1) राज देमेत्रियस एक सौ बहत्तरवें वर्ष अपनी सेना एकत्रित कर मोदिया गया, जिससे वह त्रीफोन से लडने में वहाँ से सहायता प्राप्त करे।
2) जब फ़ारस और मोदिया के राजा अर्साकेस ने यह सुना कि देमेत्रियस उसके देश के भीतर आ गया है, तो उसने अपना एक सेनापति भेजा, जिससे वह उसे जीवित ही पकड़ लाये।
3) वह चल पड़ा और उसने देमेत्रियस की सेना को पराजित कर देमेत्रियस को बंदी बनाया और उसे अर्साकेस के सामने ले आया। उसने उसे बंदीगृह में डाल दिया।
4) सिमोन के शासनकाल में यूदा भर में शांति का साम्राज्य था वह लोगों के कल्याण के लिए सक्रिय रहता था। जनता उसके अधिकार और वैभव से संतुष्ट थी।
5) उसने याफ़ा को अधिकार में कर अपने राज्य का विस्तार किया, उसे बंदरगाह बनाया और समुद्र के द्वीपों का मार्ग खोला।
6) उसने अपने राष्ट्र की सीमाओं का विस्तार किया और अपने देश का दृढ़तापूर्वक शासन किया।
7) उसने बहुत-से यहूदी युद्धबंदी विदेश से एकत्र किये। उसने गेजे़र, बेत-सूर और गढ़ पर अधिकार किया। उसने गढ़ का शुद्धीकरण कराया। ऐसा कोई नहीं रह गया, जो उसका सामना करें।
8) सब शांतिपूर्वक अपने खेत जोतते थे भूमि अपनी फसल उगाती थी, मैदान के पेड़ अपने फल देते थे।
9) चैकों में बैठ कर बडे़-बूढ़े अपनी समृद्धि की ही चरचा किया करते थे। नवयुवक भड़कीले आभूषण और युद्ध के वस्त्र पहनते थे।
10) वह नगरों को खाद्य-सामग्री देता और उनकी किलाबंदी करता था। इस प्रकार उसके महिमामय नाम की चर्चा पृथ्वी के सीमांतों तक होती थी।
11) वह देश में शांति बनाये रखता था और इस्राएल में बड़ा आनंद था।
12) प्रत्येक व्यक्ति अपनी दाखलता और अंजीर के पेड के नीचे बैठता था। ऐसा कोई नहीं था, जो उन्हें डर दिखाये।
13) ऐसा कोई नहीं था, जो उनके देश पर आक्रमण करें। उन दिनों राजाओं को रौंदा जाता था।
14) वह अपनी प्रजा के सब दीन-हीन लोगों की संभाला करता था। वह संहिता के लिए उत्साह दिखाता और सब विधर्मियों एवं दुष्टों का दमन करता था।
15) उसने मंदिर की शोभा बढ़ायी और उसे बहुसंख्यक पात्रों से समृद्ध किया।
16) रोम और स्पार्ता के लोग भी योनातान की मृत्यु का समाचार सुन कर बहुत दुःखी हुए।
17) जब उन्होंने यह सुना कि उसका भाई सिमोन उसकी जगह प्रधानयाजक बन गया है और देश तथा उसके नगरों का शासक है,
18) तो उन्होंने उसके भाई यूदाह और योनातान के साथ मित्रता और संधि का जो संबंध स्थापित किया था, उसे दोहराने के लिए उसके पास काँसे के पत्तरों पर लिखा हुआ पत्र भेजा।
19) उसे येरूसालेम में सभा के सामने सुनाया गया।
20) स्पार्तावासियों के पत्र की प्रतिलिपि इस प्रकार है: ’प्रधानयाजक सिमोन, नेताओं, याजकों और अन्य यहूदियों-अपने भाइयों को स्पार्ता के पदाधिकारियों और नगर का नमस्कार।
21) आप लोगों ने हमारे यहाँ जो दूत भेजे, उन्होंने हमें आपके यश और आपकी प्रतिष्ठा के विषय में बताया। उनके आगमन से हमें बड़ी प्रसन्ना हुई।
22) उन्होंने हमें जो बताया, उसे हमने परिषद के कार्य विवरण में इस प्रकार लिपिबद्ध किया: अंतियोख के पुत्र नूमेनियस और यासोन के पुत्र अंतीपातेर हमारे यहाँ यहूदियों के दूतों के रूप में इस उद्देश्य से आये कि वे हमारे साथ मित्रता का संबंध फिर से स्थापित करें।
23) जनता ने उन दूतों का सम्मान के साथ स्वागत करने और उनके वक्तव्य की प्रतिलिपि राज्य के अभिलेखागार में रखने का निश्चय किया, जिससे स्पार्ता के लोगों को उसकी याद कायम रहें। उसकी एक प्रतिलिपि प्रधानयाजक सिमोन को भेजी गयी।"
24) इसके बाद सिमोन ने नूमेनियस को पाँच सत्तर किलों सोने की एक बड़ी-सी ढाल के साथ रोम भेजा, जिससे रोमियों के साथ संधि स्थायी हो जाये।
25) जब लोगों ने इस विषय में सुना, तो वे कहने लगे, "हम सिमोन और पुत्रों के प्रति अपना आभार कैसे प्रकट करे?
26) वह स्वयं एक वीर योद्धा हैं, उनके भाई और उनके सारे कुटुम्बी हमारी ओर से इस्राएल के शत्रुओं के विरुद्ध लड़ते रहे और उन्होंने हमें स्वतंत्रता प्रदान की।" उन्होंने काँसे की पाटियों पर एक अभिलेख अंकित किया और उसे सियोन पर्वत के स्तम्भों पर लगाया।
27) उस अभिलेख की प्रतिलिपि इस प्रकार हैः "एक सौ बहत्तरवें वर्ष के एलूल मास के अठारहवें दिन, परमश्रद्धेय प्रधानयाजक सिमोन के तीसरे वर्ष,
28) याजकों, लोगों, राष्ट्र के शासकों और देश के नेताओं ने मंदिर के प्रांगण की सभा में निम्नलिखित बातों पर विचार किया।
29) जब देश भर में लड़ाइयाँ चल रही थीं, तब सिमोन ने, जो मत्तथ्या के पुत्र और यहोयारीब के वंशज है और उनके भाइयों ने मन्दिर और संहिता की रक्षा के लिए अपने को ख़तरे में डाल कर अपने राष्ट्र के शत्रुओं का सामना किया और इस प्रकार उन्होंने अपना राष्ट्र गौरवमय बनाया।
30) योनातान ने राष्ट्र में एकता की स्थापना की और वह उनके प्रधानयाजक बन गये। जब वह अपने पूर्वजों के पास दफनाये गये,
31) तो यहूदियों के शत्रु घुस कर उनका देश लूटना और मंदिर पर अधिकार करना चाहते थे।
32) उस समय सिमोन अपने राष्ट्र के लिए लड़ने को उठ खड़े हुए। उन्होंने राष्ट्रीय सेना की सज्जा और सैनिकों के वेतन के लिए अपनी व्यक्तिगत संपत्ति का एक बड़ा भाग खर्च किया।
33) उन्होंने यूदा के नगर किलाबंद किये और सीमा पर अवस्थित बेत-सूर को भी, जहाँ पहले शत्रुओं का शस्त्रागार था और वहाँ एक रक्षक-सेना रखी।
34) उन्होंने समुद्रतट पर अवस्थित याफ़ा को किलाबंद किया और गेजे़र को भी, जो अजोत के पास है और जहाँ पहले शत्रु निवास कते थे। उन्होंने वहाँ यहूदियों को बसाया और उनकी जीविका का पूरा प्रबंध किया
35) लोगों ने देखा कि सिमोन ईमानदार है और अपने राष्ट्र को गौरवशाली बनाना चाहते थे। उन्होंने सिमोन को अपना शासक और प्रधानयाजक नियुक्त किया; क्योंकि वह यह सब किया करते, अपनी जाति को न्याय दिलाते, उसके प्रति ईमानदार थे और वह हर तरह अपने लोगों की उन्नति करना चाहते थे।
36) सिमोन उस समय सफल हुए-उन लोगों को, जिन्होंने येरूसालेम के दाऊदनगर में अपने लिए एक गढ बनवाया था? जहाँ वे छापा मारा करते, मंदिर के आसपास का क्षेत्र दूषित करते और मंदिर की पवित्रता को बड़ी हानि पहुँचाते थे।
37) उन्होंने वहाँ यहूदी सैनिक रखे और देश तथा नगर की सुरक्षा के लिए उसे सुदृढ़ बनाया तथा येरूसालेम की चारदीवारी और ऊँची करायी।
38) तब राजा देमेत्रियस ने प्रधानयाजक के पद उनकी नियुक्ति की पुष्टि की,
39) उन्हें अपना मित्र बनाया और बड़ा सम्मान दिया।
40) उसने सुन रखा था कि रोमी यहूदियों को अपने संधिबद्ध मित्र और भाई मानते हैं और सिमोन के राजदूतों का वहाँ बडे़ आदर से स्वागत किया था;
41) यह भी कि यहूदी और याजक इस बात पर सहमत हैं कि जब तक कोई निष्ठावान् नबी नहीं होगा, तब तक सिमोन ही लोगों के शासक और प्रधानयाजक रहेंगे।
42) उसने यह भी सुना था कि वही उनके सेनापति और मंदिर के प्रबंधक हैं, उनके सब निर्माण-कार्यों, प्रदेश, शस्त्र-भण्डार और गढ़ों के अध्यक्ष हैं,
43) सभी उनकी बात मानते हैं, देश भर की राजाज्ञाएँ उनके नाम पर निकाली जाती हैं और वह बैंगनी वस्त्र और सोने के आभूषण पहनते हैं।
44) जनता और याजकों में किसी को अधिकार नहीं कि वह इस व्यवस्था में परिवर्तन करे या सिमोन के आदेशों का उल्लंघन करे, उनकी अनुमति के बिना देश में सभा का आयोजन करे और बैंगनी वस्त्र या सोने का अभूषण पहने।
45) जो इस व्यवस्था के नियमों का उल्लंघन करेगा या उन में कोई परिवर्तन करेगा, वह दोषी माना जायेगा।"
46) सभी लोग सिमोन को ये अधिकार प्रदान करने के पक्ष में थे।
47) सिमोन ने सहमति प्रकट की और उसने प्रधानयाजक, सेनापति, यहूदियों और याजकों का अध्यक्ष और सब का शासक बनना स्वीकार किया।
48) यह भी निश्चित किया गया कि इन बातों को काँसे के पत्तरों पर लिखा जाये और उन्हें मदिर के किसी सार्वजानिक स्थान पर लगाया जाये,
49) उनकी एक प्रतिलिपि सिमोन और उसके वंशजों के लिए कोष में रख दी जायें