसरा ग्रन्थ

अध्याय ➤ 01- 02- 03- 04- 05- 06- 07- 08- 09- 10- 11- 12- 13- 14- 15- मुख्य पृष्ठ

अध्याय 06

1) कुछ समय बाद राजा ने एक एथेंस-निवासी वृद्ध पुरुष को इसलिए भेजा कि वह यहूदियों को अपने पूर्वजों के विधि-निषेधों का परित्याग करने और ईश्वर के नियमों का उल्लंघन करने को बाध्य करे।

2) उसे येरूसालेम के मंदिर को अपवित्र कर ओलिम्पसवासी ज़्यूस के नाम पर उसका प्रतिष्ठान करना था और गरिज्ज़ीम के निवासियों के स्वभाव के अनुरूप वहाँ के मंदिर का, आतिथेय ज़्यूस के नाम पर।

3) अधर्म का यह बोलबाला जनसाधारण को भी खलने लगा। यह उनके लिए दुःसह हो गया।

4) मंदिर में दुराचरण और रंगरेलियाँ होने लगीं। गैर-यहूदी वहाँ वेश्याओं के साथ मनोरंजन और पवित्र प्रांगणों में स्त्रियों के साथ रमण करते। वे मंदिर में ऐसी वस्तुएँ अन्दर लाते, जो वर्जित थीं।

5) वेदी ऐसी वस्तुओं से भर गयी, जो अपवित्र और संहिता द्वारा वर्जित थीं।

6) न विश्राम-दिवस मनाया जा सकता और न परंपरागत उत्सव मनाये जा सकते थे। कोई अपने को यहूदी कहलाने का साहस नहीं करता था।

7) राजा के प्रति मास मनाये जाने वाले जन्म-दिवस पर बलि का प्रसाद खाने के लिए लोगों को बाध्य किया जाता और दियोनीसियस देवता के पर्व पर अवसर पर उन्हें इसके लिए मजबूर किया जाता कि वे मारवल्ली का मुकुट सिर पर पहन कर दियोनीसियस के जुलूस में सम्मिलित हों

8) पतोलेमेउस के कहने पर यह निर्णय किया गया कि निकटवर्ती यूनानी नगरों में भी यहूदियों के साथ वही व्यवहार किया जाये और उन्हें बलि-प्रसाद खाने को बाध्य किया जाये।

9) जो व्यक्ति यूनानी रीति-रिवाजों को अपनाने से इंकार करे, उसका वध कर दिया जाये। इस से स्पष्ट था कि यहूदियों पर कितनी विपत्तियाँ पड़ने वाली थीं।

10) एक दिन दो माताएँ कचहरी में पेश की गयीं, जिन्होंने अपने बच्चों का खतना करवाया था। उनके शिशु उनकी छाती पर लटका दिये गये। उन्हें इसी रूप में नगर में घुमाया गया और इसके बाद उन्हें दीवार से नीचे फेंक दिया गया।

11) कुल लोग वही गुफाओं में छिप गये थे, जिससे वहीं विश्राम-दिवस मनायें। किंतु यह बात फ़िलिप को बता दी गयी और उन्हें वहीं जला दिया गया। वे पवित्र विश्राम-दिवस पर श्रद्धा रखने के कारण अपनी रक्षा करना नहीं चाहते थे।

12) मैं इस ग्रंथ के पाठकों से यह निवेदन करता हूँ कि वे इन विपत्तियों के कारण निराश न हों, बल्कि यह समझें कि ये विपत्तियाँ हमारे विनाश के लिए नहीं, वरन् हमारी जाति के सुधार के लिए आयी है।

13) यदि पापी लोगों को दण्ड मिलने में कुछ समय नहीं लगता हैं, यदि उन्हें तत्काल दण्ड मिलता हैं, तो यह बड़ी कृपा का प्रमाण है।

14) प्रभु अन्य जातियों के साथ ढिलाई करता और उन्हें तब दण्ड देता है, जब उनके पाप का घड़ा भर जाता है। किंतु वह हमारे साथ ऐसा नहीं करता,

15) जिससे उसे तब हमें और कठोर दण्ड न देना पड़े, जब हमारे पाप चरमसीमा तक पहुँचे गये हों।

16) वह हमें अपनी दया से कभी वंचित नहीं करता। वह विपत्तियों द्वारा अपनी प्रजा को शिक्षा देता है, लेकिन उसका पूरी तरह त्याग नहीं करता।

17) हमने थोड़े ही शब्दों में इस सत्य का स्मरण दिलाया और अब हम अपना कथानक आगे बढाते हैं।

18) एलआजार मुख्य शास्त्रियों में एक था। वह बहुत बूढ़ा हो चला था और उसकी आकृति भव्य तथा प्रभावशाली थी। वह अपना मुँह खोलने और सूअर का मांस खाने के लिए बाध्य किया जा रहा था।

19 (19-20) किंतु उसने कलंकित जीवन की अपेक्षा गौरवपूर्ण मृत्यु को चुना। वह सूअर का मांस उगल कर स्वेच्छा से उस स्थान की ओर बढ़ा जहाँ कोडे लगाये जाते थे। ऐसा उन लोगों को करना चाहिए, जिन्हें जीवन का मोह छोड़ कर वर्जित भोजन अस्वीकार करने का साहस हैं।

21) उस अवैध भोजन का प्रबंध करने वाले एलआजार के पुराने परिचित थे। उन्होंने उसे अलग ले जा कर उस से अनुरोध किया कि वे ऐसा माँस मंगवा कर खाये, जो वर्जित न हो और जिसे उसने स्वयं पकाया हो और राजा के आदेश के अनुसार बलि का माँस खाने का स्वाँग मात्र करे।

22) इस प्रकार वह मृत्यु से बच सकेगा और पुरानी मित्रता के कारण उसके साथ अच्छा व्यवहार किया जायेगा।

23) किंतु उसने एक उत्तम निश्चय किया, जो उसकी उमर, उसकी वृद्धावस्था की मर्यादा, उसके सफेद बालों, बचपन से उसके निर्दोष आचरण और विशेष कर ईश्वर द्वारा प्रदत्त पवित्र नियमों के अनकूल था। उसने उत्तर दिया, "मुझे तुरंत अधोलोक पहुँचा दो।

24) मेरी अवस्था में इस प्रकार का स्वाँग अनुचित है। कहीं ऐसा न हो कि बहुत-से युवक यह समझें कि एलआजार ने नब्बे वर्ष की उमर में विदेशियों के रीति-रिवाज अपनाये हैं।

25) मेरे जीवन का बहुत कम समय रह गया है। यदि मैं उसे बचाने के लिए इस प्रकार का स्वाँग करता, तो वे शायद मेरे कारण भटक जाते और मेरी वृद्धावस्था पर दोष और कलंक लग जाता।

26) यदि मैं इस प्रकार अभी मनुष्यों के दण्ड से बच जाता, तो भी, चाहे जीवित रहूँ अथवा मर जाऊँ, मैं सर्वशक्तिमान् के हाथ से नहीं छूट पाता।

27) इसलिए यदि मैं अभी साहस के साथ अपना जीवन अर्पित करूँगा तो मैं अपनी वृद्धावस्था की प्रतिष्ठा बनाये रखूँगा

28) और युवकों के लिए एक अच्छा उदाहरण प्रस्तुत करूँगा कि किस प्रकार पूज्य तथा पवित्र विधियों की रक्षा के लिए कोई स्वेच्छा से और आनंद के साथ मर सकता है।" यह कह कर एलआजार सीधे उस स्थान की ओर बढ़ा जहाँ कोडे़ लगाये जाते थे।

29) जो पहले उसके साथ सहानुभूति दिखलाते थे, अब वे उसके साथ दुव्र्यवहार करने लगे; क्योंकि एलआजार ने उन से जो कहा था, वह उन्हें मूर्खता ही लगी।

30) कोड़ों की मार से मरते समय एलआजार ने आह भर कर यह कहा, "प्रभु सब कुछ जानता है। वह जानता है कि मैं मृत्यु से बच सकता था। मैं कोड़ों की मार से जो असह्î पीडा अपने शरीर में भोग रहा हूँ, उसे अपनी आत्मा से स्वेच्छा से स्वीकार करता हूँ, क्योंकि मैं उस पर श्रद्धा रखता हूँ''।

31) इस प्रकार वह मर गया और उसने मरते समय न केवल युवकों के लिए, बल्कि राष्ट्र के अधिकांश लोगों के लिए साहस तथा धैर्य का आदर्श प्रस्तुत किया।



Copyright © www.jayesu.com