📖 - समूएल का दुसरा ग्रन्थ

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अध्याय 22

1) जिस समय प्रभु ने दाऊद को उसके सब शत्रुओं और साऊल के हाथ से बचा लिया था, उस समय उसने प्रभु के लिए इन शब्दों में भजन गाया था।

2) उसने कहा: प्रभु मेरी चट्टान है, मेरा गढ़ और मेरा उद्धारक।

3) मेरा ईश्वर मेरी चट्टान है, जहाँ मुझे शरण मिलती है। वह मेरी ढाल है, मेरा शक्तिशाली उद्धारक, मेरा गढ़, मेरा आश्रय और मेरा मुक्तिदाता। तू हिंसा करने वालों से मेरी रक्षा करता है।

4) प्रभु धन्य है। मैंने उसकी दुहाई दी और मैं अपने शत्रुओं पर विजयी हुआ।

5) मैं मृत्यु के पाश में पड़ गया था, विनाश की प्रचण्ड धारा में बह रहा था,

6) अधोलोक के जाल में फँंस गया था, मृत्यु का फन्दा मेरे लिए बिछाया गया था।

7) मैंने अपने संकट में प्रभु को पुकारा, मैंने अपने ईश्वर की दुहाई दी। उसने अपने मन्दिर में मेरी वाणी सुन ली; मेरी दुहाई उसके कान तक पहुँची।

8) तब पृथ्वी विचलित हो कर डोलने लगी, आकाश की नींव हिलने लगी। उसका क्रोध भड़क उठा और वे काँपने लगे।

9) उसके नथुनों से धुआँ उठा, भस्मकारी अग्नि और दहकते अंगारे उसके मुख से निकल पड़े।

10) वह आकाश खोल कर उतरा; उसके चरणों तल काले बादल थे।

11) वह केरूबों पर सवार होकर उड़ गया, वह पवन के पंखों पर दिखाई पड़ा।

12) वह अन्धकार ओढ़े था। वह काले घने बादलों से घिरा था।

13) उसके मुखमण्डल के तेज से धधकते अंगारे झरने लगे।

14) प्रभु आकाश में गरज उठा, सर्वोच्च ईश्वर की वाणी सुनाई पड़ी।

15) उसने बाण चलाकर शत्रुओं को तितर-बितर कर दिया, बिजली चमका कर उन्हें भगा दिया।

16) प्रभु की धमकी के गर्जन से, उसके नथुनों की फंुकार से महासागर का तल दिखाई पड़ा, पृथ्वी की नींव प्रकट हो गयी।

17) वह ऊपर से हाथ बढ़ाकर मुझे संँभालता और महासागर से मुझे निकाल लेता है।

18) वह मुझे मेरे शक्तिशाली शत्रु से छुड़ाता है, उन विरोधियों से, जो मुझ से प्रबल हैं।

19) वे संकट के समय मुझ पर आक्रमण करते थे, परन्तु प्रभु मेरा सहायक बना।

20) वह मुझे संकट में से निकाल लाया, उसने मुझे छुड़ाया; क्योंकि वह मुझे प्यार करता है।

21) प्रभु मेरी धार्मिकता के अनुरूप मेरे साथ व्यवहार करता है, मेरे हाथों की निर्दोषता के अनुरूप;

22) क्योंकि मैं प्रभु के मार्ग पर चलता रहा, मैंने अपने ईश्वर के साथ विश्वासघात नहीं किया।

23) मैंने उसके सब नियमों को अपने सामने रखा। मैंने उसकी आज्ञाओं का उल्लंघन नहीं किया।

24) मैं उसकी दृष्टि में धर्माचरण करता रहा; मैंने किसी प्रकार का अपराध नहीं किया।

25) प्रभु ने मेरी धार्मिकता के अनुसार मेरे साथ व्यवहार किया, मेरी निर्दोषता के अनुसार, जिसे उसने अपनी आँखों से देखा था।

26) तू निष्ठावान् के लिए निष्ठावान् है और अनिन्द्य के लिए अनिन्द्य।

27) तू शुद्ध के लिए शुद्ध है और टेढ़े के लिए टेढ़ा।

28) तू अपमानित प्रजा को विजय दिलाता और घमण्डियों को नीचा दिखाता है।

29) प्रभु! तू ही मेरा दीपक है। प्रभु मेरे अन्धकार को आलोकित करता है।

30) मैं तेरे बल पर शत्रुओं के दल में कूद पड़ता हूँ। मैं अपने ईश्वर के बल पर चारदीवारी लाँघ जाता हूँ।

31) ईश्वर का मार्ग निर्दोष है, प्रभु की वाणी विश्वसनीय है। वह उन सब की ढाल है, जो उसकी शरण जाते हैं।

32) प्रभु के सिवा और कौन ईश्वर है? हमारे ईश्वर के सिवा और कौन चट्टान है?

33) वही ईश्वर मुझे शक्ति प्रदान करता और मेरा मार्ग प्रशस्त करता है।

34) वह मेरे पैरों को हिरनी की गति देता है और पर्वतों पर मुझे बनाये रखता है।

35) वह मेरे हाथों को युद्ध का प्रषिक्षण देता और मेरी बाँहे काँसे का धनुष चढ़ाती हैं।

36) तू मुझे अपनी विजयी ढाल देता है। तेरी सहायता मुझे महान् बनाती है।

37) तू मेरा मार्ग प्रशस्त करता है; इसलिए मेरे पैर नहीं फिसलते।

38) मैं अपने शत्रुओं का पीछा कर उन्हें पराजित करता हूँ और उनका सँहार किये बिना नहीं लौटता।

39) मैने उन्हें समाप्त कर दिया; वे फिर नहीं उठते। वे गिर कर पैरों तले पड़े रहते हैं।

40) तू युद्ध के लिए मुझे शक्तिसम्पन्न बनाता और मेरे विरोधियों को मेरे सामने झुकाता है।

41) तू मेरे शत्रुओं को भागने के लिए विवश करता है। मैंने अपने विरोधियों का विनाश किया।

42) वे पुकारते तो हैं, किन्तु कोई नहीं सुनता। वे प्रभु की दुहाई देते हैं, किन्तु वह मौन रहता है।

43) मैं उन्हें मिट्टी की धूल की तरह चूर-चूर करता और सड़कों के कीचड़ की तरह रौंद देता हूँ।

44) तूने मुझे अपनी प्रजा के विद्रोह से मुक्त किया है। तू मुझे राष्ट्रों का अधिपति बनाता है। जिन को मैं नहीं जानता था, वे मेरे अधीन हो जाते हैं।

45) विदेशी मेरे दरबारी बनते हैं। वे मेरा आदेश सुनते ही उसका पालन करते हैं।

46) विदेशी योद्धओं का साहस टूट जाता है। वे काँपते हुए अपने क़िलों से निकलते हैं।

47) प्रभु की जय! मेरी चट्टान धन्य है। ईश्वर मेरे विजय की चट्टान की जय!

48) वही ईश्वर मुझे प्रतिशोध लेने देता और राष्ट्रों को मेरे अधीन करता है।

49) तू मुझे मेरे शत्रुओं से मुक्त करता, मुझे विरोधियों पर विजय दिलाता और हिंसा करने वालों से मुझे छुड़ाता है।

50) प्रभु! मैं राष्ट्रों के बीच तुझे धन्यवाद देता हूँ। मैं तेरे नाम का स्तुतिगान करता हूँ।

51) वह अपने राजा को महान् विजय दिलाता है। उसकी सत्यप्रतिज्ञा उसके अभिषिक्त के लिए दाऊद और उसके वंश के लिए सदा-सर्वदा बनी रहती है।



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