1) तीसरे दिन, एस्तेर राजसी वस्त्र पहने राजमहल के भीतरी प्रांगण में उपस्थित हुई। राजा दर्शन-कक्ष में, महल के प्रवेश-द्वार के सामने, अपने सिंहासन पर विराजमान था।
2) जब उसने रानी एस्तेर को खड़ा देखा, वह उस पर प्रसन्न हुआ और अपने हाथ का स्वर्ण राजदण्ड उसकी ओर बढ़ाया। एस्तेर ने निकट आ कर उसे राजदण्ड का सिरा स्पर्श किया।
2 (ए) एस्तेर ने सबों के अधिपति और रक्षक ईश्वर से प्रार्थना करने के बाद अपने राजसी वस्त्र पहन लिये और दो दासियों को अपने साथ लिया।
2 (बी) वह सुकुमारी की तरह एक पर हलका-सा भार दे कर आगे बढ़ी।
2 (सी) दूसरी अपनी स्वामिनी के वस्त्र का पुछल्ला सँभालते हुए उसके पीछे-पीछे चलती थी।
2 (डी) उसका मुख गुलाबी रंग से प्रदीप्त था और उसकी आँखें मानों उल्लास से चमकती थी, किंतु उसका उदास मन मृृत्यु के डर से काँपता था।
2 (इ) वह क्रमशः सभी द्वार पार कर भीतरी दर्शन-कक्ष में राजा के सामने उपस्थित हुई, जहाँ वह स्वर्ण और बहुमूल्य रत्नों से सुसज्जित राजसी वस्त्र पहने अपने सिंहासन पर विराजमान था। उसकी आकृति विस्मयकारी थी।
2 (एफ) उसने आँख उठा कर उसे देखा। उसका क्रोध मदान्य साँड़ की तरह भड़क उठा और उसे पहचाने बिना उसका विनाश करने के विचार से बोल उठा, "किसने बिना बुलाये दर्शन-कक्ष में प्रवेश करने का साहस किया?" रानी का रंग उड़ गया और वह बेहोश हो कर अपने सामने की दासी के सिर पर झुक गयी।
2 (जी) यहूदियों के ईश्वर और समस्त सृष्टि के प्रभु ने राजा का मन शांत कर दिया। वह घबरा कर अपने सिंहासन से तुरंत उठा। उसने एस्तेर को अपनी बाँहों से सँभाला और जब तक वह होश में न आयी, उसे शांतिपूर्ण शब्दों में इस प्रकार आश्वासन देता रहा,
2 (एच) "रानी एस्तेर! मेरी बहन और रानी! क्या बात है?
2 (आइ) तुम्हारा वध नहीं होगा। हमारा यह कानून तुम्हारे लिए नहीं, बल्कि अन्य सब लोगों के लिए है।
2 (के) आओ।"
2 (एल) फिर उसने सोने का राजदण्ड उठा कर उसकी गर्दन पर रखा और उसका आलिंगन कर उस से कहा, "मेरे साथ बात करो।"
2 (एम) तब उसने उस से कहा, "स्वामी! आप मुझे देवदूत-सदृश लगे। आपकी महिमा देख कर मेरा मन भय से घबरा उठा।
2 (एन) स्वामी आप तो विस्मयकारी हैं, परन्तु आपका मुखमण्डल कैसा अनुग्रहपूर्ण है।"
2 (ओ) ऐसा कह कर वह फिर बेहोश हो गिर पड़ी।
2 (पी) इस से राजा अपने सब अनुचरों के साथ व्याकुल हो उठा।
3) राजा ने उस से पूछा, "रानी एस्तेर! क्या बात है? तुम क्या चाहती हो? यदि तुम मेरे राज्य का आधा भाग भी माँगोगी, तो वह तुम्हें दिया जायेगा"।
4) एस्तेर ने उत्तर दिया, "यदि राजा उचित समझे तो आप और हामान, दोनों आज मेरे उस भोज में सम्मिलित हों, जो मैं राजा को दे रही हूँ।"
5) राजा ने कहा, "हामान को जल्दी बुलाओ, जिससे एस्तेर का मन रखा जाये"। राजा और हामान एस्तेर द्वारा दिये हुए भोज में सम्मिलित हुए।
6) राजा ने अंगूरी पीने के बाद एस्तेर से कहा, "बालो, तुम क्या चाहती हो? वह तुम को दिया जायेगा। तुम्हारा क्या निवेदन है? यदि तुम मेरे राज्य का आधा भाग भी माँगोगी, तो वह तुम को मिलेगा।"
7) इस पर एस्तेर बोली, "मेरा निवेदन और प्रार्थना यह है:
8) यदि मुझे राजा की कृपादृष्टि प्राप्त है और राजा मेरा निवेदन स्वीकार करें और मेरी प्रार्थना पूरी करें, तो राजा और हामान कल भी उस भोज में सम्मिलित हों, जो मैं उन्हें दूँगी मैं कल राजा के प्रश्न का उत्तर दूँगी।"
9) हामान उस दिन आनन्दित और प्रसन्नचित वहाँ से चला गया। उसने मोरदकय को राजा के द्वार पर बैठा देखा, किन्तु मोरदकय उसे देख कर खडा़ नहीं हुआ और उसकी कोई परवाह नहीं की। इस पर हामान को बड़ा क्रोध आया,
10) किंतु उसने अपना भाव प्रकट नहीं होने दिया। घर पहुँचने पर उसने अपने मित्रों अपनी पत्नी जेरेश को बुलाया।
11) और उनके सामने अपने वैभव का वर्णन किया, अपने बहुसंख्यक पुत्रों की चरचा की और यह बताया कि राजा ने उस अन्य प्रशासकों और अनुचरों की अपेक्षा कितनी महिमा प्रदान की।
12) हामान ने यह भी कहा, "रानी एस्तेर ने अपने भोज में राजा के सिवा केवल मुझे बुलाया और मैं कल भी उनके यहाँ राजा के साथ भोजन करूँगा।
13) परन्तु जब मैं उस यहूदी मोरदकय को राजा के द्वार पर बैठा देखता हूँ, तो यह सब मुझे फीका लगने लगता हैं।’
14) इस पर उसकी पत्नी जे़रेश और उनके अन्य मित्रों ने उस से कहा, "पचास हाथ ऊँचा फाँसी का तख्ता तैयार करने का आदेश दे और प्रातः राजा से कहें कि उस पर मोरदकय लटका दिया जाये। इसके बाद राजा के साथ सहर्ष भोजन करने चले जाये।" यह विचार हामान को अच्छा लगा और उसने फाँसी का तख्ता तैयार करने का आदेश दिया।