📖 - राजाओं का पहला ग्रन्थ

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अध्याय 07

1) अपने निजी भवन के निर्माण में सुलेमान को तेरह वर्ष लगे।

2) उसने लेबानोन का वन-भवन इस प्रकार बनवाया- वह सौ हाथ लम्बा, पचास हाथ चैड़ा और तीस हाथ ऊँचा था। उस में देवदार के खम्भों चार पंक्तियाँ थी और उन खम्भों पर देवदार की धरने रखी गयीं।

3) खम्भों पर पैंतालीस धरने रखी गयीं- हर वीथी पर पन्द्रह धरने -और उनके ऊपर देवदार की छत लगायी गयी।

4) भवन में खिड़कियों की तीन पंक्तियाँ थीं; तीन-तीन खिड़कियाँ आमने-सामने थीं।

5) सब द्वारों में वर्गाकार चैखटें थीं और तीन-तीन खिड़कियाँ आमने-सामने थीं।

6) उसने पचास हाथ लम्बा और तीस हाथ चैड़ा स्तम्भ वाला कक्ष बनवाया। उसके सामने खम्भों का छतदार मण्डप था।

7) फिर उसने सिंहासन-कक्ष और न्यायालय बनवाया, जिस में वह न्याय करने वाला था।

8) उसने उस में फ़र्श से छतगीरी तक देवदार लकड़ी के तख्ते लगवाये। उसका अपना निवास-भवन इसके पीछे था। वह भी इसी प्रकार का था। सुलेमान ने फ़िराउन की पुत्री के लिए, जिसके साथ उसने विवाह किया था, इस कक्ष के समान एक महल बनवाया।

9) ये सब इमारतें, प्रवेश से बड़े आँगन तक और नींव से छत तक, बढ़िया पत्थरों से बनाये गये, जो माप के अनुसार कट कर पीछे और सामने से आरे से छाँटे गये थे।

10) नींव में बड़े-बड़े गढ़े हुए पत्थर रखे गये, जो आठ-आठ और दस-दस हाथ के थे।

11) उनके ऊपर बढ़िया गढ़े हुए पत्थर और देवदार की धरनें रखी गयीं।

12) बड़े आँगन के चारों ओर एक दीवार थी, जिस पर तीन रद्दे गढ़े पत्थर और देवदार की एक परत थी। प्रभु के मन्दिर के भीतरी आँगन और उसके मण्डप के चारों ओर इसी प्रकार की दीवार थी।

13) राजा सुलेमान ने तीरूस से हीराम को बुलवाया।

14) वह नफ़ताली कुल की एक विधवा का पुत्र था। उसका पिता तीरूस-निवासी ठठेरा था। वह काँसे के सब प्रकार के कामों का कुशल और अनुभवी शिल्पकार था। उसने राजा सुलेमान के पास आ कर उसका सब काम किया।

15) उसने काँसे के दो खम्भे ढाले। हर खम्भे की ऊँचाई अठारह हाथ थी और उसकी परिधि बारह हाथ।

16) उसने खम्भों के सिरों पर बिठाने के लिए काँसे के ढाले हुए दो स्तम्भशीर्ष बनाये। हर स्तम्भशीर्ष की ऊँचाई पाँच हाथ थी।

17) स्तम्भशीर्षों के लिए उसने सात चैखानेदार जालियाँ और साँकलदार झालरें बनायीं।

18) उसने दोनों स्तम्भशीर्षों की जालियों के चारों ओर अनारों की दो लड़ियाँ लगायीं।

19) मण्डप के स्तम्भशीर्ष सोसन-पुष्प के आकार के थे और चार हाथ ऊँचे थे।

20) स्तम्भों के उभरे हुए गोलाकार भाग के ऊपर, जालियों के पास, स्तम्भशीर्षों के चारों ओर दो सौ पंक्ति-बद्ध अनार सुशोभित थे।

21) उसने उन खम्भों को मन्दिर के प्रवेश-मण्डप के सामने रखा। उसने एक खम्भे को दाहिनी ओर रखा और उसे ‘याकीन’ नाम दिया; दूसरे खम्भे को बायीं ओर रखा और उसका नाम ‘बोअज़’ रखा।

22) खम्भों के सिरे सोसन-पुष्प के आकार के थे। खम्भों का कार्य इसी रूप में समाप्त हुआ।

23) अब उसने काँसे का एक बड़ा वृत्ताकार हौज़ ढाला। वह एक किनारे से दूसरे किनारे तक दस हाथ का था। वह पाँच हाथ ऊँचा था और उसकी परिधि तीस हाथ की थी।

24) उसके किनारों के नीचे, हौज़ के चारों तरफ बौंड़ियाँ बनी थीं। एक एक हाथ की लम्बाई में दस बौंड़ियाँ। बौंड़ियाँ दो पंक्तियों में थीं और हौज़ के साथ ढाली गयी थीं।

25) हौज़ बारह बैलों पर अवधारित था। बैलों में तीन के मुँह उत्तर की ओर थे, तीन के पश्चिम की ओर, तीन के दक्षिण की ओर और तीन के पूर्व की ओर। उनके पिछले भाग भीतर की ओर थे। हौज़ के धातु की मोटाई चार अंगुल थी।

26) उसका किनारा प्याले के किनारे के समान, सोसन-पुष्प के आकार का था। इस में करीब नब्बे हज़ार लिटर समाता था।

27) उसने काँसे के दस ठेले बनाये। हर एक ठेला चार हाथ लम्बा था, चार हाथ चैड़ा और तीन हाथ ऊँचा।

28) उनका निर्माण इस प्रकार हुआ था। उनके दोनों ओर के पटरे चैखटों में लगाये जाते थे।

29) चैखटों पर और चैखटों में लगे पटरों पर सिंह, बछड़े और केरूब चित्रित थे। सिंहों और बछड़ों के ऊपर और उनके नीचे झालरें बनी थीं।

30) प्रत्येक्ष ठेले में काँसे के चार पहिये थे और काँसे की धुरियाँ और चिलमची रखने के लिए चारों कोनों से लगे आधार थे, जो ढाल कर बनाये गये थे और उनके पाश्र्व में झालरें बनी थी।

31) प्रत्येक ठेले में एक चिलमची थी, जो एक हाथ बाहर निकली थी। वह गोलाकार और डेढ़ हाथ गहरी थी। उस पर फूलों की खुदाई थी। ठेले के पटरे गोल नहीं, बल्कि चैकोर थे।

32) इन पटरों के नीचे चार पहिये थे। पहियों की धुरियाँ ठेलों से जुड़ी थीं।

33) प्रत्येक पहिया डेढ़ हाथ ऊँचा था। वे रथ के पहियों के समान थे। उनकी धुरियाँ, नेमियाँ, आरे और नाभियाँ - सब ढली हुई थीं।

34) प्रत्येक ठेले के चारों कोनों पर चार-चार हत्थे थे, जो ठेले से निकले हुए थे।

35 ठेले के सिरे पर चारों ओर आधे हाथ की गोलाई थी, उसके ऊपरी भाग में हत्थे थे और उनके नीचे पटरे।

36) हत्थों और पटरों पर, जहाँ-जहाँ जगह थी, वहाँ-वहाँ उसने केरूबों, सिंहों और खजूरों की आकृतियाँ और झालरें बनायीं।

37) इस प्रकार उसने दस ठेले बनाये। वे सब एक प्रकार, एक ही नाप और एक ही आकार में ढाले गये थे।

38) फिर उसने काँसे की दस चिलमचियाँ बनायीं। उन में एक हज़ार आठ सौ साठ लिटर समाता था। प्रत्येक चिलमची चार हाथ की थी और दसों ठेलों के लिए एक चिलमची थी।

39) उसने मन्दिर के दक्षिण की ओर पाँच ठेले रखे और मन्दिर के उत्तर की ओर पाँच ठेले और उसने हौज़ को मन्दिर के दक्षिण-पूर्व कोने में रखा।

40) अन्त में हीराम ने पात्र, फावड़ियाँ और कटोरे बनाये। इस प्रकार हीराम ने वे सब कार्य पूरे किया, जिनकी आज्ञा राजा सुलेमान ने प्रभु के मन्दिर के लिए उसे दी थीः

41) दो खम्भे, खम्भों के ऊपर दो गोलाकार स्तम्भशीर्ष और खम्भों के सिरों पर के दोनों गोलाकार स्तम्भशीर्षों को सजाने के लिए दो जालियाँ,

42) दोनों जालियों के लिए चार सौ अनार- खम्भों के दोनों गोलाकार स्तम्भशीर्षों को सजाने के लिए प्रत्येक जाली की दो-दो पंक्तियों में अनार लटके थे -

43) दस ठेले और उन ठेलों पर इस चिलमचियाँ,

44) हौज़ और हौज़ के नीचे बारह बैल,

45) पात्र, फावड़ियों और कटोरे। ये सब सामान झिलमिलाते काँसे के थे, जो हीराम ने प्रभु के मन्दिर के लिए राजा सुलेमान की आज्ञा से बनाये।

46) उन्हें राजा ने सुक्कोत और सारतान के बीच, चिकनी मिट्टी वाली भूमि में, यर्दन के मैदान में ढलवाया।

47) उन सामानों की संख्या इतनी अधिक थी कि सुलेमान ने उनकी तौल नहीं करायी। इसलिए काँसे का वज़न मालूम नहीं हो सका।

48) सुलेमान ने प्रभु के भवन के लिए निम्नलिखित सब सामान बनवाये: सोने की वेदी; सोने की मेज़, जिस पर भेंट की रोटियाँ रखी जाती हैं;

49) शुद्ध सोने के दीपाधार- परमपवित्र-स्थान के सामने दाहिनी ओर के लिए पाँच और बायी ओर के लिए पाँच; सोने की बौड़ियाँ, दीपक और चिमटे;

50) शुद्ध सोने के पात्र, कैंचियाँ, बरतन, कलछियाँ और लोबान के पात्र; मन्दिर के भीतरी भाग, अर्थात् भीतरी परमपवित्र-स्थान के और मन्दिर के मध्य भाग के द्वारों की सोने की चूलें।

51) जब सब काम, जिसे राजा सुलेमान ने प्रभु के मन्दिर के लिए करवाया, पूरा हो गया, तब सुलेमान ने अपने पिता दाऊद द्वारा समर्पित समस्त सामग्री, अर्थात् चाँदी, सोना और अन्य सामान ला कर प्रभु के मन्दिर के भण्डारों में रखवा दिया।



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