📖 - कुरिन्थियों के नाम सन्त पौलुस का पहला पत्र

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अध्याय 02

1) भाइयो! जब मैं ईश्वर का सन्देश सुनाने आप लोगों के यहाँ आया, तो मैंने शब्दाडम्बर अथवा पाण्डित्य का प्रदर्शन नहीं किया।

2) मैंने निश्चय किया था कि मैं आप लोगों से ईसा मसीह और क्रूस पर उनके मरण के अतिरिक्त किसी और विषय पर बात नहीं करूँगा।

3) वास्तव में मैं आप लोगों के बीच रहते समय दुर्बल, संकोची और भीरू था।

4) मेरे प्रवचन तथा मेरे संदेश में विद्वतापूर्ण शब्दों का आकर्षण नहीं, बल्कि आत्मा का सामर्थ्य था,

5) जिससे आप लोगों का विश्वास मानवीय प्रज्ञा पर नहीं, बल्कि ईश्वर के सामर्थ्य पर आधारित हो।

ईश्वर की प्रज्ञा

6) हम उन लोगों के बीच प्रज्ञा की बातें करते हैं, जो परिपक्व हो गये हैं। यह प्रज्ञा न तो इस संसार की है और न इस संसार के अधिपतियों की, जो समाप्त होने को हैं।

7) हम ईश्वर की उस रहस्यमय प्रज्ञा और उद्देश्य की घोषणा करते हैं, जो अब तक गुप्त रहे, जिन्हें ईश्वर ने संसार की सृष्टि से पहले ही हमारी महिमा के लिए निश्चित किया था,

8) और जिन को संसार के अधिपतियों में किसी ने नहीं जाना। यदि वे लोग उन्हें जानते, तो महिमामय प्रभु को क्रूस पर नहीं चढ़ाते।

9) हम उन बातों के विषय में बोलते हैं, जिनके सम्बन्ध में धर्मग्रन्थ यह कहता है - ईश्वर ने अपने भक्तों के लिए जो तैयार किया है, उस को किसी ने कभी देखा नहीं, किसी ने सुना नहीं और न कोई उसकी कल्पना ही कर पाया।

10) ईश्वर ने अपने आत्मा द्वारा हम पर वही प्रकट किया है, क्योंकि आत्मा सब कुछ की, ईश्वर के रहस्य की भी, थाह लेता है।

11) मनुष्य के निजी आत्मा के अतिरिक्त कौन किसी का अन्तरतम जानता है? इसी तरह ईश्वर के आत्मा के अतिरिक्त कोई ईश्वर का अन्तरतम नहीं जानता।

12) हमें संसार का नहीं, बल्कि ईश्वर का आत्मा मिला है, जिससे हम ईश्वर के वरदान पहचान सकें।

13) हम उन वरदानों की व्याख्या करते समय मानवीय प्रज्ञा के शब्दों का नहीं, बल्कि आत्मा द्वारा प्रदत्त शब्दों का प्रयोग करते हैं। इस प्रकार हम आध्यात्मिक शब्दावली में आध्यात्मिक तथ्यों की विवेचना करते है।।

14) प्राकृत मनुष्य ईश्वर के आत्मा की शिक्षा स्वीकार नहीं करता। वह उसे मूर्खता मानता और उसे समझने में असमर्थ है, क्योंकि आत्मा की सहायता से ही उस शिक्षा की परख हो सकती है।

15) आध्यात्मिक मनुष्य सब बातों की परख करता है, किन्तु कोई भी उस मनुष्य की परख नहीं करता है, किन्तु कोई भी उस मनुष्य की परख नहीं कर पाता;

16) क्योंकि (लिखा है) - प्रभु का मन कौन जानता है? कौन उसे शिक्षा दे सकता है? हम में तो मसीह का मनोभाव विद्यमान है।



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