📖 - शोक गीत (Lamentations)

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अध्याय 03

1) मैं वह व्यक्ति हूँ, जिसने उसके क्रोध के डण्डे की पीड़ा झेली है।

2) वह मुझ को ढकेल कर अँधेरे में ले आया है, जहाँ कोई प्रकाश नहीं।

3) वह दिन भर बारम्बार अपना हाथ अकेले मुझ पर उठाता है।

4) उसने मेरे मांस और मेरी चमड़ी को क्षीण कर दिया है और मेरी हड्डियाँ तोड़ डाली हैं।

5) उसने चारों ओर से मुझे बाधित किया है और कटुता तथा संकट से ढक दिया है।

6) उसने मुझे को बहुत पहले के मुरदों की तरह अन्धकार में निवास करने के लिए छोड़ दिया है।

7) उसने मुझे दीवारों से इस तरह घेर दिया है कि मैं नहीं भाग सकता।

8) उसने मुझे भारी जं़जीरों से जकड़ दिया है। मैं पुकारता और दुहाई देता हूँ, लेकिन वह मेरी प्रार्थना नहीं सुनता।

9) उसने तराशे हुए पत्थरों से मेरे रास्ते बन्द कर दिये हैं; उसने मेरे मार्ग टेढ़े-मेढ़े कर दिये हैं।

10) वह मेरे लिए घात में बैठे हुए रीछ, छिप कर बैठे हुए सिंह के सदृश है।

11) उसने मुझ को अपने मार्ग से भटका कर मुझे टुकडे़-टुकड़े कर दिया है; उसने मुझ को विषादमग्न कर दिया है।

12) उसने अपना धनुष चढ़ा कर मुझ को अपने तीर का निशाना बना लिया है।

13) उसने अपने तरकश के तीरों से मेरा हृदय छेद डाला।

14) मैं अपने राष्ट्र के उपहास का पात्र, सारे दिन उनके गीतों की टेक बन गया हूँ।

15) उसने मुझे कटुता से भर दिया है; उसने मुझ को अफ़संतीन पिलाया है।

16) उसने मेरे दाँतों से कंकड़ियाँ चबवायीं। उसने मुझ को राख खाने को विवश किया।

17) मेरी आत्मा शान्ति से वंचित है; सुख क्या है? मैं यह भूल गया हूँ।

18) मैंने कहा, “मेरा आत्मविश्वास नष्ट हो गया और मुझे प्रभु पर भरोसा नहीं रहा।“

19) अपने कष्टों और भटकते रहने की याद मुझे पित्त तथा चिरायते-सी कड़वी लगती है।

20) मेरी आत्मा यह सब याद करती और बिसूरती रहती है।

21) किन्तु मैं आशा बाँधने के लिए यह भी याद करूँगा

22) कि प्रभु की कृपा बनी हुई है, उसकी अनुकम्पा समाप्त नहीं हुई है-

23) वह हर सबेरे नयी हो जाती है। उसकी सत्यप्रतिज्ञता अपूर्व है।

24) मेरी आत्मा कहती है- “प्रभु मेरा भाग्य है। मैं उस पर भरोसा रखूँगी।“

25) जो प्रभु पर भरोसा रखता है, जो प्रभु की खोज में लगा रहता है, उसके लिए प्रभु दयालु है।

26) मौन रह कर प्रभु की मुक्ति की प्रतीक्षा करना- यही सब से उत्तम है।

27) अपनी जवानी के समय से जुए का भार उठाना मनुष्य के लिए उत्तम है।

28) जब वह उस पर इसे डाल दे, तो वह मौन हो कर अलग बैठ जाये।

29) वह अपना मुख धूल में डाल ले- सम्भव है, अब भी कोई आशा हो।

30) वह अपना गाल थप्पड़ मारने वाले की ओर कर दे और अपमान से अघा जाये;

31) क्योंकि प्रभु सदा के लिए नहीं त्यागेगा,

32) बल्कि वह भले ही पीड़ित करे, वह अपनी अपार अनुकम्पा के अनुसार दया दिखलाता है;

33) क्योंकि वह मानव सन्तानों को सहर्ष विपत्ति और दुःख में नहीं डालता।

34) जब कोई व्यक्ति किसी देश के सभी बन्दियों को पैरों से कुचलता है,

35) जब वह उस सर्वोच्य की आँखों के सामने किसी को अपने अधिकार से वंचित करता है,

36) जब वह किसी का मामला बिगाड़ता है, तो क्या प्रभु इसे नहीं देखता?

37) यदि प्रभु ने निश्चित न किया हो, तो ऐसा कौन है, जो आदेश दे और वह पूरा हो जाये?

38) क्या शुभ और अशुभ सर्वोच्च की वाणी से उत्पन्न नहीं हैं?

39) मनुष्य क्यों शिकायत करे? इस से कहीं अच्छा है कि वह अपने पापों पर नियन्त्रण रखे।

40) हम अपने आचरण की जाँच और परीक्षा करें और प्रभु की ओर अभिमुख हो जायें।

41) हम अपने हृदय और हाथ स्वर्ग के ईश्वर की ओर कर लें।

42) “हमने पाप और विद्रोह किया है और तूने हमें क्षमा नहीं किया।

43) “तूने क्रोध धारण कर हमारा पीछा किया और निर्दयता से हमारा वध किया।

44) तूने अपने को बादल में छिपा लिया, जिससे तेरे पास कोई दुहाई न पहुँचे।

45) तूने हमें राष्ट्रों के बीच कूड़ा-कचरा और रद्दी बना दिया।

46) “हमारे सभी शत्रु हमें अपशब्द कहते हैं।

47) हम पर आतंक और गर्त, विनाश और संहार हमारी नियति बन गये हैं।

48) अपने राष्ट्र की पुत्री की विनाश देख कर मेरी आँखों से आसुओं की नदी बहती है।

49) “मेरी आँखें अविराम बहती रहती हैं। वे तब तक नहीं रुकेंगी,

50) जब तक प्रभु स्वर्ग से अपनी दृष्टि नीचे की ओर नहीं फेरता।

51) अपने नगर की सभी कुमारियों के कारण मेरी आँखें मुझे दुःखी बनाती है।

52) “जो लोग अकारण ही मेरे शत्रु हैं, उन्होंने पक्षी की तरह मेरा शिकार किया।

53) उन्होंने मुझे जीवित ही गर्त्त में फेंक दिया और तुझ पर पत्थर डाल दिये;

54) मेरा सिर पानी में डूब गया और मैं बोल उठा, ’लो, मैं गया!

55) “प्रभु! गहरे गर्त से मैंने तेरे नाम की दुहाई दी।

56) तूने मेरी यह विनती सुन ली, ’मेरी सहायता की पुकार अनसुनी न कर!

57) मैंने तुझे पुकारा, तो तू पास आ गया। तूने कहा, ’भयभीत मत हो।’

58) “प्रभु! तूने मेरा पक्ष ग्रहण किया है, तूने मेरे प्राणों का उद्धार किया है।

59) प्रभु! तूने मेरे साथ किया गया अन्याय देखा है, तू मेरे साथ न्याय कर।

60) तूने उनके प्रतिशोध की प्यास, मेरे विरुद्ध उनके सभी षड्यन्त्र देखे हैं।

61) प्रभु! तूने उनके अपमान, मेरे विरुद्ध उनके सभी षड्यन्त्र सुने हैं

62) मरे शत्रुओं के वे वचन और विचार, जिन्हें वे सारा दिन कानों में फुसफुसाते हैं।

63) देख, चाहे बैठे हों, चाहे खड़े, मैं उनके गीतों का विषय बना रहता हूँ।

64) “प्रभु! तू उनके कर्मों के अनुसार उन को प्रतिफल देगा;

65) तू उनके हृदय को कठोर बना देगा; उन पर तेरा अभिशाप पड़ेगा;

66) प्रभु! अपने क्रोध के आवेश में तू उनका पीछा करेगा और अपने आकाश के नीचे से उन को मिटा देगा।“



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