1) उस समय राजा हेरोद ने ईसा की चर्चा सुनी।
2) और अपने दरबारियों से कहा, "यह योहन बपतिस्ता है। वह जी उठा है, इसलिए वह महान् चमत्कार दिखा रहा है।"
3) हेरोद ने अपने भाई फि़लिप की पत्नी हेरोदियस के कारण योहन को गिरफ़्तार किया और बाँध कर बंदीगृह में डाल दिया था;
4) क्योंकि योहन ने उस से कहा था, "उसे रखना आपके लिए उचित नहीं है"।
5) हेरोद योहन को मार डालना चाहता था; किन्तु वह जनता से डरता था, जो योहन को नबी मानती थी।
6) हेरोद के जन्मदिवस के अवसर पर हेरोदियस की बेटी ने अतिथियों के सामने नृत्य किया और हेरोद को मुग्ध कर दिया।
7) इसलिए उसने शपथ खा कर वचन दिया कि वह जो भी माँगेगी, उसे दे देगा।
8) उसकी माँ ने उसे पहले से सिखा दिया था। इसलिए वह बोली, "मुझे इसी समय थाली में योहन बपतिस्ता का सिर दीजिए"।
9) हेरोद को धक्का लगा, परन्तु अपनी शपथ और अतिथियों के कारण उसने आदेश दिया कि उसे सिर दे दिया जाये।
10) और प्यादों को भेज कर उसने बंदीगृह में योहन का सिर कटवा दिया।
11) उसका सिर थाली में लाया गया और लड़की को दिया गया और वह उसे अपनी माँ के पास ले गयी।
12) योहन के शिष्य आ कर उसका शव ले गये। उन्होंने उसे दफ़नाया और जा कर ईसा को इसकी सूचना दी।
13) ईसा यह समाचार सुन कर वहाँ से हट गये और नाव पर चढ़ कर एक निर्जन स्थान की ओर चल दिये। जब लोगों को इसका पता चला, तो वे नगर-नगर से निकल कर पैदल ही उनकी खोज में चल पड़े।
14) नाव से उतर कर ईसा ने एक विशाल जनसमूह देखा। उन्हें उन लोगों पर तरस आया और उन्होंने उनके रोगियों को अच्छा किया।
15) सन्ध्या होने पर शिष्य उनके पास आ कर बोले, "यह स्थान निर्जन है और दिन ढल चुका है। लोगों को विदा कीजिए, जिससे वे गाँवों में जा कर अपने लिए खाना खरीद लें।"
16) ईसा ने उत्तर दिया, "उन्हें जाने की ज़रूरत नहीं। तुम लोग ही उन्हें खाना दे दो।"
17) इस पर शिष्यों ने कहा "पाँच रोटियों और दो मछलियों के सिवा यहाँ हमारे पास कुछ नहीं है"।
18) ईसा ने कहा, उन्हें यहाँ मेरे पास ले आओ"।
19) ईसा ने लोगों को घास पर बैठा देने का आदेश दे कर, वे पाँच रोटियाँ और दो मछलियाँ ले ली़। उन्होंने स्वर्ग की और आँखें उठा कर आशिष की प्रार्थना पढ़ी और रोटियाँ तोड़-तोड़ कर शिष्यों को दीं और शिष्यों ने लोगों को।
20) सबों ने खाया और खा कर तृप्त हो गये, और बचे हुए टुकड़ों से बारह टोकरे भर गये।
21) भोजन करने वालों में स्त्रिीयों और बच्चों के अतिरिक्त लगभग पाँच हज़ार पुरुष थे।
22) इसके तुरन्त बाद ईसा ने अपने शिष्यों को इसके लिए बाध्य किया कि वे नाव पर चढ़ कर उन से पहले उस पार चले जायें; इतने में वे स्वयं लोगों को विदा कर देंगे।
23) ईसा लोगों को विदा कर एकान्त में प्रार्थना करने पहाड़ी पर चढे़। सन्ध्या होने पर वे वहाँ अकेले थे।
24) नाव उस समय तट से दूर जा चुकी थी। वह लहरों से डगमगा रही थी, क्योंकि वायु प्रतिकूल थी।
25) रात के चैथे पहर ईसा समुद्र पर चलते हुए शिष्यों की ओर आये।
26) जब उन्होंने ईसा को समुद्र पर चलते हुए देखा, तो वे बहुत घबरा गये और यह कहते हुए, "यह कोई प्रेत है", डर के मारे चिल्ला उठे।
27) ईसा ने तुरन्त उन से कहा, "ढारस रखो; मैं ही हूँ। डरो मत।"
28) पेत्रुस ने उत्तर दिया, "प्रभु! यदि आप ही हैं, तो मुझे पानी पर अपने पास आने की अज्ञा दीजिए"।
29) ईसा ने कहा, "आ जाओ"। पेत्रुस नाव से उतरा और पानी पर चलते हुए ईसा की ओर बढ़ा;
30) किन्तु वह प्रचण्ड वायु देख कर डर गया और जब डूबने लगा तो चिल्ला उठा, "प्रभु! मुझे बचाइए"।
31) ईसा ने तुरन्त हाथ बढ़ा कर उसे थाम लिया और कहा, "अल़्पविश्वासी! तुम्हें संदेह क्यों हुआ?"
32) वे नाव पर चढे और वायु थम गयी।
33) जो नाव में थे, उन्होंने यह कहते हुए ईसा को दण्डवत् किया "आप सचमुच ईश्वर के पुत्र हैं"।
34) वे पार उतर कर गेनेसरेत पहुँचे।
35) वहाँ के लोगों ने ईसा को पहचान लिया और आसपास के सब गाँवों में इसकी ख़बर फैला दी। वे सब रोगियों को ईसा के पास ले आ कर
36) उन से अनुनय-विनय करते थे कि वे उन्हें अपने कपड़े का पल्ला भर छूने दें। जितनों ने उसका स्पर्श किया, वे सब-के-सब अच्छे हो गये।