1) योनातान ने देखा कि स्थिति उसके अनुकूल है; इसलिए उसने कुछ लोगों को चुन कर रोम भेजा, जिससे वह रोमियों के साथ मित्रता का संबंध फिर स्थापित करे।
2) उसने स्पार्तावासियों और अन्य स्थानों के लोगों को इस आशय से पत्र भेजे।
3) वे रोम आये और वहाँ उन्होंने परिषद् में यह कहा, "प्रधानयाजक योनातान और यहूदी लोगों ने हमें आपके पास भेजा हैं, जिससे हम आपके साथ मित्रता का संबन्ध फिर स्थापित करें और सन्धि करें"।
4) परिषद् ने उन्हें हर प्रदेश के अधिकारियों के नाम पत्र दिये, जिससे वे सकुशल यूदा पहुँचने में उसकी सहायता करें।
5) योनातान ने स्पार्तावासियों के नाम जो पत्र लिखा, उसकी प्रतिलिप इस प्रकार है:
6) "प्रधानयाजक योनातान, यहूदी परिषद, याजकों और यहूदी प्रजा का स्पार्ता के भाइयों को नमस्कार।
7) आज से पहले भी आप लोगों के राजा अरीयस ने प्रधानयाजक ओनियस को पत्र भेजा, जिसकी प्रतिलिपि इस पत्र के साथ-साथ भेजी जा रही है।
8) ओनियस ने उस दूत का सादर स्वागत किया था। उस से वह पत्र मिला था, जिस में संधि और मित्रता का प्रस्ताव किया गया था।
9) यह सच है कि हमें इस प्रकार के संबंध की आवश्यकता नहीं हैं, क्योंकि हमारे हाथ में जो धर्मग्रंथ विद्यमान हैं, उस में हमें सान्त्वा मिलती है।
10) फिर भी हमने दूत भेज कर संधि और मित्रता फिर स्थापित करने का प्रयत्न किया, जिससे हम आपकी दृष्टि में पराये न हो जायें; क्योंकि आपके पिछले पत्र के बाद बहुत समय बीत गया है।
11) हम महापर्वों और अन्य निश्चित दिवसों पर अपने बलिदानों और प्रार्थनाओं में सदा आप लोगों को याद करते हैं, जैसे अपने भाइयों का स्मरण करना उचित और आवश्यक है।
12) हमें आपकी महिमा का गर्व है।
13) इस बीच हमारे बुरे दिन आये; हम पर अनेक आक्रमण हुए और हमारे पड़ोसी राजाओं ने हम से युद्ध किया।
14) लेकिन इन लडाइयों में हमने अपने संधिबद्ध मित्रों को कष्ट नहीं देना चाहा;
15) क्योंकि हमारी सहायता का स्रोत ईश्वर था, वहीं से हमें सहायता मिलती रही। अब हम अपने शत्रुओं से मुक्त हो गये। हमारे शत्रुओं को नीचा दिखाया गया।
16) इसलिए हम अंतियोख के पुत्र नूमेनियस और यासोन के पुत्र अंतीपातेर को चुन कर रोमियों के यहाँ भेज रहे हैं, जिससे वे वहाँ जा कर उनके साथ संधि और मित्रता का संबंध पहले की तरह स्थापित करें।
17) हमने उन्हें आदेश दिया है कि वे आप लोगों के पास भी जायें, आप को नमस्कार करें और हमारा पत्र आप को दें, जिस में सन्धि के नवीनीकरण और मित्रता का संबंध फिर स्थापित करने का प्रस्ताव हैं।
18) आप इसका उत्तर देने की कृपा करें।"
19) उन्होंने जो पत्र ओनियस को भेजा, उसकी प्रतिलिपि इस प्रकार है:
20) "स्पार्तावासियों के राजा अरीयस का महायजक ओनियस को प्रमाण।
21) स्पार्तावासियों और यहूदियों के संबंध में एक अभिलेख से मालूम होता हैं कि दोनों भाई हैं और दोनों इब्राहीम के वंशज हैं।
22) जब हम लोग यह जानते हैं, तो आपकी हम पर बड़ी कृपा होगी, यदि आप अपने कुशल-क्षेम के विषय में हमें पत्र देंगे।
23) हम आप से यह कहते है कि आपके पशु और आपकी संपत्ति हमारी है और जो कुछ हमारा है, वह आपका है। हम यह आदेश देते हैं कि आप को इसकी सूचना दी जाये।"
24) योनातान ने सुना कि देमेत्रियस के सेनापति पहले से भी बड़ी सेना ले कर उस से लडने आ रहे हैं।
25) इस पर वह येरूसालेम से चल पड़ा और हमात प्रदेश में उनका सामना करने गया। वह उन्हें अपने देश में पैर रखने का अवसर नहीं देना चाहता था।
26) उसने उनके पड़ाव में गुप्तचर भेजा, जिन्होंने लौट कर बताया कि वे यहूदियों पर इसी रात आक्रमण करने की तैयारियाँ कर रहे हैं।
27) योनातान ने सूर्यास्त के बाद अपने आदमियों को आदेश दिया कि वे जगे रहें और सारी रात अस्त्र-शस्त्र से लैस लडने को तैयार बैठे रहें। उसने पड़ाव के आसपास पहरे बिठा दिये।
28) जब शत्रुओं ने देखा कि योनातान और उसके आदमी युद्ध के लिए तैयार हैं, तो वे भयभीत और निरुत्साह हो गये और उन्होंने अपने पड़ाव में जगह-जगह आग जलायी।
29) योनातान और उसके आदमियों को सबेरे तक यह पता नहीं चला कि शत्रु खिसक गये हैं; क्योंकि वे आग जलते देखते रहें।
30) योनातान ने उनका पीछा किया, किंतु वह उन्हें पकड नहीं पाया; क्योंकि वे एलूथरस नदी के पार जा चुके थे।
31) इसलिए योनातान उन अरबों की ओर चल पडा, जो ज़बादी कहलाते हैं। उसने उन्हें हरा दिया और लूटा।
32) वह पड़ाव उठा कर दमिश्क पहुँचा और उसने उस समस्त प्रदेश का भ्रमण किया।
33) उधर सिमोन भी चल कर अशकलोन और उसके आसपास के गढों तक आ पहुँचा था। फिर उसने याफ़ा की ओर मुड कर उस पर अधिकार कर लिया;
34) क्योंकि उसने यह सुना था कि वहाँ के निवासी वह गढ देमेत्रियस के लोगों को देना चाहते हैं। इसलिए उसने उसकी रक्षा करने के लिए वहाँ एक सेना-दल रख दिया।
35) योनातान ने लौट कर जनता के नेताओं की एक सभा बुलायी और यह निश्चय किया कि यहूदिया के गढ़ों का पुनर्निर्माण किया जाये,
36) येरूसालेम की दीवार और ऊँची कर दी जाये तथा गढ़ और नगर के बीच एक बड़ी ऊँची दीवार उठायी जाये, जिससे गढ़ नगर से एकदम अलग हो जाये, और वहाँ बसने वाले लोग नगर में न कुछ खरीद सकें और न बेच सकें।
37) उन्होंने मिल कर नगर का पुनर्निर्माण किया, क्योंकि नाले वाली दीवार का, जो पूर्व की ओर थी, एक भाग गिर गया था। उसने खफेनाथा नाम के मुहल्ले की भी मरम्मत करायी।
38) सिमोन ने भी निचले प्रदेश के अदीदा का निर्माण किया और उस सुदृढ़ बनाया उसने उस में फाटक और अर्गलाएँ लगायीं।
39) त्रीफ़ोन एशिया का राजा बनना, अपने सिर पर मुकुट पहनना और राजा अन्तियोख का वध करना चाहता था।
40) किन्तु यह सोच कर कि योनातान उसे ऐसा नहीं करने देगा और सम्भवतः उसके विरुद्ध युद्ध करेगा उसने उसे बन्दी बनाने और उसे मार डालने की योजना बनायी। इसलिए वह चल कर बेत-शान आ पहुँचा।
41) योनातान उसका सामना करने के लिए चालीस हज़ार चुने हुए योद्धा ले कर बेत-शान गया।
42) त्रीफोन ने जब देखा कि वह इतनी बड़ी सेना ले कर उस से मिलने आया है, तो उसे उस पर आक्रमण करने का संकोच हुआ।
43) त्रीफ़ोन ने उसका आदरपूर्वक स्वागत किया, अपने मित्रों से उसका परिचय कराया, उसे उपहार दिये और अपने सभी मित्रों एवं अपनी सेना को आदेश दिया, “तुम लोग मेरी बात की तरह योनातान की बात भी मानो।“
44) उसने योनातान से कहा, “आपने इतने लोगों को क्यों कष्ट दिया, जब कि हम दोनों में कोई युद्ध नहीं है?
45) लोगों को अपने-अपने घर भेज दें। अपना साथ देने के लिए कुछ आदमी चुन लें और मेरे साथ पतोलेमाइस चले। मैं वह नगर और अन्य गढ़, शेष सैनिक और सभी पदाधिकारी आपके हाथ दूँगा और इसके बाद मैं घर लौट जाऊँगा। मैं तो इसलिए यहाँ आया ही हूँ।“
46) योनातान ने उस पर विश्वास कर लिया और जैसा उसने कहा था, वैसा ही किया। उसने अपने सैनिकों को चले जाने का आदेश दिया कि वे यूदा देश लौट जायें
47) उसने केवल तीन हजार आदमियों को अपने पास रखा। उसने उन मे दो हजार को गलीलिया में रखने का निश्चिय किया और एक हजार को अपने साथ ले जाने का।
48) योनातान ने जैसे ही पतोलेमाइस में प्रवेश किया, पतोलेमाइसवासियों ने फाटक बंद कर दिये। उन्होंने उसे पकड़ लिया और उन सब को तलवार के घाट उतार दिया, जो उसके साथ अंदर आये थे।
49) इसके बाद त्रीफोन ने सैनिकों और घुडसवारों को गलीलिया और बड़े मैदान की ओर भेजा, जिससे वे वहाँ योनातान के सब आदमियों का विनाश कर दें
50) उधर उन लोगों ने यह सुना कि योनातान बंदी बना लिया गया हैं और अपने आदमियों के साथ उसका वध कर दिया गया है। तब वे एक दूसरे को प्रोत्साहन देते हुए शत्रु का सामना करने के लिए पंक्तिबद्ध खडे़ हो गये।
51) जिन्होंने उनका पीछा किया, वे यह देख कर लौट गये कि यहूदी अपनी प्राण-रक्षा के लिए लड़ने के लिए तैयार हैं।
52) इस प्रकार सभी यहूदी सकुशल यूदा लौट आये। उन्होंने योनातान और उसके आदमियों के लिए विलाप किया। वे बहुत भयभीत थे। समस्त इस्राएल ने महान् शोक मनाया।
53) आसपास जितनी अन्य जातियाँ थीं, वे सब यहूदियों का विनाश करना चाहती थीं।
54) वे कहती थीं "उसका न तो कोई नेता हैं और न कोई सहायक। अब हम उन से लडेंगी और मनुष्यों बीच से उनका नाम तक मिटा देंगी।"