1) प्रभु का दूत गिलगाल से बोकीम गया और उसने कहा, "मैं ही तुम लोगों को मिस्र से निकाल कर इस देश में ले आया, जिसे मैंने तुम्हारे पूर्वजों को देने की शपथ ली थी। मैंने कहा था, "मै तुम्हारे लिए निर्धारित विधान कभी नहीं भंग करूँगा।
2) और तुम इस देश के निवासियों के साथ कभी समझौता नहीं करोगे, बल्कि तुम उनकी वेदियाँ तोड़ डालोगे‘। लेकिन तुम लोगों ने मेरी आज्ञा नहीं मानी। यह तुमने क्या किया है?
3) अब मैं यह कहता हूँ कि मैं उन लोगों को तुम्हारे सामने से नहीं भगाऊँगा, बल्कि वे तुम्हारे विरोधी हो जायेंगे और उनके देवता तुम्हें अपने जाल में फँसायेंगे।"
4) जब प्रभु के दूत ने इस्राएलियों से यह कहा, तो लोग ऊँचे स्वर से रोने लगे।
5) इसलिए उस स्थान का नाम बोकीम पड़ गया। वहाँ उन्होंने प्रभु को बलिदान चढ़ाया।
6) जब योशुआ ने लोगों को विदा कर दिया था, इस्राएली अपने-अपने दायभाग की भूमि अधिकार में करने चले गये।
7) योशुआ और उसके बाद जीवित रहने वाले उन नेताओं के जीवनकाल तक, जो इस्राएल के लिए प्रभु द्वारा किये हुए समस्त कार्य जानते थे, इस्राएली प्रभु की सेवा करते रहे।
8) प्रभु के सेवक, नून के पुत्र योशुआ का एक सौ दस वर्ष की उमर में देहान्त हुआ।
9) वह गाष पर्वत के उत्तर में, एफ्रईम के पहाड़ी प्रदेश पर स्थित तिमनत-हेरेस में अपने दायभाग की भूमि में दफ़ना दिया गया।
10) जब वह सारी पीढ़ी अपने पूर्वजों से जा मिली, तो एक ऐसी पीढ़ी आयी, जो प्रभु को और उसके द्वारा इस्राएलियों के लिये किये गये कार्य नहीं जानती थी।
11) तब इस्राएलियों ने वही किया, जो प्रभु की दृष्टि में बुरा है और वे बाल-देवताओं की पूजा करने लगे।
12) उन्होंने प्रभु को, अपने पूर्वजों के ईश्वर को, जो उन्हें मिस्र से निकाल लाया था, त्याग दिया। वे अपने आसपास रहने वाले लोगों के देवताओं के अनुयायी बन कर उनकी पूजा करने लगे। उन्होंने प्रभु को अप्रसन्न कर दिया।
13) वे प्रभु को त्याग कर बाल और अष्तारता-देवियों की पूजा करने लगे।
14) तब प्रभु का कोप इस्राएलियों के विरुद्ध भड़क उठा। उसने उन्हें छापामारों के हवाले कर दिया, जो उन्हें लूटने लगे। उसने उन्हें उनके षत्रुओं के हाथ बेच दिया और वे उनका सामना करने में असमर्थ रहे।
15) जब वे युद्ध करने निकलते, तो पराजित हो जाते थे; क्योंकि प्रभु उनके विरुद्ध था, जैसी कि उसने शपथ खा कर उन्हें चेतावनी दी थी।
16) जब इस्राएलियों की दुर्गति बहुत अधिक बढ़ जाती थी, तो प्रभु न्यायकर्ताओं को नियुक्त किया करता था, जो उन्हें लूटने वालों के हाथ से बचाया करते थे।
17) किन्तु वे न्यायकर्ताओं की बात नहीं मानते और पथभ्रष्ट हो कर पराये देवताओं की पूजा और उपासना करते थे। वे प्रभु की आज्ञा पर चलने वाले अपने पूर्वजों का मार्ग षीघ्र ही छोड़ देते थे। वे अपने पूर्वजों का अनुकरण नहीं करते थे।
18) जब प्रभु उनके लिए कोई न्यायकर्ता नियुक्त करता था, तो प्रभु उसका साथ देता और जब तक न्यायकर्ता जीता रहता था, तब तक प्रभु इस्राएलियों को उनके षत्रुओं के हाथ से बचाया करता था; क्योंकि जब वे अपने अत्याचारियों के दुव्र्यवहार से पीड़ित हो कर कराहते थे, तो प्रभु को उन पर तरस आता था।
19) परन्तु जब वह न्यायकर्ता मर जाता था, तो वे षीघ्र ही अपने पूर्वजों से भी अधिक घोर पाप करते थे। वे पराये देवताओं के अनुयायी बन कर उनकी पूजा और उपासना करते थे। उन्होंने अपनी पुरानी आदतें और हठीला व्यवहार कभी नहीं छोड़ा।
20) इस से प्रभु का कोप इस्राएलियों के विरुद्ध भड़क उठा और उसने कहा, "चूँकि ये लोग अपने पूर्वजों के लिए निर्धारित विधान का पालन नहीं करते और मेरी बात नहीं मानते,
21) इसलिए मैं उन सब राष्ट्रों को उनके सामने से नहीं भगाऊँगा, जो योशुआ की मृत्यु के बाद बच गये थे।
22) मैं उनके द्वारा इस्राएलियों की परीक्षा ले कर देखॅूँगा कि वे अपने पूर्वजो की तरह प्रभु के मार्ग पर चलेंगे या नहीं।"
23) इसीलिए प्रभु ने उन राष्ट्रों को वहाँ रहने दिया। उसने उन्हें तुरन्त योशुआ के हाथ दे कर वहाँ से नहीं भगाया।