1) यदि आप लोगों में कोई आपसी झगड़ा हो, तो आप न्याय के लिए सन्तों के पास नहीं, बल्कि अविश्वासियों के पास जाने का साहस कैसे कर सकते हैं?
2) क्या आप नहीं जानते कि सन्त संसार का न्याय करेंगे, यदि आप को संसार का न्याय करना है, तो क्या आप छोटे-से मामलों का फैसला करने योग्य नहीं?
3) क्या आप नहीं जानते कि हम स्वर्गदूतों का न्याय करेंगे? तो फिर साधारण जीवन के मामलों की बात ही क्या!
4) यदि आप लोगों में साधारण जीवन के मामलों के बारे में कोई झगड़ा हो तो आप क्यों ऐसे लोगों को पंच बनाते हैं, जो कलीसिया की दृष्टि में नगण्य हैं?
5) यह मैं आप को लज्जित करने के लिए कह कह रहा हूँ। क्या आप लोगों में एक भी समझदार व्यक्ति विद्यमान नहीं है, जो अपने भाइयों का न्याय कर सकता है?
6) इसकी क्या जरूरत है कि भाई अपने भाई पर अविश्वासियों की अदालत में मुक़दमा चलाये?
7) वास्तव में पहला दोष यह है कि आप एक दूसरे पर मुकदमा चलाते हैं। इसकी अपेक्षा आप अन्याय क्यों नहीं सह लेते? अपनी हानि क्यों नहीं होने देते?
8) उलटे, आप स्वयं अन्याय करते और दूसरों को हानि पहुँचाते हैं और वे आपके भाई हैं!
9) क्या आप यह नहीं जानते कि अन्याय करने वाले ईश्वर के राज्य के अधिकारी नहीं होंगे? धोखें में न रहें! व्यभिचारी, मूर्तिपूजक, परस्त्रीगामी, लौण्डे और पुरुषगामी,
10) चोर, लोभी, शराबी, निन्दक और धोखेबाज ईश्वर के राज्य के अधिकारी नहीं होंगे।
11) आप लोगों में कुछ ऐसे ही थे। किन्तु आप लोगों ने स्नान किया है, आप पवित्र किये गये और प्रभु ईसा मसीह के नाम पर और हमारे ईश्वर के आत्मा द्वारा आप पापमुक्त किये गये हैं।
12) मुझे सब कुछ करने की अनुमति है, किन्तु सब कुछ हितकर नहीं। मुझे सब कुछ करने की अनुमति है, किन्तु मैं किसी भी चीज का गुलाम नहीं बनूँगा।
13) भोजन पेट के लिए है और पेट भोजन के लिए। ईश्वर दोनों का अन्त कर देगा, किन्तु शरीर व्यभिचार के लिए नहीं, बल्कि प्रभु के लिए है और प्रभु शरीर के लिए।
14) ईश्वर ने जिस तरह प्रभु को पुनर्जीवित किया, उसी तरह वह हम लोगों को भी अपने सामर्थ्य से पुनर्जीवित करेगा।
15) क्या आप लोग यह नहीं जानते कि आपके शरीर मसीह के अंग है? तो क्या मैं मसीह के अंग ले कर उन्हें वेश्या के अंग बना दूँ? कभी नहीं !
16) क्या आप लोग यह जानते कि जिसका मिलन वेश्या से होता है, वह उसके साथ एक शरीर हो जाता है? क्योंकि धर्मग्रन्थ कहता है- वे दोनों एक शरीर हो जायेंगे।
17) किन्तु जिसका मिलन प्रभु से होता है, वह उसके साथ एक आत्मा बन जाता है।
18) व्यभिचार से दूर रहें। मनुष्य के दूसरे सभी पाप उसके शरीर से बाहर हैं, किन्तु व्यभिचार करने वाला अपने ही शरीर के विरुद्ध पाप करता है।
19) क्या आप लोग यह नहीं जानते कि आपका शरीर पवित्र आत्मा का मन्दिर है? वह आप में निवास करता है और आप को ईश्वर से प्राप्त हुआ है। आपका अपने पर अधिकार नहीं है;
20) क्योंकि आप लोग कीमत पर खरीदे गये हैं। इसलिए आप लोग अपने शरीर में ईश्वर की महिमा प्रकट करें।