📖 - सन्त योहन का सुसमाचार

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अध्याय 06

रोटियों का चमत्कार

1) इसके बाद ईसा गलीलिया अर्थात् तिबेरियस के समुद्र के उस पर गये।

2) एक विशाल जनसमूह उनके पीछे हो लिया, क्योंकि लोगों ने वे चमत्कार देखे थे, जो ईसा बीमारों के लिए करते थे।

3) ईसा पहाड़ी पर चढ़े और वहाँ अपने शिष्यों के साथ बैठ गये।

4) यहूदियों का पास्का पर्व निकट था।

5) ईसा ने अपनी आँखें ऊपर उठायीं और देखा कि एक विशाल जनसमूह उनकी ओर आ रहा है। उन्होंने फिलिप से यह कहा, "हम इन्हें खिलाने के लिए कहाँ से रोटियाँ खरीदें?"

6) उन्होंने फिलिप की परीक्षा लेने के लिए यह कहा। वे तो जानते ही थे कि वे क्या करेंगे।

7) फिलिप ने उन्हें उत्तर दिया, "दो सौ दीनार की रोटियाँ भी इतनी नहीं होंगी कि हर एक को थोड़ी-थोड़ी मिल सके"।

8) उनके शिष्यों में एक, सिमोन पेत्रुस के भाई अन्द्रेयस ने कहा,

9) "यहाँ एक लड़के के पास जौ की पाँच रोटियाँ और दो मछलियाँ हैं, पर यह इतने लोगों के लिए क्या है,"

10) ईसा ने कहा, "लोगों को बैठा दो"। उस जगह बहुत घास थी। लोग बैठ गये। पुरुषों की संख्या लगभग पाँच हज़ार थी।

11) ईसा ने रोटियाँ ले लीं, धन्यवाद की प्रार्थना पढ़ी और बैठे हुए लोगों में उन्हें उनकी इच्छा भर बँटवाया। उन्होंने मछलियाँ भी इसी तरह बँटवायीं।

12) जब लोग खा कर तृप्त हो गये, तो ईसा ने अपने शिष्यों से कहा, "बचे हुए टुकड़े बटोर लो, जिससे कुछ भी बरबाद न हो"।

13) इस लिए शिष्यों ने उन्हें बटोर लिया और उन टुकड़ों से बारह टोकरे भरे, जो लोगों के खाने के बाद जौ की पाँच रोटियों से बच गये थे।

14) लोग ईसा का यह चमत्कार देख कर बोल उठे, "निश्चय ही यह वे नबी हैं, जो संसार में आने वाले हैं"।

15) ईसा समझ गये कि वे आ कर मुझे राजा बनाने के लिए पकड़ ले जायेंगे, इसलिए वे फिर अकेले ही पहाड़ी पर चले गये।

ईसा समुद्र पर चलते हैं

16) सन्ध्या हो जाने पर शिष्य समुद्र के तट पर आये।

17) वे नाव पर सवार हो कर कफरनाहूम की ओर समुद्र पार कर रहे थे। रात हो चली थी और ईसा अब तक उनके पास नहीं आये थे।

18) इस बीच समुद्र में लहरें उठ रही थी, क्योंकि हवा जोरों से चल रही थी।

19) कोई तीन-चार मील तक नाव खेने के बाद शिष्यों ने देखा कि ईसा समुद्र पर चलते हुए, नाव की ओर आगे बढ़ रहे हैं। वे डर गये,

20) किन्तु ईसा ने उन से कहा, "मैं ही हूँ। डरो मत।"

21) वे उन्हें चढ़ाना चाहते ही थे कि नाव तुरन्त उस किनारे, जहाँ वे जा रहे थे, लग गयी।

कफ़रनाहूम में स्वर्ग की रोटी की प्रतिज्ञा

22) जो लोग समुद्र के उस पास रह गये थे, उन्होंने देखा था कि वहाँ केवल एक ही नाव थी और ईसा अपने शिष्यों के साथ उस नाव पर सवार नहीं हुए थे- उनके शिष्य अकेले ही चले गये थे।

23) दूसरे दिन तिबेरियस से कुछ नावें उस स्थान के समीप आ गयीं, जहाँ ईसा की धन्यवाद की प्रार्थना के बाद लोगों ने रोटी खायी थी।

24) जब उन्होंने देखा कि वहाँ न तो ईसा हैं और न उनके शिष्य ही, तो वे नावों पर सवार हुए और ईसा की खोज में कफरनाहूम चले गये।

25) उन्होंने समुद्र पार किया और ईसा को वहाँ पा कर उन से कहा, "गुरुवर! आप यहाँ कब आये?"

26) ईसा ने उत्तर दिया, "मैं तुम लोगों से यह कहता हूँ - तुम चमत्कार देखने के कारण मुझे नहीं खोजते, बल्कि इसलिए कि तुम रोटियाँ खा कर तृप्त हो गये हो।

27) नश्वर भोजन के लिए नहीं, बल्कि उस भोजन के लिए परिश्रम करो, जो अनन्त जीवन तक बना रहता है और जिसे मानव पुत्र तुन्हें देगा ; क्योंकि पिता परमेश्वर ने मानव पुत्र को यह अधिकार दिया है।"

28) लोगों ने उन से कहा, "ईश्वर की इच्छा पूरी करने के लिए हमें क्या करना चाहिए?"

29) ईसा ने उत्तर दिया, "ईश्वर की इच्छा यह है- उसने जिसे भेजा है, उस में विश्वास करो"।

30) लोगों ने उन से कहा, "आप हमें कौन सा चमत्कार दिखा सकते हैं, जिसे देख कर हम आप में विश्वास करें? आप क्या कर सकते हैं?

31) हमारे पुरखों ने मरुभूमि में मन्ना खाया था, जैसा कि लिखा है- उसने खाने के लिए उन्हें स्वर्ग से रोटी दी।"

32) ईसा ने उत्तर दिया, "मै तुम लोगों से यह कहता हूँ - मूसा ने तुम्हें जो दिया था, वह स्वर्ग की रोटी नहीं थी। मेरा पिता तुम्हें स्वर्ग की सच्ची रोटी देता है।

33) ईश्वर की रोटी तो वह है, जो स्वर्ग से उतर कर संसार को जीवन प्रदान करती है।"

जीवन की रोटी मैं हूँ

34) लोगों ने ईसा से कहा, "प्रभु! आप हमें सदा वही रोटी दिया करें"।

35) उन्होंने उत्तर दिया, "जीवन की रोटी मैं हूँ। जो मेरे पास आता है, उसे कभी भूख नहीं लगेगी और जो मुझ में विश्वास करता है, उसे कभी प्यास नहीं लगेगी।

36) फिर भी, जैसा कि मैंने तुम लोगों से कहा, तुम मुझे देख कर भी विश्वास नहीं करते।

37) पिता जिन्हें मुझ को सौंप देता है, वे सब मेरे पास आयेंगे और जो मेरे पास आता है, मैं उसे कभी नहीं ठुकराऊँगा ;

38) क्योंकि मैं अपनी इच्छा नहीं, बल्कि जिसने मुझे भेजा, उसकी इच्छा पूरी करने के लिए स्वर्ग से उतरा हूँ।

39) जिसने मुझे भेजा, उसकी इच्छा यह है कि जिन्हें उसने मुझे सौंपा है, मैं उन में से एक का भी सर्वनाश न होने दूँ, बल्कि उन सब को अन्तिम दिन पुनर्जीवित कर दूँ।

40) मेरे पिता की इच्छा यह है कि जो पुत्र को पहचान कर उस में विश्वास करता है, उसे अनन्द जीवन प्राप्त हो। मैं उसे अन्तिम दिन पुनर्जीवित कर दूँगा।"

41) ईसा ने कहा था, "स्वर्ग से उतरी हुई रोटी मैं हूँ"। इस पर यहूदी यह कहते हुए भुनभुनाते थे,

42) "क्या वह यूसुफ़ का बेटा ईसा नहीं है? हम इसके माँ-बाप को जानते हैं। तो यह कैसे कह सकता है- मैं स्वर्ग से उतरा हूँ?"

43) ईसा ने उन्हें उत्तर दिया, "आपस में मत भुनभुनाओ।

44) कोई मेरे पास तब तक नहीं आ सकता, जब तक कि पिता, जिसने मुझे भेजा, उसे आकर्षित नहीं करता। मैं उसे अन्तिम दिन पुनर्जीवित कर दूंगा।

45) नबियों ने लिखा है, वे सब-के-सब ईश्वर के शिक्षा पायेंगे। जो ईश्वर की शिक्षा सुनता और ग्रहण करता है, वह मेरे पास आता है।

46) "यह न समझो कि किसी ने पिता को देखा है; जो ईश्वर की ओर से आया है, उसी ने पिता को देखा है

47) मैं तुम लोगों से यह कहता हूँ - जो विश्वास करता है, उसे अनन्त जीवन प्राप्त है।

48) जीवन की रोटी मैं हूँ।

49) तुम्हारे पूर्वजों ने मरुभूमि में मन्ना खाया, फिर भी वे मर गये।

50) मैं जिस रोटी के विषय में कहता हूँ, वह स्वर्ग से उतरती है और जो उसे खाता है, वह नहीं मरता।

51) स्वर्ग से उतरी हुई वह जीवन्त रोटी मैं हूँ। यदि कोई वह रोटी खायेगा, तो वह सदा जीवित रहेगा। जो रोटी में दूँगा, वह संसार के लिए अर्पित मेरा मांस है।"

52) यहूदी आपस में यह कहते हुए वाद विवाद कर रहे थे, "यह हमें खाने के लिए अपना मांस कैसे दे सकता है?"

53) इस लिए ईसा ने उन से कहा, "मैं तुम लोगों से यह कहता हूँ - यदि तुम मानव पुत्र का मांस नहीं खाओगे और उसका रक्त नहीं पियोगे, तो तुम्हें जीवन प्राप्त नहीं होगा।

54) जो मेरा मांस खाता और मेरा रक्त पीता है, उसे अनन्त जीवन प्राप्त है और मैं उसे अन्तिम दिन पुनर्जीवित कर दूँगा;

55) क्योंकि मेरा मांस सच्चा भोजन है और मेरा रक्त सच्चा पेय।

56) जो मेरा मांस खाता और मेरा रक्त पीता है, वह मुझ में निवास करता है और मैं उस में।

57) जिस तरह जीवन्त पिता ने मुझे भेजा है और मुझे पिता से जीवन मिलता है, उसी तरह जो मुझे खाता है, उसको मुझ से जीवन मिलेगा। यही वह रोटी है, जो स्वर्ग से उतरी है।

58) यह उस रोटी के सदृश नहीं है, जिसे तुम्हारे पूर्वजों ने खायी थी। वे तो मर गये, किन्तु जो यह रोटी खायेगा, वह अनन्त काल तक जीवित रहेगा।"

बहुत-से शिष्यों द्वारा ईसा का परित्याग

59) ईसा ने कफरनाहूम के सभागृह में शिक्षा देते समय यह सब कहा।

60) उनके बहुत-से शिष्यों ने सुना और कहा, "यह तो कठोर शिक्षा है। इसे कौन मान सकता है?"

61) यह जान कर कि मेरे शिष्य इस पर भुनभुना रहे हैं, ईसा ने उन से कहा, "क्या तुम इसी से विचलित हो रहे हो?

62) जब तुम मानव पूत्र को वहाँ आरोहण करते देखोगे, जहाँ वह पहले था, तो क्या कहोगे?

63) आत्मा ही जीवन प्रदान करता है, मांस से कुछ लाभ नहीं होता। मैंने तुम्हे जो शिक्षा दी है, वह आत्मा और जीवन है।

64) फिर भी तुम लोगों में से अनेक विश्वास नहीं करते।" ईसा तो प्रारम्भ से ही यह जानते थे कि कौन विश्वास नहीं करते और कौन मेरे साथ विश्वासघात करेगा।

65) उन्होंने कहा, "इसलिए मैंने तुम लोगों से यह कहा कि कोई मेरे पास तब तक नहीं आ सकता, जब तक उसे पिता से यह बरदान न मिला हो"।

66) इसके बाद बहुत-से शिष्य अलग हो गये और उन्होंने उनका साथ छोड़ दिया।

67) इसलिए ईसा ने बारहों से कहा, "कया तुम लोग भी चले जाना चाहते हो?"

68) सिमोन पेत्रुस ने उन्हें उत्तर दिया, "प्रभु! हम किसके पास जायें! आपके ही शब्दों में अनन्त जीवन का सन्देश है।

69) हम विश्वास करते और जानते हैं कि आप ईश्वर के भेजे हुए परमपावन पुरुष हैं।"

70) ईसा ने उन से कहा, "क्या मैंने तुम बारहों को नहीं चुना? तब भी तुम में से एक शैतान है।"

71) यह उन्होंने सिमान इसकारियोती के पुत्र यूदस के विषय में कहा। वही उनके साथ विश्वासघात करने वाला था और वह बारहों में से एक था।



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