📖 - सन्त लूकस का सुसमाचार

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अध्याय 02

प्रभु ईसा का जन्म

1) उन दिनों कैसर अगस्तस ने समस्त जगत की जनगणना की राजाज्ञा निकाली।

2) यह पहली जनगणना थी और उस समय क्विरिनियुस सीरिया का राज्यपाल था।

3) सब लोग नाम लिखवाने के लिए अपने-अपने नगर जाते थे।

4) यूसुफ़ दाऊद के घराने और वंश का था; इसलिए वह गलीलिया के नाज़रेत से यहूदिया में दाऊद के नगर बेथलेहेम गया,

5) जिससे वह अपनी गर्भवती पत्नी मरियम के साथ नाम लिखवाये।

6) वे वहीं थे जब मरियम के गर्भ के दिन पूरे हो गये,

7) और उसने अपने पहलौठे पुत्र को जन्म दिया और उसे कपड़ों में लपेट कर चरनी में लिटा दिया; क्योंकि उनके लिए सराय में जगह नहीं थी।

चरवाहों को स्वर्गदूत का सन्देश

8) उस प्रान्त में चरवाहे खेतों में रहा करते थे। वे रात को अपने झुण्ड पर पहरा देते थे।

9) प्रभु का दूत उनके पास आ कर खड़ा हो गया। ईश्वर की महिमा उनके चारों ओर चमक उठी और वे बहुत अधिक डर गये।

10) स्वर्गदूत ने उन से कहा, "डरिए नहीं। देखिए, मैं आप को सभी लोगों के लिए बड़े आनन्द का सुसमाचार सुनाता हूँ।

11) आज दाऊद के नगर में आपके मुक्तिदाता, प्रभु मसीह का जन्म हुआ है।

12) यह आप लोगों के लिए पहचान होगी-आप एक बालक को कपड़ों में लपेटा और चरनी में लिटाया हुआ पायेंगे।"

13) एकाएक उस स्वर्गदूत के साथ स्वर्गीय सेना का विशाल समूह दिखाई दिया, जो यह कहते हुए ईश्वर की स्तुति करता था,

14) "सर्वोच्च स्वर्ग में ईश्वर की महिमा प्रकट हो और पृथ्वी पर उसके कृपापात्रों को शान्ति मिले!"

चरवाहों की भेंट

15) जब स्वर्गदूत उन से विदा हो कर स्वर्ग चले गये, तो चरवाहों ने एक दूसरे से यह कहा, "चलो, हम बेथलेहेम जा कर वह घटना देखें, जिसे प्रभु ने हम पर प्रकट किया है"।

16) वे शीघ्र ही चल पड़े और उन्होंने मरियम, यूसुफ़़, तथा चरनी में लेटे हुए बालक को पाया।

17) उसे देखने के बाद उन्होंने बताया कि इस बालक के विषय में उन से क्या-क्या कहा गया है।

18) सभी सुनने वाले चरवाहों की बातों पर चकित हो जाते थे।

19) मरियम ने इन सब बातों को अपने हृदय में संचित रखा और वह इन पर विचार किया करती थी।

20) जैसा चरवाहों से कहा गया था, वैसा ही उन्होंने सब कुछ देखा और सुना; इसलिए वे ईश्वर का गुणगान और स्तुति करते हुए लौट गये।

ख़तना

21) आठ दिन बाद बालक के ख़तने का समय आया और उन्होंने उसका नाम ईसा रखा। स्वर्गदूत ने गर्भाधान के पहले ही उसे यही नाम दिया था।

मन्दिर में समर्पण

22) जब मूसा की संहिता के अनुसार शुद्धीकरण का दिन आया, तो वे बालक को प्रभु को अर्पित करने के लिए येरूसालेम ले गये;

23) जैसा कि प्रभु की संहिता में लिखा है: हर पहलौठा बेटा प्रभु को अर्पित किया जाये

24) और इसलिए भी कि वे प्रभु की संहिता के अनुसार पण्डुकों का एक जोड़ा या कपोत के दो बच्चे बलिदान में चढ़ायें।

सिमेयोन

25) उस समय येरूसालेम में सिमेयोन नामक एक धर्मी तथा भक्त पुरुष रहता था। वह इस्राएल की सान्त्वना की प्रतीक्षा में था और पवित्र आत्मा उस पर छाया रहता था।

26) उसे पवित्र आत्मा से यह सूचना मिली थी कि वह प्रभु के मसीह को देखे बिना नहीं मरेगा।

27) वह पवित्र आत्मा की प्रेरणा से मन्दिर आया। माता-पिता शिशु ईसा के लिए संहिता की रीतियाँ पूरी करने जब उसे भीतर लाये,

28) तो सिमेयोन ने ईसा को अपनी गोद में ले लिया और ईश्वर की स्तुति करते हुए कहा,

29) "प्रभु, अब तू अपने वचन के अनुसार अपने दास को शान्ति के साथ विदा कर;

30) क्योंकि मेरी आँखों ने उस मुक्ति को देखा है,

31) जिसे तूने सब राष़्ट्रों के लिए प्रस्तुत किया है।

32) यह ग़ैर-यहूदियों के प्रबोधन के लिए ज्योति है और तेरी प्रजा इस्राएल का गौरव।"

33) बालक के विषय में ये बातें सुन कर उसके माता-पिता अचम्भे में पड़ गये।

34) सिमेयोन ने उन्हें आशीर्वाद दिया और उसकी माता मरियम से यह कहा, "देखिए, इस बालक के कारण इस्राएल में बहुतों का पतन और उत्थान होगा। यह एक चिह्न है जिसका विरोध किया जायेगा।

35) इस प्रकार बहुत-से हृदयों के विचार प्रकट होंगे और एक तलवार आपके हृदय को आर-पार बेधेगी।

अन्ना

36) अन्ना नामक एक नबिया थी, जो असेर-वंशी फ़नुएल की बेटी थी। वह बहुत बूढ़ी हो चली थी। वह विवाह के बाद केवल सात बरस अपने पति के साथ रह कर

37) विधवा हो गयी थी और अब चैरासी बरस की थी। वह मन्दिर से बाहर नहीं जाती थी और उपवास तथा प्रार्थना करते हुए दिन-रात ईश्वर की उपासना में लगी रहती थी।

38) वह उसी घड़ी आ कर प्रभु की स्तुति करने और जो लोग येरूसालेम की मुक्ति की प्रतीक्षा में थे, वह उन सबों को उस बालक के विषय में बताने लगी।

नाज़रेत में ईसा की बाल्यावस्था

39) प्रभु की संहिता के अनुसार सब कुछ पूरा कर लेने के बाद वे गलीलिया-अपनी नगरी नाज़रेत-लौट गये।

40) बालक बढ़ता गया। उस में बल तथा बुद्धि का विकास होता गया और उसपर ईश्वर का अनुग्रह बना रहा।

मन्दिर में बालक ईसा

41) ईसा के माता-पिता प्रति वर्ष पास्का पर्व के लिए येरूसालेम जाया करते थे।

42) जब बालक बारह बरस का था, तो वे प्रथा के अनुसार पर्व के लिए येरूसालेम गये।

43) पर्व समाप्त हुआ और वे लौट पडे़; परन्तु बालक ईसा अपने माता-पिता के अनजाने में येरूसालेम में रह गया।

44) वे यह समझ रहे थे कि वह यात्रीदल के साथ है; इसलिए वे एक दिन की यात्रा पूरी करने के बाद ही उसे अपने कुटुम्बियों और परिचितों के बीच ढूँढ़ते रहे।

45) उन्होंने उसे नहीं पाया और वे उसे ढूँढ़ते-ढूँढ़ते येरूसालेम लौटे।

46) तीन दिनों के बाद उन्होंने ईसा को मन्दिर में शास्त्रियों के बीच बैठे, उनकी बातें सुनते और उन से प्रश्न करते पाया।

47) सभी सुनने वाले उसकी बुद्धि और उसके उत्तरों पर चकित रह जाते थे।

48) उसके माता-पिता उसे देख कर अचम्भे में पड़ गये और उसकी माता ने उस से कहा “बेटा! तुमने हमारे साथ ऐसा क्यों किया? देखो तो, तुम्हारे पिता और मैं दुःखी हो कर तुम को ढूँढते रहे।“

49) उसने अपने माता-पिता से कहा, “मुझे ढूँढ़ने की ज़रूरत क्या थी? क्या आप यह नहीं जानते थे कि मैं निश्चय ही अपने पिता के घर होऊँगा?“

50) परन्तु ईसा का यह कथन उनकी समझ में नहीं आया।

नाज़रेत में किशोरावस्था

51) ईसा उनके साथ नाज़रेत गये और उनके अधीन रहे। उनकी माता ने इन सब बातों को अपने हृदय में संचित रखा।

52) ईसा की बुद्धि और शरीर का विकास होता गया। वह ईश्वर तथा मनुष्यों के अनुग्रह में बढ़ते गये।



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