1) साऊल पर अब भी प्रभु के शिष्यों को धमकाने तथा मार डालने की धुन सवार थी।
2) उसने प्रधानयाजक के पास जा कर दमिश्क के सभागृहों के नाम पत्र माँगे, जिन में उसे यह अधिकार दिया गया कि यदि वह वहाँ नवीन पन्थ के अनुयायियों का पता लगाये, तो वह उन्हें-चाहे वे पुरुष हों या स्त्रियाँ-बाँध कर येरूसालेम ले आये।
3) जब वह यात्रा करते-करते दमिश्क के पास पहुँचा, तो एकाएक आकाश से एक ज्येाति उसके चारों ओर चमक उठी।
4) वह भूमि पर गिर पड़ा और उसे एक वाणी यह कहती हुई सुनाई दी, "साऊल! साऊल! तुम मुझ पर क्यों अत्याचार करते हो?"
5) उसने कहा, "प्रभु! आप कौन हैं?" उत्तर मिला, "मैं ईसा हूँ, जिस पर तुम अत्याचार करते हो।
6) उठो और शहर जाओ। तुम्हें जो करना है, वह तुम्हें बताया जायेगा।
7) उसके साथ यात्रा करने वाले दंग रह गये। वे वाणी तो सुन रहे थे, किन्तु किसी को नहीं देख पा रहे थे।
8) साऊल भूमि से उठा, किन्तु आँखें खोलने पर वह कुछ नहीं देख सका। इसलिए वे हाथ पकड़ कर उसे दमिश्क ले चले।
9) वह तीन दिनों तक अन्धा बना रहा और वह न तो खाता था न पीता था।
10) दमिश्क में अनानीयस नामक शिष्य रहता था। प्रभु ने उसे दर्शन दे कर कहा, "अनानीयस!" उसने उत्तर दिया, "प्रभु! प्रस्तुत हूँ"।
11) प्रभु ने उस से कहा, "तुरन्त ’सीधी’ नामक गली जाओ और यूदस के घर में साऊल तारसी का पता लगाओ। वह प्रार्थना कर रहा है।
12) उसने दर्शन में देखा कि अनानीयस नामक मनुष्य उसके पास आ कर उस पर हाथ रख रहा है, जिससे उसे दृष्टि प्राप्त हो जाये।"
13) अनानीयस ने आपत्ति करते हुए कहा, "प्रभु! मैंने अनेक लोगों से सुना है कि इस व्यक्ति ने येरूसालेम में आपके सन्तों पर कितना अत्याचार किया है।
14) उसे महायाजकों से यह अधिकार मिला है कि वह यहाँ उन सबों को गिरफ्तार कर ले, जो आपके नाम की दुहाई देते हैं।"
15) प्रभु ने अनानीयस से कहा, "जाओ। वह मेरा कृपापात्र है। वह गैर-यहूदियों, राजाओं तथा इस्राएलियों के बीच मेरे नाम का प्रचार करेगा।
16) मैं स्वयं उसे बताऊँगा कि उसे मेरे नाम के कारण कितना कष्ट भोगना होगा।"
17) तब अनानीयास चला गया और उस घर के अन्दर आया। उसने साऊल पर हाथ रख दिये और कहा, "भाई साऊल! प्रभु ईसा आप को आते समय रास्ते में दिखाई दिये थे। उन्होंने मुझे भेजा है, जिससे आपको दृष्टि प्राप्त हो और आप पवित्र आत्मा से परिपूर्ण हो जायें।"
18) उस क्षण ऐसा लग रहा था कि उसकी आँखों से छिलके गिर रहे हैं। उसे दृष्टि प्राप्त हो गयी और उसने तुरन्त बपतिस्मा ग्रहण किया।
19) उसने भोजन किया और उसके शरीर में बल आ गया।
20) वह शीघ्र ही सभागृहों में ईसा के विषय में प्रचार करने लगा कि वह ईश्वर के पुत्र हैं।
21) सब सुनने वाले अचम्भे में पड़ कर कहते थे, "क्या यह वही नहीं है, जो येरूसालेम में इस नाम की दुहाई देने वालों को मिटाने का प्रयास करता था? क्या यह यहाँ इसलिए नहीं आया कि यह उन्हें बाँध कर महायाजकों के पास ले जाये?"
22) किन्तु साऊल का सामर्थ्य बढ़ता जा रहा था और वह इस बात का प्रमाण दे कर कि ईसा ही मसीह हैं, दमिश्क में रहने वाले यहूदियों को असमंजस में डाल देता था।
23) इस प्रकार बहुत समय बीत गया। तब यहूदिों ने उसे समाप्त करने का षड्यन्त्र रचा,
24) किन्तु साऊल को उसका पता चल गया। वे उसे समाप्त करने के उद्देश्य से दिन-रात शहर के फाटकों पर कड़ा पहरा दे रहे थे;
25) परन्तु साऊल के शिष्य उसे रात को ले गये और उन्होंने उसे टोकरे में बैठा कर चारदीवारी पर से नीचे उतार दिया।
26) जब साऊल येरूसालेम पहुँचा, तो वह शिष्यों के समुदाय में सम्मिलित हो जाने की कोशिश करता रहा, किन्तु वे सब उसे से डरते थे, क्योंकि उन्हें विश्वास नहीं हो रहा था कि वह सचमुच ईसा का शिष्य बन गया है।
27) तब बरनाबस ने उसे प्रेरितों के पास ले जा कर उन्हें बताया कि साऊल ने मार्ग में प्रभु के दर्शन किये थे और प्रभु ने उस से बात की थी और यह भी बताया कि साऊल ने दमिश्क में निर्भीकता से ईसा के नाम का प्रचार किया था।
28) इसके बाद साऊल येरूसालेम में प्रेरितों के साथ आता-जाता रहा
29) और निर्भीकता से ईसा के नाम का प्रचार करता रहा। वह यूनानी-भाषी यहूदियों से बातचीत और बहस किया करता था, किन्तु वे लोग उसे मार डालना चाहते थे।
30) जब भाइयों को इसका पता चला, तो उन्होंने साऊल को कैसरिया ले जा कर तरसुस भेजा।
31) उस समय समस्त यहूदिया, गलीलिया तथा समारिया में कलीसिया को शान्ति मिली। उसका विकास होता जा रहा था और वह, प्रभु पर श्रद्धा रखती हुई और पवित्र आत्मा की सान्त्वना द्वारा बल प्राप्त करती हुई, बराबर बढ़ती जाती थी।
32) पेत्रुस, चारों ओर दौरा करते हुए, किसी दिन लुद्दा में रहने वाली ईश्वर की प्रजा के यहाँ भी पहुँचा।
33) वहाँ उसे ऐनेयस नामक अर्ध्दांगरोगी मिला, जो आठ वर्षों से बिस्तर पर पड़ा हुआ था।
34) पेत्रुस ने उस से कहा, "ऐनेयस! ईसा मसीह तुम को स्वस्थ करते हैं। उठो और अपना बिस्तर स्वयं ठीक करो।" और वह उसी क्षण उठ खड़ा हुआ।
35) लुद्दा और सरोन के सब निवासियों ने उसे देखा और वे प्रभु की ओर अभिमुख हो गये।
36) योप्पे में तबिया नामक शिष्या रहती थी। तबिथा का यूनानी अनुवाद दोरकास (अर्थात् हरिणी) है। वह बहुत अधिक परोपकारी और दानी थी।
37) उन्हीं दिनों वह बीमार पड़ी और चल बसी। लोगों ने उसे नहला कर अटारी पर लिटा दिया।
38) लुद्दा योप्पे से दूर नहीं है और शिष्यों ने सुना था कि पेत्रुस वहाँ है। इसलिए उन्होंने दो आदमियों को भेज कर उस से यह अनुरोध किया कि आप तुरन्त हमारे यहाँ आइए।
39) पेत्रुस उसी समय उनके साथ चल दिया। जब वह योप्पे पहुँचा, तो लोग उसे उस अटारी पर ले गये। वहाँ सब विधवाएं रोती हुई उसके चारों ओर आ खड़ी हुई और वे कुरते और कपड़े दिखाने लगीं, जिन्हें दोरकास ने उनके साथ रहते समय बनाया था।
40) पेत्रुस ने सबों को बाहर किया और घुटने टेक कर प्रार्थना की। इसके बाद वह शव की ओर मुड़ कर बोला, "तबिथा, उठो! उसने आँखे खोल दीं और पेत्रुस को देख कर वह उठ बैठी।
41) पेत्रुस ने हाथ बढ़ा कर उसे उठाया और विश्वासियों तथा विधवाओं को बुला कर उसे जीता-जागता उनके सामने उपस्थित कर दिया।
42) यह बात योप्पे में फैल गयी और बहुत-से लोगों ने प्रभु में विश्वास किया।
43) पेत्रुस कुछ दिनों तक योप्पे में सिमोन नामक चर्मकार के यहाँ रहा।