📖 - रोमियों के नाम सन्त पौलुस का पत्र

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अध्याय 01

अभिवादन

1) यह पत्र ईसा मसीह के सेवक पौलुस की ओर से है, जो ईश्वर द्वारा प्रेरित चुना गया और उसके सुसमाचार के प्रचार के लिए नियुक्त किया गया है।

2) जैसा कि धर्मग्रन्थ में लिखा है, ईश्वर ने बहुत पहले अपने नबियों द्वारा इस सुसमाचार की प्रतिज्ञा की थी।

3) यह सुसमाचार ईश्वर के पुत्र, हमारे प्रभु ईसा मसीह के विषय में है।

4) वह मनुष्य के रूप में दाऊद के वंश में उत्पन्न हुए और मृतकों में से जी उठने के कारण पवित्र आत्मा द्वारा सामर्थ्य के साथ ईश्वर के पुत्र प्रमाणित हुए।

5) उन से मुझे प्रेरित बनने का वरदान मिला है, जिससे मैं उनके नाम पर ग़ैर-यहूदियों में प्रचार करूँ और वे लोग विश्वास की अधीनता स्वीकार करें।

6) उन में आप लोग भी हैं, जो ईसा मसीह के समुदाय के लिए चुने गये हैं।

7) मैं उन सबों के नाम यह पत्र लिख रहा हूँ, जो रोम में ईश्वर के कृपापात्र और उसकी प्रजा के सदस्य हैं। हमारा पिता ईश्वर और प्रभु मसीह आप लोगों को अनुग्रह तथा शान्ति प्रदान करें!

पौलुस और रोम के ईसाई

8) सर्वप्रथम मैं आप सबों के लिए ईसा मसीह द्वारा अपने ईश्वर को धन्यवाद देता हूँ; क्योंकि संसार भर में आप लोगों के विश्वास की चर्चा फैल गयी है।

9) जिस ईश्वर की उपासना मैं उसके पुत्र सुसमाचार द्वारा सारे हृदय से करता हूँ वही मेरा साक्षी है कि मैं अपनी प्रार्थनाओं में आप लोगों को निरन्तर स्मरण करता हूँ

10) और सदा यह निवेदन करता हूँ कि ईश्वर की इच्छा से किसी-न-किसी तरह मुझे अन्त में आप लोगों के पास आने का सुअवसर मिले।

11) क्योंकि मुझे आप से मिलने की बड़ी इच्छा है; मैं आप को विश्वास में सुदृढ़ बनाने के लिए आध्यात्मिक वरदान देना चाहता हूँ;

12) या यों कहें- मैं चाहता हूँ कि मैं आप लोगों के यहाँ रह कर आपके विश्वास से सान्त्वना प्राप्त करूँ और आप मेरे विश्वास से।

13) भाइयो! मैं आप लोगों को बताना चाहता हूँ कि मैंने बार-बार आपके यहाँ आने की योजना बनायी, किन्तु अब तक इस में कोई-न-कोई बाधा आती रही। जैसे अन्य राष्ट्रों में, वैसे आप के बीच भी मैं सफल कार्य करना चाहता हूँ।

14) मैं अपने को यूनानियों और गैर-यूनानियों, ज्ञानियों और अज्ञानियों के प्रति उत्तरदायी समझता हूँ;

15) इसलिए मैं रोम में आप लोगों के बीच सुसमाचार का प्रचार करने के लिए उत्सुक हूँ।

ईश्वर की सत्यप्रतिज्ञता

16) मुझे सुसमाचार से लज्जा नहीं। यह ईश्वर का सामर्थ्य है, जो प्रत्येक विश्वासी के लिए-पहले यहूदी और फिर यूनानी के लिए-मुक्ति का स्त्रोत है।

17) सुसमाचार में ईश्वर की सत्यप्रतिज्ञता प्रकट होती है, जो विश्वास द्वारा मनुष्य को धार्मिक बनाता है। जैसा कि लिखा है: धार्मिक मनुष्य अपने विश्वास द्वारा जीवन प्राप्त करेगा।

ग़ैर-यहूदियों का पापाचरण

18) ईश्वर का क्रोध स्वर्ग से उन लोगों के सब प्रकार के अधर्म और अन्याय पर प्रकट होता है, जो अन्याय द्वारा सत्य को दबाये रखते हैं।

19) ईश्वर का ज्ञान उन लोगों को स्पष्ट रूप से मिल गया है, क्योंकि ईश्वर ने उसे उन पर प्रकट कर दिया है।

20) संसार की सृष्टि के समय से ही ईश्वर के अदृश्य स्वरूप को, उसकी शाश्वत शक्तिमत्ता और उसके ईश्वरत्व को बुद्धि की आँखों द्वारा उसके कार्यों में देखा जा सकता है। इसलिए वे अपने आचरण की सफाई देने में असमर्थ है;

21) क्योंकि उन्होंने ईश्वर को जानते हुए भी उसे समुचित आदर और धन्यवाद नहीं दिया। उनका समस्त चिन्तन व्यर्थ चला गया और उनका विवेकहीन मन अन्धकारमय हो गया।

22) वे अपने को बुद्धिमान समझते हैं, किन्तु वे मूर्ख बन गये हैं।

23) उन्होंने अनश्वर ईश्वर की महिमा के बदले नश्वर मनुष्य, पक्षियों, पशुओं तथा सर्पों की अनुकृतियों की शरण ली।

24) इसलिए ईश्वर ने उन्हें उनकी घृणित वासनाओं का शिकार होने दिया और वे एक दूसरे के शरीर को अपवित्र करते हैं।

25) उन्होंने ईश्वर के सत्य के स्थान पर झूठ को अपनाया और सृष्ट वस्तुओं की उपासना और आराधना की, किन्तु उस सृष्टिकर्ता की नहीं, जो युगों-युगों तक धन्य है। आमेन!

26) यही कारण है कि ईश्वर ने उन्हें उनकी घृणित वासनाओं का शिकार होने दिया। उनकी स्त्रियाँ प्राकृतिक संसर्ग छोड़कर अप्राकृतिक संसर्ग करने लगीं।

27) इसी प्रकार उनके पुरुष भी स्त्रियों का प्राकृतिक संसर्ग छोड़कर एक दूसरे के लिए वासना से जलने लगे। पुरुष पुरुषों के साथ व्यभिचार करते हैं और इस प्रकार वे अपने भ्रष्टाचार का उचित फल अपने शरीर में भोग रहे हैं।

28) उन्होंने ईश्वर का सच्चा ज्ञान प्राप्त करना उचित नहीं समझा, इसलिए ईवर ने उन्हें उनकी भ्रष्ट बुद्धि पर छोड़ दिया, जिससे वे अनुचित आचरण करने लगे।

29) वे हर प्रकार के अन्याय, व्यभिचार, लोभ और बुराई से भर गये। वे ईर्ष्या, हत्या, बैर, छल-कपट और दुर्भाव से परिपूर्ण हैं।

30) वे चुगलखोर, परनिन्दक, ईश्वर के बैरी धृष्ट, घमण्डी और डींग मारने वाले हैं। वे बुराई करने में चतुर हैं, अपने माता-पिताओं की आज्ञा नहीं मानते।

31) और विवेकहीन तथा अविश्वासी है। उन में प्रेम और दया का अभाव है।

32) वे ईश्वर का यह निर्णय जानते हैं कि इस प्रकार के कर्म करने वाले प्राणदण्ड के योग्य हैं। फिर भी वे न केवल स्वयं यही कुकर्म करते हैं, बल्कि ऐसे कुकर्म करने वालों की प्रशंसा भी करते हैं।



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