1) तब यूदाह ने रोमियों के विषय में सुना कि वे शक्तिशाली हैं, अपने पक्ष में रहने वालों के हितैषी हैं और अपने से मिलने वालों से मैत्रीपूर्ण संधि करते हैं।
2) उसे गौल में उनकी लडाइयों और उनकी वीरता के संबंध में भी बताया गया और किस प्रकार उन्होंने वहाँ के लोगों को अपने अधीन कर लिया और उन्हें कर देने के लिए बाध्य किया।
3) उसने यह भी सुना कि उन्होंने सोने और चाँदी की खानों को अपने अधिकार में करने के लिए स्पेन में क्या किया था।
4) यद्यपि वह देश उन से दूर था, उन्होंने अपने कौशल और निरंतर प्रयत्न द्वारा उसे अपने अधीन कर लिया। पृथ्वी के सीमांतों से राजा उनके विरुद्ध लडने आये थे, लेकिन उन्होंने उन्हें बुरी तरह पराजित किया, उनका विनाश कर डाला और अन्य राजाओं को वार्षिक कर देने को बाध्य किया।
5) कित्तियों के राजा फ़िलिप और उसके पुत्र परसूस तथा जिन्होंने उनके विरुद्ध विद्रोह किया, वे सब हार गये और उनके अधीन हो गये।
6) अंतियोख महान् जो एशिया का महाराजा था और जो एक सौ बीस हाथियों, घुडसवारों, रथों और विशाल सेना के साथ उन से युद्ध करने आया था, उनके द्वारा पराजित किया गया
7) और जीवित ही उनके हाथ आ गया था। उसे तथा उसके उत्तराधिकारियों को बहुत अधिक कर चुकाना पड़ा था और उसे बंधक के रूप में आदमियों को रखना पड़ा था।
8) उन्होंने भारत का क्षेत्र, मेदिया, लीदिया और उसके राज्य के कुछ उत्तम भूभाग उस से छीन कर राजा यूमेनस को दे दिये थे।
9) उसने यह भी सुना कि यूनानी उसका सर्वनाश करने चले थे, लेकिन जब उन्हें उनका यह उद्देश्य मालूम हुआ, तो उन्होंने अपने एक सेनापति को यूनानियों के विरुद्ध भेज कर उन से युद्ध आरंभ कर दिया।
10) यूनानियों में कितने ही लोग मारे गये, उनकी पत्नियों और उनके बच्चों को बंदी बनाया गया, उन्हें लूटा गया और उनका देश रोमियों के हाथ चला गया। उनके गढ़ ध्वस्त कर दिये गये और वे स्वयं अधीन हो गये, जैसी आज तक उनकी स्थिति बनी हुई है।
11) जो अन्य राज्य और द्वीप उसका सामना करते थे, उन्होंने उन्हें हराया और अपने अधीन कर लिया, किंतु वे अपने मित्रों के प्र्रति और उनके साथ, जो उन पर निर्भर रहते थे, मैंत्रीपूर्ण व्यवहार करते थे।
12) उन्होंने निकट और दूर के राजाओं को अपने अधीन कर लिया। लोग उनका नाम सुन कर भयभीत होते हैं।
13) वे जिन्हें सँभालते और राज्य करते रहने देते हैं, केवल वही राज्य कर सकते हैं। वे यदि ऐसा नहीं चाहते तो उन्हें अपदास्थ करते है। वे अत्यंत शक्तिशाली हैं।
14) इन सारी बातें के बावजूद उन में एक भी ऐेसा नहीं निकला, जिसने अपने सिर पर राजकीय मुकुट पहनना चाहा या अपने बड़प्पन का प्रदर्शन करने के लिए कभी राजकीय बैंगनी वस्त्र पहने हों।
15) उनके यहाँ एक परिषद् हैं, जिस में प्रतिदिन तीन सौ बीस सभासद जनता की भलाई के लिए विचार-विमर्श करते हैं।
16) वे प्रति वर्ष एक व्यक्ति को लोगों पर शासन करने को नियुक्त करते हैं, जिससे वह देश भर का शासक हो। सब केवल उसी व्यक्ति की बात मानते हैं। उन में आपस में ईर्ष्या और द्वेष का नाम नहीं है।
17) यूदाह ने योहन के पुत्र, अक्कोस के पौत्र यूपोलेमस को और एलआजार के पुत्र यासोन को चुन कर मित्रता और संपर्क स्थापित करने के लिए रोम भेजा।
18) उसका विचार यह था: जब रोमी सुनेंगे कि यूनानियों का राज्य इस्राएल को दास बना कर हमारा शोषण करता है, तो वे हम पर से उनका जूआ हटायेंगे।
19) वे बड़ी लंबी यात्रा कर रोम पहुँचें और वहाँ परिषद में उपस्थित किये गये।
20) उन्होंने पूछने पर यह बतायाः "यूदाह, जो मक्काबी कहा जाता है, उसके भाइयों और यहूदी जनता ने हमें आपके साथ संपर्क और संधि स्थापित करने आपके यहाँ भेजा है। हम आप लोगों का संधिबद्ध राष्ट्र और आपका मित्र बनना चाहते हैं।"
21) उन्होंने यह प्रस्ताव पंसद किया।
22) उस लेख की प्रतिलिपि यह है, जिसे उन्होंने काँसे के पत्थरों पर अंकित कर येरूसालेम भेजा, जिससे वह वहाँ इस संधि और सपंर्क के प्रमाण के रूप में बना रहे।
23) "रोमी और यहूदी समुद्र में और पृथ्वी पर सदा सकुशल रहे! शत्रु और तलवार उन से दूर रहें।
24) यदि कोई रोमियों या उनके साम्र्राज्य से संबंद्ध लोगों पर आक्रमण करेगा,
25) तो यहूदी, जहाँ तक सम्भव होगा, सारे हृदय से लडाई में उनका साथ देंगे।
26) जैसा रोमी उचित समझें, वे उनके शत्रुओं को न तो अन्न देंगे, न शस्त्र, न पैसा न नावें। उन्हें बिना कुछ लिये अपनी शर्त पूरी करनी होगी।
27) यदि कोई यहूदियों पर आक्रमण करेगा, तो जहाँ तक संभव होगा, रोमी उनकी सहायता सारे हृदय से करेंगे।
28) आक्रमणकारी को न तो अन्न दिया जायेगा, न शस्त्र, न पैसा और न नावें। रोम का निर्णय यही है। वे भी बिना कुछ लिये ये शर्ते पूरी करेंगे।
29) "रोमियों ने यहूदियों से इन्ही शब्दों में संधि की।
30) यदि कोई पक्ष इन बातों में कुछ घटाना-बढ़ाना चाहे, तो वह अपने इच्छानुसार ऐसा कर सकता हैं और उसका बढ़ाना-घटना मान्य समझा जायेगा।
31) हमने राजा देमेत्रियस को उसके द्वारा यहूदियों को पहुँचायी क्षति के संबंध में यह लिखा-’तुमने हमारे मित्र और संधिबद्ध यहूदियों के कंधे पर इतना भारी जुआ क्यों रख दिया?
32) यदि उन्हें तुम्हारे संबंध में फिर कोई शिकायत होगी, तो हम उनके अधिकारों की रक्षा करेंगे और तुम से समुद्र और पृथ्वी पर लडेंगे।"