1) स्त्री से उत्पन्न मानव थोड़े दिनों का है और कष्टों से घिरा है।
2) वह फूल की तरह खिल का मुरझाता, छाया की तरह शीघ्र ही विलीन हो जाता है।
3) क्या तू ऐसे मनुष्य पर ध्यान देता और उसे न्याय के लिए अपने सामने बुलाता है?
4) क्या कोई अशुद्ध से शुद्ध निकाल सकता है? नहीं! कोई नहीं!
5) तूने उनके जीवन के दिनों और महीनों की संख्या निश्चित की है। वह तेरे द्वारा निर्धारित सीमा पार नहीं कर सकता।
6) इसलिए उस से अपनी दृष्टि हटा ले, उसे रहने दे, जिससे वह किराये के मज़दूर की तरह अपना समय पूरा करे।
7) वृक्ष के लिए आशा रहती हैं वह कट जाने पर फिर हरा होता और उस में से अंकुर निकलते हैं।
8) उसकी जड़े भले ही जीर्ण हो गयी हों, उसका ठूँठ मिट्टी में सूख गया हो,
9) फिर भी वह पानी की गंध मिलते ही पनप उठेगा और उस में नये पौधे की तरह अंकुर फूटेंगे।
10) किंतु मनुष्य मर कर पड़ा रहता है, वह प्राण निकलते ही समाप्त हो जाता है।
11) भले ही समुद्र से पानी लुप्त हो जाये और नदी तप कर सूख जाये,
12) फिर भी मृतक पडे़ रहेंगे और नहीं उठ पायेंगे। जब तक आकाश का अंत नहीं होगा, वे नहीं जागेंगे; उनकी नींद नहीं टूटेगी।
13) ओह! यदि तू मुझे अधोलोक में छिपाता! अपना क्रोध शांत हो जाने तक ही आश्रय देता! यदि तू एक अवधि निश्चित करता, जब तू मुझे फिर याद करता!
14) यदि मनुष्य मर कर पुनर्जीवित होता, तो मैं अपने पूरे सेवाकाल में तब तक प्रतीक्षा करता रहता, जब तक उस से मेरी मुक्ति का समय नहीं आ जाता।
15) तू मुझे बुलाता और मैं उत्तर देता; तू अपने हाथों की कृति की प्रतीक्षा करता।
16) तब तू मेरा एक-एक कदम नहीं गिनता, बल्कि मेरा पाप अनदेखा करता।
17) तू मेरा अपराध थैली में मुहरबंद करता और मेरा अधर्म ढक देता!
18) जिस तरह पहाड़ टूट कर टुकडे-टुकड़े हो जाता और चट्टान अपने स्थान से हट जाती है;
19) जिस तरह वर्षा पत्थर को घिस देती और जलधाराएँ मिट्टी बहा ले जाती हैं, उसी तरह तू मनुष्य की आशा चकनाचूर कर देता है।
20) तू उसे मारता और वह सदा के लिए चला जाता है। तू उनका चेहरा बिगाड़ कर उसे भगा देता है।
21) उसके पुत्र सम्मानित है, तो इसे इसका पता नहीं चलता। वे तिरस्कृत हो जाते हैं, किंतु उसे इसकी जानकारी नहीं होती।
22) उसे केवल अपने ही शरीर की पीड़ा का अनुभव होता है। वह अपने लिए ही शोक मनाता है।