📖 - मक्काबियों का पहला ग्रन्थ

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अध्याय 06

1) जब अंतियोख पहाड़ी प्रांतों का दौरा कर रहा था, तो उसने सुना कि फारस देश का एलिमईस नगर अपनी संपत्ति और सोना-चाँदी के लिए प्रसिद्ध है।

2) और यह कि वहाँ का मंदिर अत्यंत समृद्ध है और उस में वे स्वर्ण ढाले, कवच और अस्त्र-शस्त्र सुरक्षित हैं, जिन्हें फिलिप के पुत्र सिंकदर, मकूदूनिया के राजा और यूनानियों के प्रथम शासक, ने वहाँ छोड दिया था।

3) इसलिए वह उस नगर पर अधिकार करने और उसे लूटने के उद्देश्य से चल पडा, किंतु वह ऐसा नहीं कर पाया; क्योंकि नागरिकों को उस अभियान का पता चल गया था।

4) उन्होंने हथियार ले कर उसका सामना किया और उसे भागना पड़ा। उसने दुःखी हो कर वहाँ से बाबुुल के लिए प्रस्थान किया।

5) वह फारस में ही था, जब उसे यह समाचार मिला कि जो सेना यहूदिया पर आक्रमण करने निकली थी, वह पराजित हो कर भाग रही है।

6) लीसियस एक विशाल सेना ले कर वहा गया था, किंतु उसे यहूदियों के सामने से पीछे हट जाना पडा। अब यहूदी अपने अस्त्रों, अपने सैनिकों की संख्या और पराजित सेनाओं की लूट के कारण शक्तिशाली बन गये थे।

7) उन्होंने येरूसालेम की होम-वेदी पर अन्तियोख द्वारा स्थापित घृणित मूर्ति को ढाह दिया, पहले की तरह मंदिर के चारों ओर ऊँची दीवार बनवायी और उसके नगर बेत-सूर की भी किलाबंदी की।

8) राजा यह सुन कर चकित रह गया वह बहुत घबराया, पलंग पर लेट गया और दुःख के कारण बीमार हो गया; क्योंकि वह जो चाहता था, वह नहीं हो पाया था।

9) वह इस तरह बहुत दिनों तक पड़ा रहा, क्योंकि एक गहरा विषाद उस पर छाया रहा। तब वह समझने लगा कि वह मरने को है

10) और उसने अपने सब मित्रों को बुला कर उन से कहा, "मुझे पर दुःख का कितना बड़ा पहाड टूट पड़ा है! मैं तो अपने शासन के दिनों में दयालु और लोकप्रिय था’।

11) मैंने पहले अपने मन में कहा, मैं कितना कष्ट सह रहा हूँ ओर मुझ पर दुःख का कितना बड़ा पहाड़ टूट पड़ा है। मैं तो अपने शासन के दिनों दयालु और लोकप्रिय था।

12) किंतु अब मुझे याद आ रहा है कि मैंने येरूसालेम के साथ कितना अत्याचार किया- मैं वहाँ के चाँदी और सोने के पात्र चुरा कर ले गया और मैंने अकारण यूदा के निवासियों को मारने का आदेश दिया।

13) मुझे लगता है कि मैं इसी से कष्ट भोग रहा हूँ और गहरे शोक के कारण यहाँ विदेश में मर रहा हूँ"

14) उसने अपने मित्र फ़िलिप को बुलाया और उसे अपने समस्त राज्य का प्रधान नियुक्त किया।

15) उसने उसे अपना मुकुट, अपने राजकीय वस्त्र तथा अपनी अंगूठी दी और उसे अपने पुत्र अंतियोख को सुयोग्य राजा बनने की शिक्षा दिलाने को कहा।

16) राजा अंतियोख की मृत्यु एक सौ उनचासवें वर्ष में हुई।

17) इधर जब लीसियस ने सुना कि राजा की मृत्यु हो गयी है, तो उसने उसके पुत्र अंतियोख को राजगद्दी पर बैठाया। उसने बचपन से उसकी शिक्षा का प्रबंध किया था और अब उसने उसका नाम यूपातोर रखा।

18) येरूसालेम के गढ़ के लोग मंदिर के आसपास के इस्राएलियों को तंग करते, हर समय उन को हानि पहुँचाते और गैर-यहूदियों की सहायता करते थे।

19) इसलिए यूदाह ने उसका विनाश करने का निश्चय किया और उन्हें घेरने के लिए सब लोगों को इकट्ठा किया।

20) लोग आये और उन पर घेरा डाल दिया। जब एक सौ पचासवाँ वर्ष चल रहा था। शिला-प्रक्षेपक और अन्य यंत्र तैयार किये गये;

21) किंतु घिरे हुए लोगों में कुछ निकल कर भाग गये।

22) इस्राएल के कुछ विधर्मी लोगों ने उनका साथ दिया और राजा के पास जा कर कहा, "हमें न्याय दिलाने और हमारे भाईयों का प्र्रतिशोध लेने में आप कब तक देर करेंगे?

23) हम आपके पिता के विश्वस्त सेवक रह चुके है और उनके सभी आदेशों का पालन करते आये है।

24) इसलिए हमारी जाति के लोगों ने हमें घेर लिया है और हमारे शत्रु बन गये है। हम में से जो भी उन्हें मिल जाता है, वे उसे मार डालते हैं। हमारी संपत्ति लूट ली गयी है

25) और उन्होंने न केवल हम पर, बल्कि आपके अधीन के क्षेत्रों पर भी आक्रमण किया।

26) वे अब येरूसालेम के गढ पर अधिकार करने के लिए उस पर घेरा डाले हुए हैं और उन्होंने मंदिर और बेतसूर को किलाबंद किया है।

27) यदि आप उन्हें जल्द ही नहीं रोकेंगे, तो वे आगे न जाने क्या कर बैठेंगे। फिर वे आपके वश के नहीं रहेंगे।"

28) यह सुन कर राजा क्रुद्ध हो उठा उसने अपने सभी मित्रों, सेनापतियों और रसद के अधिकारियों को बुला भेजा।

29) अन्य राजाओं और समुद्र के द्वीपों से भी उसके यहाँ किराये के सौनिक आये।

30) उसके सैनिक बल में एक लाख पैदल सैनिक, बीस हजार घुड़सवार और बत्तीस युद्धकुशल हाथी थे।

31) वे इदुमैया होते हुए आगे बढा और उन्होंने बेत-सूर के सामने पड़ाव डाला। वे बहुत दिनों तक यंत्रों के सहारे उनके विरुद्ध युद्ध करते रहे। किंतु जो लोग घिर पडे थे, वे निकल कर टूट पडते और यंत्र जलाते। वे वीरतापूर्वक लड़ते रहे।

32) यूदाह ने गढ़ से चल कर बेत-जकर्या के पास राजा के पड़ाव के सामने पड़ाव डाला।

33) दूसरे दिन सुबह होते ही राजा ने सेना को बेत-जकर्या की ओर प्रस्थान करने का आदेश दिया। वहाँ दोनों सेनाएँ पंक्तिबद्ध खड़ी कर दी गयी और तुरहियाँ बजने लगी।

34) हाथियों को दाखरस और जैतून के रस द्वारा युद्ध के लिए उत्तेजित किया गया।

35) वे हाथी सेना के विभिन्न जत्थों में बाँटे गये। एक-एक हाथी के साथ पाँच सौ घुडसवारों के अतिरिक्त एक हजार सैनिक खडे़ किये गये, जो कवच और काँसे के टोप पहने थे।

36) घुड़सवार हाथी के आगे-आगे चलते थे और जहाँ वह जाता था, वे उसके साथ-साथ जाते थे और सदा उसके पास रहते थे।

37) सुरक्षा के लिए प्रत्येक हाथी की पीठ पर लकडी का एक मजबूत हौदा बँधा था और प्रत्येक के ऊपर तीन-तीन सशस्त्र सैनिक और एक भारतीय महावत था।

38) शेष घुड़सवारों को सेना के दोनों छोरों पर खडा कर दिया गया। वे बीच-बीच में शत्रु पर छापा मारते और दलों की रक्षा करते थे।

39) जब सूर्य कि किरणें सोने और काँसे की ढालों पर चमकती, तो पर्वत उन से जगमगाने लगते। ऐसा लगता कि वहाँ मशाले जल रही हों।

40) राजकीय सेना का एक दल पहाडियों पर और दूसरा मैंदान में था। वे सुव्यवस्थित रूप से आगे की ओर बढते थे।

41) जो कोई आती हुई भीड़ का कोलाहल और शस्त्रों की झंकार सुनता, वह घबरा जाता था। सेना बहुत बड़ी और शक्तिशाली थी।

42) यूदाह अपनी सेना के साथ आक्रमण करने आगे बढ़ा और राजा की सेना के लगभग छः सौ आदमी मारे गये।

43) तभी एलआजार अवरन की दृष्टि राजकीय कवच पहने सबसे से बड़े हाथी पर पड़ी। इसलिए उसने सोचा कि राजा उसी पर सवार है।

44) तब वह अपनी जाति की रक्षा करने और अपना नाम अमर करने के लिए प्राण न्योछावर करने को तैयार हो गया।

45) वह दल के बीच में साहसपूर्वक अपने दायें-बायें के सौनिकों पर प्रहर करते हुए उस पशु की ओर बढा।

46) उसने हाथी के नीचे जा कर और उसके पेट में शस्त्र मार कर उसका वध किया। हाथी उसके ऊपर आ गिरा और इस तरह वह भी वही दब कर मर गया।

47) यहूदी राजकीय सेना की शक्ति और उत्साह देख कर पीछे हट गये।

48) इसके बाद राजकीय सेना उन से लडने के लिए येरूसालेम तब आ पहुँची। राजा यहूदिया और सियोन पर्वत पर आक्रमण की तैयारियाँ करने लगा।

49) इसी बीच राजा ने बेत-सूर के लोगों से संधि कर ली। वे नगर के बाहर आ गये। उन दिनों देश का विश्राम-वर्ष चल रहा था, इसलिए उनके पास खाद्य सामग्री की कमी थी और वे अधिक दिन वहाँ घेरे में नहीं रह सकते थे।

50) इसलिए राजा ने बेत-सूर पर अधिकार कर लिया और उसे एक दल की निगरानी में रख दिया।

51) वह बहुत दिन तक मंदिर पर घेरा डाले रहा, उसके सामने मंच और यंत्र लगाये, जो आग, पत्थर और वाण फेंकते थे और गोफान-जैसे यंत्र भी लगाये।

52) इधर घेरे में पडे़ हुए लोगों ने भी उनके विरुद्ध यंत्र लगाये और इस तरह लडाई बहुत दिनों तक चलती रही।

53) भण्डारों में खाद्य-समाग्री समाप्त हो गयी; क्योंकि सातवाँ वर्ष चल रहा था और गैर-यहूदियों के यहाँ से आये यहूदियों ने रसद खाया था।

54) अब मंदिर के पास थोड़े ही सैनिक रह गये थे, क्योंकि जब वे भूख से छटपटाने लगे, तो वे अपने-अपने घर लौट गये।

55) लीसियस को पता चला कि फ़िलिप, जिसे राजा अंतियोख ने मरते समय अपने पुत्र अंतियोख को सुयोग्य राजा बनने की शिक्षा दिलाने को कहा,

56) फारस और मोदिया से लौट आया है और उसके साथ वह सेना भी हैं, जो राजा के साथ गयी थी। उसने यह भी सुना कि वह राज्य पर अधिकार कर लेना चाहता है।

57) इसलिए लीसियस शीघ्र ही वहाँ से चले जाने की तैयारियाँ करने लगा। उसने राजा, सेनापतियों और सैनिकों से कहा, हम प्रतिदिन कमजोर पड़ते जा रहे हैं, दिन-पर-दिन सामग्री कम होती जा रही है और यह जगह, जिसका हम घेरा कर रहे हैं, बहुत सुदृढ़ है।

58) इसलिए हम इन लोगों से हाथ मिला कर इन से और इस समस्त राष्ट्र से संधि क्यों न कर लें?

59) हम उन्हें यह अनुमति दे कि वे पहले की तरह, अपने रीति-रिवाजों के अनुसार जीवन बितायें; क्योंकि हमने उनके रीति-रिवाजों को समाप्त करने का प्रयत्न किया और इस कारण उनका क्रोध भडक उठा और उन्होंने विद्रोह किया।"

60) राजा और सेनापति यह प्रस्ताव मान गये। राजा ने उनके पास संधि का संदेश भेजा और वे लोग राजी हो गये।

61) जब राजा और सेनापतियों ने उन्हें शपथपूर्वक वचन दिया, तो वे गढ़़ से बाहर आये।

62) तब राजा सियोन पर्वत गया। उसने उस स्थान की किलाबंदी देख कर अपनी शपथ भंग कर दी और आदेश दिया कि चारदीवारी गिरा दी जाये।

63) इसके बाद वह जल्द ही वहाँ से अंताकिया की ओर चल पडा। वहाँ उसने देखा कि फ़िलिप नगर का अध्यक्ष बन गया है। इसलिए वह, उस पर टूट पड़ा और बलपूर्वक नगर पर अधिकार कर लिया।



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