📖 - दानिएल का ग्रन्थ (Daniel)

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अध्याय 09

1) मेदी वंश के अहशवेरोश के पुत्र दारा का जो खल्दैयियों का राजा नियुक्त हुआ था, पहला वर्ष था।

2) मैं, दानिएल, धर्मग्रंथों में उन सत्तर वर्षों का उल्लेख पढ रहा था, जिसके दौरान, नबी यिरमियाह के अनुसार, येरूसालेम उजाड़ पडा रहेगा।

3) तब प्रभु-ईश्वर पर ध्यान लगा कर मैंने टाट ओढ़ और शरीर पर भस्म रमा कर उपवासव्रत लिया। मैंने अपनी प्रार्थनाएँ प्रस्तुत करके इस प्रकार पापों की स्वीकारोक्ति कीः

4) "प्रभु! महान् एवं भीषण ईश्वर! तू अपना विधान बनाये रखता है। तू उन लोगों पर दयादृष्टि करता है, जो तुझे प्यार करते और तेरी आज्ञाओं का पालन करते हैं। हम लोगों ने पाप किया है, हमने अधर्म और बुराई की है, हमने तेरे विरुद्ध विद्रोह किया है।

5) हमने तरी आज्ञाओं तथा नियमों का मार्ग त्याग दिया है।

6) नबी तेरे सेवक, हमारे राजाओं, नेताओं, पुरखों और समस्त देश के लोगों को उपदेश देते थे। हमने उनकी शिक्षा पर ध्यान नहीं दिया है।

7) "प्रभु! तू न्यायी है और यहूदिया के लोग, येरूसालेम के निवासी, समस्त इस्राएली, चाहे वे निकट रहते हों, चाहे उन दूर देशों में बिखेर दिया है, हम सब-के-सब कलंकित हैं।

8) प्रभु! हम सब कलांकित हैं- हमारे राजा, हमारे शासक और हमारे पुरखे, क्योंकि हमने तेरे विरुद्ध पाप किया है।

9) "हमारा प्रभु-ईश्वर हम पर दयादृष्टि करे और हमें क्षमा प्रदान करे, क्योंकि हमने उसके विरुद्ध विद्रोह किया

10) और अपने प्रभु-ईश्वर की वाणी अनसुनी कर दी है। उसने अपने सेवकों, अपने नबियों द्वारा जो नियम हमारे सामने रखे थे हमने उनका पालन नहीं किया।

11) समस्त इस्राएल जाति ने तेरी विधि भंग की और तेरी वाणी न सुन कर तुझ से विमुख हो गयी है। अतः जो शाप और शपथ तेरे सेवक मूसा के विधान में लिखे हैं, वे हम पर सार्थक हुए हैं, क्योंकि हमने उसके विरुद्ध पाप किया है।

12) हमारे और हमारे शासकों के विरुद्ध जो वचन उसने कहे थे, वे अब पूरे हो गये हैं, क्योंकि जैसी विपत्तियाँ उसने हम पर और येरूसालेम पर ढाही हैं, वैसी सारी पृथ्वी पर कभी देखने को नहीं मिली हैं।

13) अब हम पर यह विपत्ति आ पड़ी, जैसा कि मूसा के विधान में लिखा हुआ है; तब भी हमने न तो हमारे प्रभु-ईश्वर से दया की याचना की, न ही यह जानते हुए भी कि तू सत्यप्रतिज्ञ है, हमने अपने कुकर्मों पर पश्चात्ताप किया।

14) ईश्वर सदैव सजग है और ठीक समय पर उसने हम पर यह विपत्ति ढाही है। अपने सब कार्यों में प्रभु-ईश्वर ने जो कुछ किया है, वह उचित है; फिर भी हमने उसकी वाणी पर ध्यान नहीं दिया है।

15) "प्रभु-ईश्वर! तू ही अपने महान् बाहुबल द्वारा अपनी प्रजा को मिस्र से निकाल लाया और इस प्रकार अपने नाम की महिमा बढायी, जो आज तक बनी हुई है। हमने पाप किया है; हमने कुकर्म किये हैं।

16) प्रभु! हम तेरे मुक्तिप्रद कार्यों को स्मरण कर प्रार्थना करते हैं कि तू रुष्ट न हो कर अपने निजी नगर येरूसालेम, अपने पवित्र पर्वत पर से अपना कोप हटा ले। हमारे अपने पापों के कारण और हमारे पूर्वजों के अपराधों के कारण येरूसालेम और तेरी पवित्र प्रजा सब पडोसी देशों के उपहास के पात्र बन गये हैं।

17) अतः, हमारे ईश्वर! अपने इस दास की प्रार्थना और उसकी विनय पर ध्यान दे। स्वामी! अपने नाम के कारण उजाड़ पडे हुए पवित्र-स्थान पर कृपादृष्टि डाल।

18) ईश्वर! कान लगाकर सुन और दृष्टि फेर कर हमारी विपत्तियों पर और तेरे अपने नगर पर दया कर। यह नगर तो तेरे ही नाम से पुकारा जाता है। हम अपनी धार्मिकता के कारण नहीं, बल्कि तेरी महान् दया पर भरोसा रख कर तुझ से निवेदन करते हैं।

19) प्रभु! कान दे। प्रभु! क्षमा कर! प्रभु! सुन कर कुछ कर दे। ईश्वर! तेरा नगर और तेरी प्रजा तेरे नाम से पुकारे जाते हैं; इसलिए अपने नाम के लिए विलम्ब न कर।"

20) मैं इस प्रकार बोल रहा था और प्रार्थना कर रहा था, और अपनी प्रजा इस्राएल के पाप स्वीकार कर रहा था तथा ईश्वर अपने प्रभु के सम्मुख उसके अपने पवित्र पर्वत के लिए विनती कर रहा था।

21) इसी बीच संध्या बलि के समय जिस गाब्रिएल नामक मनुष्य को मैं पहले देख चुका था, वह शीघ्र ही उड़ कर मेरे समीप आया। उसने मुझे समझाते हुए कहा,

22) "दानिएल! मैं तुम को विद्या और बुद्धि प्रदान करने के लिए आया हूँ।

23) जब तुमहारी प्रार्थना आरंभ हुई थी, उसी समय मुझे आदेश मिला था और मैं उसे बताने आया हूँ। तुम ईश्वर को अति प्रिय हो; अतः मेरा वचन ग्रहण कर दिव्य दृश्य का अर्थ समझोः

24) तुम्हारी जाति और तुम्हारे पवित्र नगर के लिए वर्षों के सत्तर सप्ताह नियत किये गये हैं। उस अवधि के अंत में दुष्कर्म समाप्त किये जायेंगे, पाप मिट जायेगा, अपराधों का प्रायश्चित किया जायेगा, धर्म स्थायी हो जायेगा, दिव्य दृश्य और भवियवाणियाँ सत्य सिद्ध होंगी और परमपावन मन्दिर-गर्भ की पुनः प्रतिष्ठा की जायेगी।

25) अतः जान कर यह समझ लोः येरूसालेम के पुनर्निर्माण के विषय में आदेश प्रसारित होने से ले कर अभ्यंजित नेता के आगमन तक सात सप्ताह बीत जायेंगे; फिर बासठ सप्ताह तक चैकों और खाई-सहित उसका निर्माण - वह भी आपत्ति के दिनों में - पूरा होगा।

26) फिर बासठ सप्ताह बाद अभ्यंजित नेता की मृत्यु होगी और उसके स्थान पर कोई नहीं रहेगा। एक अन्य नेता अपनी सेना से नगर और पवित्र-स्थान का विनाश करेगा। इस नेता का भी भारी विपत्ति में नाश होगा; यथा, अन्त तक युद्ध चलते रहेंगे और निर्र्धारित विध्वंस पूरा हो जायेगा।

27) वह एक सप्ताह तक कई व्यक्तियों के साथ सन्धियाँ करेगा और आधे सप्ताह तक वह होम-बलियाँ और नैवद्य बन्द करा देगा। मन्दिर के छज्जे पर घोर बीभत्स मूर्ति की प्रतिष्ठा होगी। वह निर्धारित समय तक विनाश करता रहेगा।“



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