1) पुत्र! मेरी प्रज्ञा पर ध्यान दो, मेरी शिक्षा कान लगा कर सुनो,
2) जिससे तुम विवेकशील बने रहो और तुम्हारे होंठ ज्ञान की बातें बोलें।
3) व्यभिचारिणी के होंठों से मधु चूता है और उसकी वाणी तेल से भी चिकनी है।
4) किन्तु अन्त में वह चिरायते-जैसी कड़वी और दुधारी तलवार-जैसी तेज होती है।
5) उसके पैर मृत्यु की ओर बढ़ते हैं और उसके कदम अधोलोक की ओर।
6) वह जीवन के मार्ग का ध्यान नहीं रखती, उसके पथ टेढ़े-मेढ़े हैं और उसे इसका पता नहीं।
7) पुत्र! मेरी बात सुनो! मेरी शिक्षा की उपेक्षा मत करो।
8) उस से दूर रहो, उसके घर की देहली पर पैर मत रखो।
9) कहीं ऐसा न हो कि तुम अपनी मर्यादा खो बैठो और अपना जीवन उस निर्दय को अर्पित करो।
10) ऐसा न हो कि पराये लोग तुम्हारी सम्पत्ति से तृत्त हों; अपरिचित का घर तुम्हारे परिश्रम से लाभ उठाये
11) और जब तुम्हारा हाड़-मांस घुल गया हो, तो तुम्हें जीवन के अन्त में रोना पड़े।
12) तब तुम कहोगे, "मैंने अनुशासन से घृणा क्यों की? मेरे हृदय ने परामर्श का तिरस्कार क्यों किया?
13) मैंने अपने गुरुओं की वाणी पर ध्यान क्यों नहीं दिया? मैंने शिक्षकों की बातों पर कान क्यों नहीं दिया?
14) मैं समस्त समुदाय की सभा के सामने सर्वनाश के कगार पर पहुँच गया हूँ।"
15) अपने ही कुण्ड का पानी पियो, अपने ही कुएँ के बहते स्त्रोत से।
16) क्यों तुम्हारे जलस्त्रोत घर के बाहर, तुम्हारी जलधाराएँ सड़को पर बहें?
17) इन पर तुम्हारा ही अधिकार है। इन में तुम्हारे साथ किसी पराये की साझेदारी नहीं।
18) तुम्हारे जलस्त्रोत को आशीर्वाद प्राप्त हो। तुम अपनी युवावस्था की पत्नी,
19) उस सुन्दर हिरनी, उस रमणीय मृगी से सुखी रहो उसका प्रेमस्पर्श तुम को तृप्ति प्रदान करता रहे, उसका प्रेम तुम को मोहित करता रहे।
20) पुत्र! क्यों तुम व्यभिचरिणी पर मोहित होते हो? क्यों तुम परस्त्री को गले लगाते हो?
21) प्रभु प्रत्येक के आचरण का निरीक्षण करता और उसके सभी मार्गो की जाँच करता है।
22) दुष्ट अपने ही कुकर्मो के जाल में फँसता है; वह अपने ही पापों के बन्धनों से बँधता है।
23) वह अनुशासन की कमी से मर जायेगा, उसकी अपनी मूर्खता उसका विनाश कर देगी।