📖 - मक्काबियों का पहला ग्रन्थ

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अध्याय 10

1) एक सौ साठवें वर्ष अंतियोख एपीफ़ानेस के पुत्र सिकंदर ने नाव से उतर कर पतोलेमाइस पर अधिकार कर लिया। वहाँ के लोगों ने उसका स्वागत किया और वह वहाँ राज्य करने लगा।

2) जब राजा देमेत्रियस ने यह बात सुनी, तो वह एक बड़ी सेना ले कर उस से लड़ने चल पड़ा।

3) इसके साथ देमेत्रियस ने योनातान के नाम सद््भावपूर्ण पत्र लिखा, जिस में उसने योनातान की भूरि-भूरि प्रशंसा की।

4) उसने सोचा कि जब तक सिकंदर हमारे विरुद्ध उन से मित्रता स्थापित करता है, उसके पहले ही हम उन्हें मित्र बना ले;

5) क्योंकि योनातान निश्चित ही याद करेगा कि हमने उसके, उसके भाइयों और लोगों के साथ कैसा बुरा व्यवहार किया था।

6) इसलिए उसने योनातान को सेना एकत्र करने, युद्ध-सामग्री जुटाने और अपने को उसका मित्र घोषित करने की अनुमति दी। उसने जिन लोगों को गढ़ में बन्धक के रूप में रखा था, उन्हें उसे लौटाने का आदेश दिया।

7) योनातान येरूसालेम आया और वहाँ सब लोगों को और जो गढ़ में थे, उन्हें भी बुला कर उनके सामने वह चिट्ठी पढ़ सुनायी।

8) जब लोगों ने यह सुना कि राजा ने उसे सैनिक इकट्ठा करने की अनुमति दे दी है, तो वे भय से काँप उठे।

9) गढ़ के लोगों ने उन आदमियों को, जो बन्धक के रूप में पड़े थे, योनातान के हवाले कर दिया और उसने उन्हें उनके माता-पिता को लौटा दिया।

10) अब योनातान येरूसालेम में बस गया और नगर के निर्माण और उसकी मरम्मत में लग गया।

11) उसने कारीगरों को आज्ञा दी कि वे चारदीवारी फिर से उठायें और सियोन पर्वत के चारों ओर गढ़े पत्थरों से किलाबन्दी करें। उन्होंने ऐसा ही किया।

12) तब वे गै़र-यहूदी भाग गये, जो उन गढ़ों में पड़े थे, जिन्हें बक्खीदेस ने बनवाया था।

13) प्रत्येक व्यक्ति अपना स्थान छोड़ कर स्वदेश लौट गया।

14) केवल बेत-सूर में कुछ ऐसे लोग रह गये जिन्होंने संहिता और आज्ञाओं का परित्याग किया था; क्योंकि यह शरण-नगर था।

15) राजा सिकन्दर ने देमेत्रियस द्वारा योनातान से की हुई प्रतिज्ञाओं के विषय में सुना। उसे उन लड़ाइयों और वीरता के कार्यों के विषय में भी बताया गया, जो योनातान और उसके भाइयों ने किये थे और उन कष्टों के सम्बन्ध में भी, जो उन्हें झेलने पडे़ थे।

16) वह यह सुन कर बोल उठा, “हम इसके-जैसा आदमी कहाँ पा सकते हैं? हम इसे अपना मित्र बना ले और इस से सन्धि कर लें!“

17) उसने उसके नाम चिट्ठी लिख भेजी। उस में लिखा था:

18) “राजा सिकन्दर का भाई योनातान को नमस्कार।

19) हमने सुना है कि आप एक वीर और शक्तिशाली योद्धा हैं और हमारे मित्र होने के सर्वथा योग्य है।

20) आज हम आप को आपकी जाति का प्रधानयाजक नियुक्त कर रहे हैं और आप को ‘राजा का मित्र’ की उपाधि देते हैं। (उसने उसे एक बैंगनी वस्त्र और सोने का मुकुट भी भेजा।) आप हमारा पक्ष लें और हमारे मित्र बने रहें।

21) एक सौ साठवें वर्ष के सातवें महीने में, शिविर-वर्ष के दिन, योनातान ने पवित्र वस्त्र धारण किया। उसने सेना इकट्ठी की और बहुत-से अस्त्र-शस्त्रों का निर्माण किया।

22) देमेत्रियस ने जब यह सुना, तो उसने दुःखी हो कर कहा:

23) “हमने यह क्यों होने दिया कि हमारे पहले ही सिकन्दर ने यहूदियों को अपना मित्र बना कर अपने पक्ष में कर लिया?

24) मैं अभी उनके नाम मैत्रीपूर्ण पत्र लिख कर उन्हें सम्मान और उपहार देने का आश्वासन दूँगा, जिससे वे मुझे अपना सहयोग दें।“

25) इसलिए उसने उन्हें इस प्रकार लिखा: “राजा देमेत्रियस का यहूदी लोगों को नमस्कार।

26) हमने सुन रखा है कि आप हमारे साथ हुए समझौते की शर्तों पर कायम रहे, आपने मित्रता का निर्वाह किया और हमारे शत्रुओं का पक्ष नहीं लिया। हम इस से बहुत प्रसन्न हैं।

27) आगे भी आप इस तरह हमारे विश्वासी बने रहें। आप इस तरह हमारे लिए जो करेंगे, हम उपकारों द्वारा उसका बदला चुकायेंगे।

28) हम आप को कर में छूट और अन्य उपहार देंगे।

29) आज से मैं आप को स्वतन्त्र घोषित करता हूँ और सारे यहूदियों पर से व्यक्तिगत कर, नमक का महसूल और राज-उपहार हटा रहा हूँ।

30) उपज का एक तिहाई भाग और फलों को आधा भाग, जिस पर मेरा अधिकार था, आज से और आगे कभी आप से नहीं लिया जायेगा! यह बात यूदा तथा उन तीनों जनपदों पर भी लागू होगी, जो आज से सदा के लिए समारिया-गलीलिया से अलग कर यूदा में मिलाये जाते हैं।

31) येरूसालेम की पवित्रता बनी रहेगी और वह तथा उसकी सीमा में निवास करने वाले लोग दशमांश तथा करों से एकदम मुक्त रहेंगे।

32) मैं येरूसालेम के गढ़ पर अपने अधिकार का परित्याग कर रहा हूँ। वह उस में अपने चुने हुए सैनिकों को रखे, जो उसकी रक्षा करें।

33) मैं यूदा के सभी यहूदियों को बिना कुछ लिये मुक्त करता हूँ जो मेरे राज्य में कहीं भी युद्धबन्दी के रूप में रहते हैं। वे सभी अपने घर और अपने पशुओं पर लगाये हुए करों से मुक्त किये जाते हैं।

34) सभी महापर्वों, विश्राम-दिवसों, अमावस के दिनों तथा अन्य पर्वों में और महापर्वों के तीन दिन पहले और तीन दिन बाद तक मेरे राज्य के सभी यहूदी बेगार और चुंगी से मुक्त होंगे।

35) इन दिनों किसी को यह अधिकार नहीं होगा कि वह उन में किसी पर मुक़दमा चलाये या किसी कारण से उसे तंग करे।

36) यहूदियों के तीस हज़ार आदमी राजकीय सेना में भरती किये जायेंगे और जैसा अन्य सभी सैनिकों के लिए निर्धारित है, उन्हें भी वेतन दिया जायेगा।

37) उन में कई लोग प्रमुख राजकीय क़िलों में नियुक्त किये जायेंगे और अन्य लोगों को विश्वासिक राजकीय पद दिये जायेंगे। उनके अध्यक्ष और अधिकारी उन्हीं में से चुने जायेंगे और जैसा राजा ने यूदा के लिए निश्चित किया है, वे अपने रीति-रिवाजों का पालन भी कर सकेंगे।

38) समारिया से अलग कर यहूदिया में मिलाये हुए तीनों जनपद यहूदिया प्रान्त का भाग माने जायेंगे और उनका एक ही अध्यक्ष होगा, जिससे वे केवल प्रधान याजक के अधीन होंगे।

39) मैं पतोलेमाइस और उसके आसपास की भूमि येरूसालेम के मन्दिर को भेंट-स्वरूप दे रहा हूँ, जिससे मन्दिर के आवश्यक ख़र्च का प्रबन्ध हो।

40) मैं स्वयं उपयुक्त स्थानों से प्राप्त राजस्व में से प्रति वर्ष चाँदी के पन्द्रह हज़ार शेकेल दूँगा।

41) मन्दिर को जो वार्शिक चन्दा मिलना चाहिए और जिसे अधिकारियों ने पिछले वर्षों नहीं दिया, वह फिर चुकाया जायेगा।

42) इसके अतिरिक्त चाँदी के पाँच हज़ार शेकेल की वह राशि, जो प्रति वर्ष मन्दिर से प्राप्त होती थी, सेवा करने वाले याजकों को प्रदान की जायेगी।

43) जो लोग राज्य-ऋण या अन्य कारण से येरूसालेम के मन्दिर और उसके सारे क्षेत्र में शरण ले चुके हैं, वे और मेरे राज्य में होने वाली उनकी सम्पत्ति सुरक्षित रहेगी।

44) मन्दिर बनाने और उसकी मरम्मत करने में जो कुछ लगेगा, वह राजकीय कोष से दिया जायेगा।

45) येरूसालेम की चारदीवारी के निर्माण और क़िलाबन्दी में जो कुछ लगेगा, वह भी राजकीय कोष से दिया जायेगा। यही बात यहूदिया की चार दीवारियों पर भी लागू होगी।

46) जब योनातान और जनता ने ये बातें सुनीं, तो उन्हें विश्वास नहीं हुआ। इसलिए उन्होंने इन्हें अस्वीकार कर दिया; क्योंकि वे यह नहीं भूले थे कि देमेत्रियस ने इस्राएल के साथ कैसा दुव्र्यवहार किया और उन्हें कितना सताया था।

47) उन्होंने सिकन्दर का पक्ष लेना अधिक उचित समझा, जिसने पहले मित्र होने का प्रस्ताव किया था और उन्होंने उसके जीवन भर उसका साथ दिया।

48) तब राजा सिकन्दर ने एक बड़ी सेना तैयार की और देमेत्रियस से युद्ध करने चला।

49) दोनों राजाओं की उड़ाई शुरू हो गयी। सिकन्दर की सेना भाग खड़ी हुई। देमेत्रियस ने उसका पीछा किया और उसे हरा दिया।

50) युद्ध सूर्यास्त तक चलता रहा, किन्तु अन्त में देमेत्रियस उसी दिन मारा गया।

51) इसके बाद सिकन्दर ने मिस्र के राजा पतोलेमेउस के पास दूतों द्वारा यह कहला भेजा:

52) “मैं अपने राज्य लौट आया और मुझे अपने पूर्वजों को राजसिंहासन प्राप्त हो गया। देमेत्रियस को हरा कर मैं यहाँ का शासक बन गया हूँ और हमारा देश अब मेरे हाथ आ गया है।

53) मैंने उसके विरुद्ध युद्ध किया और वह अपनी सेना के साथ पराजित हो गया। इसके बाद मैं उसके राजसिंहासन पर बैठ गया।

54) आइए, जब हम एक दूसरे के मित्र बन जायें। आप अपनी पुत्री का मेरे साथ विवाह कर दें। मैं आपका दामाद बनने का इच्छुक हूँ। मैं आप को और उसे भी आपके योग्य उपहार दूँगा।

55) राजा पतोलेमेउस ने यह उत्तर भेजा: “धन्य है यह दिन, जब आप अपने पूर्वजों के देश में लौट आये और उनके राज सिंहासन पर बैठे!

56) आपने जो लिखा है, मैं अब वही करूँगा। किन्तु आप पतोलेमाइस तक आयें, जिससे हम एक दूसरे से मिलें और मैं आपका ससुर बनूँ, जैसा आपने कहा है।“

57) पतोलेमेउस एक सौ बासठवें वर्ष अपनी पुत्री क्लेओपात्रा के साथ मिस्र से रवाना हुआ और पतोलेमाइस आया।

58) राजा सिकन्दर ने उस से भेंट की और उसने उसे अपनी पुत्री क्लेओपात्रा को दे दिया। उसने पतोलेमाइस में, राजाओं की प्रथा के अनुसार, बड़ी धूमधाम से विवाहोत्सव मनाया।

59) राजा सिकन्दर ने योनातान को पत्र लिखा, जिससे वह उस से मिलने आये।

60) तब वह धूमधाम से पतोलेमाइस आया और दोनों राजाओं से मिला। उसने उन्हें और उनके मित्रों को चाँदी-सोना और बहुत सारे उपहार दिये और वह उनका कृपापात्र बन गया।

61) उस समय इस्राएल के कुछ नीच और धर्मत्यागी लोग राजा से योनातान की शिकायत करने आये; किन्तु राजा ने उन पर ध्यान नहीं दिया,

62) बल्कि उसने आज्ञा दी कि यानातान अपने वस्त्र उतार कर बैंगनी वस्त्र धारण करे। ऐसा ही हुआ।

63) राजा ने उसे अपने पास बिठाया और अपने पदाधिकारियों से कहा, “इनके साथ नगर जाओ और वहाँ घोषणा करो कि कोई किसी मामले में इनकी शिकायत न करे और इन्हें किसी तरह कष्ट न पहुँचाये“।

64) जब उन लोगों ने, जो उस पर अभियोग लगाना चाहते थे, यह देखा कि उसका सम्मान किया जा रहा है, उसके लिए यह घोषणा हो रही है और उसे बैंगनी वस्त्र पहनाया गया है, तो वे सब चले गये।

65) राजा ने उसे सम्मानित किया और उसका नाम अपने घनिष्ठ मित्रों की सूची में लिखवाया। उसने उसे सेनापति और राज्यपाल बना दिया।

66) इसके बाद योनातान शान्ति और आनन्द के साथ येरूसालेम लौट गया।

67) एक सौ पैंसठवें वर्ष में देमेत्रियस का पुत्र देमेत्रियस क्रेत से अपने पूर्वजों के देश आया।

68) जब राजा सिकन्दर ने यह सुना, तो उसे बड़ा दुःख हुआ और वह अन्ताकिया लौट आया।

69) देमेत्रियस ने अपल्लोनियस को केले-सीरिया का राज्यपाल नियुक्त किया। उसने एक विशाल सेना एकत्रित की और यमनिया के निकट पड़ाव डाला। तब उसने प्रधानयाजक योनातान को यह कहला भेजा:

70) केवल आप हमारा विरोध कर रहे हैं। आपके कारण लोग मेरा उपहास और मेरी निन्दा करते हैं। आप पहाड़ी प्रान्तों पर अधिकार कर हमारा विरोध क्यों करते हैं?

71) यदि आप को अपनी सेना का गर्व है, तो आप मैदान में उतर आईए वहीं हम दोनों की शक्ति की परीक्षा हो। नगरों की सेना मेरे पक्ष में है।

72) पता कीजिए, आप को स्वयं मालूम हो जायेगा कि मैं कौन हूँ और हमारे सहायक कौन हैं। आपको बताया जायेगा की आप हमारे सामने नहीं टिक सकते। आपके पूर्वज अपने देश में ही दो बार पराजित हो चुके हैं।

73) आप हमारे घुड़सवारों और विशाल सेना के सामने मैदान में टिक नहीं सकेंगे। वहाँ न पत्थर है, न कंकड़ और न कहीं ऐसा स्थान जहाँ कोई भाग कर शरण लें“।

74) अपल्लोनियस की यह बात सुन कर योनातान घबरा गया। उसने दस हज़ार आदमियों के साथ येरूसालेम से प्रस्थान किया। उसका भाई सिमोन भी उसकी सहायता के लिए उसके पास गया।

75) योनातान ने याफ़ा के पास पड़ाव डाला। नगरवासियों ने फाटक बन्द कर दिये, क्योंकि अपल्लोनियस का एक दल याफ़ा के भीतर था।

76) जब योनातान ने उस पर आक्रमण किया, तो नगरवासियों ने डर कर फ़ाटक खोल दिये और योनातान ने याफ़ा पर अधिकार कर लिया।

77) यह सुनकर अपल्लोनियस तीन हज़ार घुड़सवार और एक विशाल सेना ले कर अज़ोत की ओर चल पड़ा, किन्तु वह वास्तव में मैदान की ओर बढ़ना चाहता था; क्योंकि उसे अपने बहुसंख्यक घुड़सवारों का भरोसा था।

78) योनातान अज़ोत तक उसका पीछा करता रहा और वहाँ दोनों सेनाओं में युद्ध आरम्भ हो गया।

79) अपल्लोनियस ने एक हज़ार घुड़सवार मार्ग में छोड़ दिये, जिससे वे पीछे से योनातान पर आक्रमण करें।

80) योनातान को इस बात का पता चला। उसकी सेना घिर गयी और सबेरे से शाम तक उसके आदमी बाणों का शिकार बनते रहे।

81) फिर भी, जैसा योनातान ने आदेश दिया था, उसके आदमी डटे रहे। (शत्रु के) घोड़ें थकने लगे।

82) इसी बीच सिमोन भी अपनी सेना ले कर आ पहुँचा और उसने पैदल सैनिकों पर आक्रमण किया। घोड़े भी थक चुके थे। सिमोन ने शत्रुओं को हरा दिया और वे भाग खड़े हुए।

83) घुड़सवार मैदान में तितर-बितर हो गये। भागने वाले सैनिकों ने अज़ोत पहुँच कर अपने देवालय में शरण ली।

84) योनातान ने अज़ोत और उसके आसपास के नगरों में आग लगा दी और उन्हें लूटा। दागोन का मन्दिर और उसके शरणार्थी जल कर राख हो गये।

85) तलवार से मारे गये और जलने वाले लोगों की संख्या सब मिला कर लगभग आठ हज़ार थी।

86) योनातान ने यहाँ से आगे बढ़ कर अशकलोन के निकट पड़ाव डाला। नगर के लोग बड़ी धूम-धाम से उस से मिलने आये।

87) लूट के माल से लदा योनातान अपने लोगों के साथ येरूसालेम लौट आया।

88) जब राजा सिकन्दर ने यह बात सुनी, तो उसने योनातान को और सम्मान देने का विचार किया।

89) उसने उसे सोने का एक बकसुआ दिया, जो केवल राजकीय सम्बन्धियों को दिया जाता था। इसके अतिरिक्त उसने उसे अक्करोन और उसके आसपास का भूभाग व्यक्तिगत सम्पत्ति के रूप में दे दिया।



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