1) योआकिम नामक व्यक्ति बाबुल का निवासी था।
2) उसका विवाह हिलकीया की पुत्री सुसन्ना से हुआ था।
3) वह अत्यन्त सुन्दर और प्रभु-भक्त थी, क्योंकि उसके माता-पिता धार्मिक थे और उन्होंने अपनी पुत्री को मूसा की संहिता के अनुसार पढाया-लिखाया था।
4) योआकिम बहुत धनी था और उसके घर से लगी हुई एक सुन्दर वाटिका थी। यहूदी उसके यहाँ आया-जाया करते थे, क्योंकि वह उन में सब से अधिक प्रतिष्ठित था।
5) उस वर्ष लोगों ने जनता में से दो नेताओं को न्यायकर्ताओं के रूप में नियुक्त किया था। उनके विषय में प्रभु ने कहा था, "बाबुल में अधर्म उन नेताओं से प्रारभ हुआ, जो न्यायकर्ता थे और जनता का शासन करने का ढोंग रचते थे"।
6) वे योआकिम के यहाँ आया करते थे और जिनका कोई मुकदमा रहता, वे सब उनके पास आते थे।
7) जब दोपहर के समय लोग चले जाते, तो सुसन्ना अपने पति की वाटिका में टहलने आया करती थीं।
8) दोनों नेता उसे प्रतिदिन वाटिका में जाते और टहलते देखते थे और उन में सुसन्ना के लिए प्रबल काम-वासना उत्पन्न हुई।
9) उनका मन इतना विकृत हो गया कि उन्होंने स्वर्ग की ओर नहीं देखा और नैतिकता के नियम भुला दिये।
10) उसके प्रति काम-वासना तो दोंनों में थी, किन्तु वे लज्जा के कारण एक दूसरे पर यह प्रकट नहीं कर सके।
11) दोनों उसके पास जाने के इच्छुक थे।
12) अतः वे प्रतिदिन बड़ी उत्सुकता से उसे देखने का अवसर ढूँढते थे।
13) एक दिन उन्होंने एक दूसरे से कहा, "भोजन का समय हो गया; हम घर चलें"।
14) वे चल दिये और अपने-अपने रास्ते गये, किन्तु जल्द ही घूम कर वहीं आमने सामने हो गये। एक दूसरे से पूछने पर उन्होंने उसके प्रति अपनी-अपनी काम-पीड़ा स्वीकार की। तब वे इस पर सहमत हो गये कि हम किसी समय उसे अकेला पा सकें।
15) वे उपयुक्त अवसर की ताक में ही थे कि सुसन्ना दो नौकनारियों के साथ अपनी आदत के अनुसार वाटिका में घुस गयी।
16) उस दिन बहुत गरमी थी, इसलिए वह स्नान करना चाहती थी। उन दोनों नेताओं को छोड़कर, जो छिप कर उसे ताक रहे थे, वहाँ कोई नहीं था।
17) उसने अपनी नौकरानियों से कहा, "जा कर तेल और महरम ले आओ और वाटिका का फाटक बन्द कर दो, जिससे मैं स्नान कर सकूँ"।
18) उन्होंने ऐसा ही किया और वाटिका के फाटक बन्द कर वे आज्ञानुसार चीज़ें लाने के लिए पाश्र्व फाटक से हो कर बाहर निकलीं। वे उन नेताओं को नहीं देख पायीं, क्योंकि वे छिपे थे।
19) नौकरानियाँ बाहर गयी ही थी कि दोनों नेता उठ कर सुसन्ना के पास दौडते हुए आये और उस से बोले,
20) "देखो, वाटिका का फाटक बन्द है, कोई भी हमें नहीं देखता। हम तुम पर आसक्त हैं।
21) हमारे साथ रमण करना स्वीकार करो, नहीं तो हम तुम्हारे विरुद्ध यह साक्य देंगे कि कोई युवक तुम्हारे साथ था और इसलिए तुमने अपनी नौकरानियों को बाहर भेज दिया।"
22) सुसन्ना ने आह भर कर, "मुझे कोई रास्ता नहीं दिखता। यदि मैं ऐसा करूँगी, तो प्राणदण्ड के योग्य हो जाऊँगी। यदि मैं ऐसा नहीं करूँगी, तो आपके हाथों से नहीं बच पाऊँगी।
23) फिर भी प्रभु के सामने पाप करने की उपेक्षा निर्दोष ही आपके हाथ पड जाना मेरे लिए अच्छा है।"
24) इस पर सुसन्ना ऊँचे स्वर से चिल्लाने लगी;
25) किन्तु दोनों नेता उसके विरुद्ध चिल्लाने लगे और उन में से एक ने दौड कर वाटिका का फाटक खोल दिया।
26) जब घर के लोगों ने वाटिका में चिल्लाने की आवाज सुनी, तो यह देखने के लिए कि सुसन्ना को क्या हुआ, वे दौडते हुए आये और पाश्र्व फाटक से वाटिका में प्रवेश कर गये।
27) जब नेताओं ने अपना बयान दिया, तो नौकरों को बडा धक्का लग गया; क्योंकि सुसन्ना पर इस प्रकार का अभियोग कभी नहीं लगाया गया था।
28) दूसरे दिन, जब जनता उसके पति योआकिम के यहाँ एकत्र हो गयी थी, तो वे दुष्ट नेता सुसन्ना को प्राणदण्ड दिलाने का षड्यंत्र रच कर आ पहुँचे।
29) उन्होंने जनता के सामने कहा, ’हिलकीया की पुत्री, योआकिम की पत्नी, सुसन्ना को बुला भेजो"। लोगों ने उसे बुला भेजा।
30) वह अपने माता-पिता, अपने बच्चों और अपने सब कुटुम्बियों के साथ आयी।
31) सुसन्ना अत्यंत सुडौल और रूपवती थी। वह घूँघट निकाले थी,
32) आतः उन्होंने इसका सौन्दर्य देखने और आँखें को तृप्त करने के लिए घूँघट हटाने को कहा।
33) उसके सन्बन्धी और जितने भी लोग उसे देखते थे, वे सब-के-सब के रोते थे।
34) उन दो नेताओं ने सभा में खडे हो कर उसके सिर पर अपने हाथ रख दिये।
35) वह रोती हुई स्वर्ग की और देखती रही; क्योंकि उसका हृदय ईश्वर पर भरोसा रखता था।
36) नेताओं ने यह कहा, "जब हम अकेले वाटिका में टहल रह थे, तो यह दो नौकरानियों के साथ वाटिका में आयी। इसने वाटिका को फाटक बन्द करा दिया और नौकरानियों को बाहर भेजा।
37) तब एक युवक, जो छिपा हुआ था, पास आ कर इसके साथ लेट गया।
38) हम वाटिका के एक कोने से यह पाप देखकर दौडते हुए उनके पास आये और हमने दोंनों को रमण करते देखा।
39) हम उस युवक को नहीं पकड़ पाये; क्योंकि वह हम से बलवान था और वाटिका का फाटक खोल कर भाग गया।
40) हमने इसे पकड़ लिया और पूछा कि वह कौन है, किन्तु इसने उसका नाम बताना अस्वीकार किया।
41) हम इन बातों के साक्षी हैं।" सभा ने उन पर विश्वास किया, क्योंकि वे नेता और न्यायकर्ता थे। लोगों ने सुसन्ना को प्राणदण्ड की आज्ञा दी।
42) इस पर सुसन्ना ने ऊँचे स्वर से पुकार कर कहा,
43) "शाश्वत ईश्वर! तू सब रहस्य और भविय में होने वाली घटनाएँ जानता है। तू जानता है कि इन्होंने मेरे विरुद्ध झूठी गवहाी दी है। इन्होंने जिन बुरी बातों का अभियोग मुझ पर लगाया है, मैंने उन में से एक भी नहीं किया- फिर भी मुझे मरना होगा।"
44) ईश्वन ने उसकी सुन ली। जब लोग उसे प्राणदण्ड के लिए ले जा रहे थे,
45) तो ईश्वर ने दानिएल नामक युवक में एक दिव्य प्रेरणा उत्पन्न की।
46) वह पुकार कर कहने लगा, "मैं इसके रक्त का दोषी नहीं हूँ"।
47) इस पर सब लोग उसकी ओर देखने लगा और बोले, "तुमहारे कहने का अभिप्राय क्या है?"
48) उसने उन में खडा हो कर कहा, " इस्राएलियों! आप लोगों की बुद्धि कहाँ है, जो आप जाँच और पूरी जानकारी के बिना इस्राएल की पुत्री को प्राणदण्ड देते हैं?
49) आप न्यायालय लौट जायें, क्योंकि इन्होंने इसके विरुद्ध झूठी गवाही दी है।"
50) इस पर लोग तुरन्त लौट गये और नेताओं ने दानिएल से कहा, "आइए, हमारे बीच बैठिए और हमें अपनी बात बताइए; क्योंकि ईश्वर ने आप को नेताओं-जैसा अधिकार प्रदान किया है"।
51) दानिएल ने उन से कहा, "इन दोनों को एक दूसरे से अलग कर दीजिए और मैं इन से पूछताछ करूँगा"।
52) जब दोनों को अलग कर दिया गया, तो दानिएल ने एक को बुला कर उस से कहा,
53) "अधर्म करते-करते तेरे बाल पक गये हैं। अब तुझे अपने पुराने पापों का दण्ड मिलने वाला है। तू निर्दोषों को दण्ड दे कर और दोषियों को निर्दोष ठहरा कर अन्यायपूर्वक विचार किया करता था, जब कि प्रभु ने कहा है- तुम निर्दोष और धर्मी को प्राणदण्ड नहीं दोंगे। अब यदि तूने इसे देखा
54) तो हमें बता कि तूने किस वृक्ष के नीचे दोनों को एक साथ देखा"। उसने उत्तर दिया, "बाबुल के नीचे"।
55) दानिएल ने कहा, "इतना बडा झूठ बोल कर तूने अपना सिर गँवा दिया है! ईश्वर के दूत को ईश्वर से यह आदेश मिल चुका है कि वत तुझे दो टुकड़े कर दे"।
56) दानिएल ने उसे ले जाने की आज्ञा दे कर दूसरे को बुला भेजा और उस से कहा,
57) "तू यूदा का नहीं, कनान की सन्तान है। सौदर्य ने तुझे पथभ्रष्ट किया आर वासना ने तरा हृदय दूषित कर दिया है। तुम लोग इस्राएल की पुत्रियों के साथ इस प्रकार का व्यवहार करते थे और वे डर के मारे तुम्हारा अनुरोध स्वीकार करती थी। किन्तु यह यूदा की पुत्री है, जो तुम्हारे अधर्म के सामने नहीं झुकी है।
58) तो, मुझे बता- तूने किस वृक्ष के नीचे दोनों को साथ देखा?" उसने उत्तर दिया, "बलूत के नीचे"।
59) इस पर दानिएल ने कहा, "तूने भी इतना बडा झूठ बोलकर अपना जीवन गँवा दिया है! ईश्वर का दूत हाथ में तलवार लिये, प्रतीक्षा कर रहा है। वह तुझे दो-टुकडे कर देगा और तुम दोंनों का सर्वनाश करेगा।"
60) तब समस्त सभा ऊँचे स्वर से जयकार करते हुए ईश्वर की स्तुति करने लगी, जो अपने पर भरोसा रखने वालों की रक्षा करता है।
61) दानिएल ने उनके अपने शब्दों द्वारा दोनों नेताओं की गवाही असत्य प्रमाणित की थी, इसलिए लोग उन पर टूट पड़े और
62) उन्हौंने मूसा की संहिता के अनुसार उन दुष्टों को वह दण्ड दिया, जिसे वे अपने पड़ोसी को दिलाना चाहते थे और लोगों ने दोनों का वध कर डाला। इस प्रकार उस दिन एक निर्दोष महिला की जीवन-रक्षा हुई।
63) हिलकीया और उसकी पत्नी ने अपनी पुत्री सुसन्ना के लिए ईश्वर का स्तुतिगान किया और ऐसा ही उसके पति योआकिम और उसके सब सम्बन्धियों ने किया; क्योंकि उस में कोई अनौचित्य नहीं पाया गया था।
64) उस दिन के बाद दानिएल लोगों के बीच बड़े सम्मान का पात्र बन गया।