📖 - अय्यूब (योब) का ग्रन्थ

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अध्याय 30

1) जो उम्र में मुझ से छोटे है, जिनके पिताओं को मैं अपनी भेड़ें चराने वाले कुत्तों की श्रेणी में भी रखना नहीं चाहता था, वे अब मेरा उपहास करते हैं!

2) मुझे उनके हार्थों के काम से क्या लाभ होता? उनकी शक्ति एकदम समाप्त हो गयी थी।

3) वे अभाव और भूख के कारण सूख कर काँटे हो गये थे। वे रात को उजाड़ भूमि में खाने की खोज में भटकते थे।

4) वे झुरमुटों में लोनिया साग तोड़ते और झाड़ियों की जड़े खाते थे।

5) वे चोरों की तरह दुतकारे और अपनी जाति-भाइयों द्वारा बहिष्कृत किये गये थे।

6) उन्हें घाटियों के संकरे दर्रों में, पृथ्वी की खोहों और गुफाओं में रहना पड़ता था।

7) वे झाडियों के नीचे से गुर्राते और झुरमुटों के बीच इकट्ठे बैठते थे।

8) वे कुख्यात और गुमनाम के वंशज थे, उन्हें मार-मार कर देश से निकाला गया था।

9) अब उनके पुत्र मेरी निंदा के गीत गाते और मुझे ताना मारते हैं।

10) वे मुझ से घृणा करते, मुझ से कन्नी काटते और मेरे मुँह पर थूकने से नहीं हिचकते।

11) मैं ईश्वर के बाण से मारा गया, इसलिए वे मेरे साथ मनमाना व्यवहार करते हैं।

12) वे झुण्ड में मेरी बगल में खड़े हो जाते, मेरे पैरों के लिए जाल बिछाते और मुझ पर आक्रमण की तैयारियाँ करते हैं।

13) वे मेरा मार्ग बंद करते और मेरा विनाश करने का प्रयास करते हैं। मेरी सहायता करने कोई नहीं आता।

14) वे मानों चारदीवारी की दरार से आ कर खंडहरों के बीच से मुझ पर टूट पड़ते हैं।

15) आतंक मुझे घेर लेता है, मेरा आत्मविश्वास मानो हवा से उड़ा दिया गया, मेरी सुख-शांति बादल की तरह लुप्त हो गयी।

16) अब मेरे प्राण निकल रहे हैं, कष्ट के दिन मुझे घेरे रहते हैं।

17) मेरी हड्डियाँ रात भर रौंदी जाती है। पीड़ा मुझे सोने नहीं देती।

18) वह बलपूर्वक मेरा कुरता कस का पकड़ता है, वह गरदनी की तरह मुझे जकड़ता है।

19) उसने मुझे कीचड में पटक दिया, मैं मुट्ठी भर धूल और राख बन गया हूँ।

20) मैं तेरी दुहाई देता, किंतु तू नहीं सुनता; मैं तेरे सामने खड़ा रहता, किंतु तू मेरी ओर नहीं देखता।

21) तू मेर साथ कठोर व्यवहार करता और पूरी शक्ति से मुझे थप्पड़ मारता है।

22) तू मुझे उठा कर हवा में उड़ाता और मुझे आँधी में उछाल देता है।

23) मैं जानता हूँ- तू मुझे मृत्यु के हाथ देगा, वहाँ पहुँचा देगा, जहाँ सब जीवितों को जाना है।

24) मैंने दरिद्र पर हाथ नहीं उठाया, जब वह अपनी विपत्ति में मेरी दुहाई देता था।

25) क्या मैंने दुखियों के साथ शोक नहीं मनाया, दरिद्रों के प्रति सहानुभूति नहीं दिखायी?

26) मैं सुख-शांति की राह देखता रहा, किंतु मुझे दुर्भाग्य मिला; मैं ज्योति की प्रतीक्षा करता रहा, किंत मुझ पर अंधकार छा गया।

27) मेरा हृदय अशांत रहता है, क्योंकि मेरे बुरे दिन आ गये हैं।

28) मैं उदास हो कर मारा-मारा फिरता हूँ। मैं सभा में खड़ा हो कर अपना दुखड़ा रोता हूँ।

29) मैं गीदड़ों का भाई, शुतुरमुर्गों का साथी बन गया हूँ।

30) मेरा चमड़ा काला हो कर छिल रहा है, मेरी हड्डियाँ ताप से सूख गयी हैं।

31) और मेरी वीणा से शोक का संगीत आता है और मेरी बाँसुरी से रुदन का स्वर।



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