📖 - उत्पत्ति ग्रन्थ

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अध्याय - 31

1) याकूब को मालूम हुआ कि लाबान के पुत्र कहते हैं, ''याकूब ने हमारे पिता का सब कुछ ले लिया है और हमारे पिता के धन से ही उसने यह सारी सम्पत्ति पायी है''।

2) याकूब को लाबान के रुख़ से मालूम पड़ा कि अब हम दोनों का सम्बन्ध पहले-जैसा नहीं है।

3) प्रभु ने याकूब से कहा, ''तुम अपने पुरखों के देश में, अपने कुटुम्बियों के पास लौट जाओ। मैं तुम्हारे साथ रहूँगा।''

4) इसलिए याकूब ने राहेल और लेआ को खेत में, जहाँ उसके झुण्ड थे, बुलवाया

5) और उन से कहा, ''मुझे तुम्हारे पिता के रुख़ से मालूम पड़ता है कि अब हम दोनों का सम्बन्ध पहले की तरह नहीं है। परन्तु मेरे पिता का ईश्वर मेरे साथ है।

6) तुम लोग खुद जानती हो कि मैंने अपनी पूरी शक्ति से तुम्हारे पिता की सेवा की है।

7) तब भी तुम्हारे पिता ने मुझे धोखा दिया और दसों बार मेरी मजदूरियों को बदल दिया, परन्तु ईश्वर की कृपा से वह मुझे हानि न पहुँचा सका।

8) जब वह कहता था कि चितकबरे बच्चे तुम्हारी मज़दूरी होंगे तो प्रायः सब भेड़-बकरियों को चितकबरे बच्चे ही पैदा होते थे, और जब वह कहता था कि धारीदार बच्चे ही तुम्हारी मज़दूरी होंगे, तो प्रायः सब भेड़-बकरियों को धारीदार बच्चे पैदा होते थे।

9) इस प्रकार ईश्वर ने तुम्हारे पिता से उसके झुण्ड को ले कर मुझे दे दिया।

10) एक बार, जब भेड़-बकरियों के गाभिन होने का समय आया, मैंने स्वप्न में देखा कि वे बकरे जो बकरियों से संसर्ग करते थे, चित्तीदार, चितकबरे और धारीदार थे।

11) उस स्वप्न में ईश्वर के दूत ने मुझे पुकारा, ''याकूब! मैंने जब उत्तर दिया, ''क्या आज्ञा है?''

12) तो उसने कहा, ''आँखें उठा कर देखो कि वे सभी बकरे, जो बकरियों से संसर्ग कर रहे है, चित्तीदार, चितकबरे या धारीदार हैं, और लाबान तुम्हारे साथ जो कुछ कर रहा था, वह सब मैंने देख लिया है।

13) मैं वही ईश्वर हूँ, जिसने तुम को बेतेल में दर्शन दिये थे, जहाँ तुमने एक पत्थर में तेल डाल कर प्रतिष्ठित किया था और मेरी मन्नत मानी थी। अब उठो और इस देश से निकल कर अपनी मातृभूमि को लौट जाओ''

14) राहेल और लेआ ने यह कहते हुए उत्तर दिया, ''हमें तो अपने पिता के यहाँ की सम्पति का कोई भाग विरासत के रूप में मिलेगा नहीं, वह हमें पराया समझते है।''

15) उन्होंने तो हमें बेच दिया है और हमारे मूल्य के रूप में जो कुछ मिला, उन्होंने उसे स्वयं ख़र्च किया।

16) वह सारी सम्पत्ति, जिसे ईश्वर ने हमारे पिता से ले ली हैं, हमारी और हमारे बच्चों की है। इसलिए अब, जैसा ईश्वर ने तुम से कहा है, वैसा ही करो।''

17) तब याकूब उठा, अपने बच्चों और पत्नियों को ऊँटों पर बिठाया

18) और अपने सब पशुओं को, अर्थाात् अपनी सारी सम्पत्ति और पद्दन-अराम में प्राप्त किये गये अपने सब पशुओं को, हाँक कर अपने पिता इसहाक के पास, कनान देश में, जाने को तैयार हुआ।

19) लाबान उस समय अपनी भेड़ों को ऊन काटने चला गया था। उस समय राहेल ने अपने पिता के गृह-देवताओं की मूर्तियाँ चुरा लीं।

20) याकूब ने अरामी लाबान को धोखा दिया और उसे यह नहीं बताया कि वह भागने वाला है।

21) वह अपना सब कुछ ले कर चला गया और फ़रात नदी पार कर गिलआद के पर्वतीय प्रदेश की ओर रवाना हो गया।

22) तीसरे दिन लाबान को खबर मिली कि याकूब भाग गया है।

23) तब उसने अपने सगे-सम्बन्धियों के साथ सात दिन तक उसका पीछा किया। जब वह गिलआद के पर्वतीय प्रदेश तक उसका पीछा करता हुआ पहुँचा,

24) तब रात को स्वप्न में ईश्वर ने अरामी लाबान को दर्शन दिये और चेतावनी दी, ''सावधान रहो! याकूब से अच्छा-बुरा एक शब्द भी नहीं कहना।''

25) लाबान याकूब के पास पहुँचा। याकूब ने पहाड़ी प्रदेश में तम्बू डाला था। लाबान ने भी अपने कुटुम्बियों के साथ गिलआद पर्वत पर अपना तम्बू डाला।

26) लाबान ने याकूब से कहा, ''तुमने यह क्या किया है? तुमने मुझे धोखा दिया और मेरी पुत्रियों को युद्ध-बन्दियों की तरह ले भागे।

27) तुम चोरी-छिपे क्यों भाग गये? तुमने मुझे क्यों धोखा दिया? तुमने मुझे क्यों नहीं बताया? मैं तुम्हें प्रसन्नतापूर्वक गीत गाते, डफ-सितार बजाते विदा करता।

28) तुमने मुझे अपने नातियों और बेटियों को चूम कर अन्तिम विदा क्यों नहीं देने दिया? तुमने यह मूर्खतापूर्ण काम किया है।

29) मुझ में सामर्थ्य है कि मैं तुम्हें हानि पहुँचा सकता, किन्तु तुम्हारे पिता के ईश्वर ने पिछली रात मुझ से कहा है कि सावधान रहो! याकूब से अच्छा-बुरा एक शब्द भी नहीं कहना।

30) सम्भव है, तुम अपने पिता के घर पहुँचने की प्रबल इच्छा के कारण भाग गये हो, लेकिन तुम मेरे देवताओं को क्यों चुरा लाये?''

31) याकूब ने लाबान को उत्तर दिया, ''मुझे इस बात का डर था कि कहीं आप मुझ से अपनी पुत्रियों को न छीन लें।

32) लेकिन जिस किसी के पास आप अपने देवतोओं को पायेंगे, वह जीवित नहीं छोड़ा जायेगा। हम दोनों के कुटुम्बियों के सामने ही आप अपनी जो भी चीज मेरे पास पाते हैं, उसे ले लीजिए।'' याकूब यह नहीं जानता था कि राहेल उन्हें चुरा लायी है।

33) इस पर लाबान याकूब के तम्बू के अन्दर गया, फिर लेआ के तम्बू में और फिर दोनों दासियों के तम्बू में गया, परन्तु उसे वे कहीं नहीं मिले। इसके बाद वह लेआ के तम्बू से निकल कर राहेल के तम्बू के अन्दर घुसा।

34) राहेल ने गृह-देवताओं को चुरा कर उन्हें ऊँट की काठी में छिपा रखा था और उन पर बैठी थी। लाबान ने पूरे तम्बू में खोजबीन की, परन्तु उसे कुछ नहीं मिला।

35) वह अपने पिता से बोली, ''पिताजी! मैं आपके सामने भी इस समय उठ नहीं सकती, इसलिए नाराज मत होइए, क्योंकि मैं अभी रजस्वला हूँ। वह ढूँढता रहा, किन्तु गृह-देवताओं का पता नहीं चला।

36) तब याकूब क्रुद्ध हुआ और उसने लाबान को फटकारा। याकूब ने लाबान से कहा, ''मेरा क्या अपराध है? मेरा क्या दोष है, जो आपने क्रुद्ध होकर मेरा पीछा किया?

37) आपने मेरा सारा सामान ढूँढ डाला। आप को कौन-सी चीज़ मिली, जो आपके घर की हो? उसे मेरे और अपने कुटुम्बियों के सामने रख दीजिए, जिससे वे हम दोनों के विषय में निर्णय दें।

38) पिछले बीस वर्षों से मैं आपके साथ रहा हूँ। आपकी भेड़ों और बकरियों का गर्भ-पात तक नहीं हुआ। मैंने तो आपके झुण्ड की भेड़ों के माँस तक को कभी नहीं चखा

39) जब कभी जंगली जानवरों द्वारा भी कोई बकरी या भेड़ मारी गयी, तो मैं उसे भी कभी आपके पास नहीं लाया। मैंने ही उस घाटे का भुगतान किया। जब कभी कोई पशु दिन में या रात में उठा लिया जाता, तो आप उसकी पूर्ति मुझ से करवाते थे।

40) मेरी हालत यह थी कि दिन भर तो मुझे गर्मी में झुलसना पड़ता और रात भर ठण्ड में ठिठुरना पड़ता। मेरी आँखों की नींद भी हराम थी।

41) पिछले बीस वर्षों तक मैं आपके यहाँ रहा। मैंने आपकी दोनों पुत्रियों के लिए चौदह वर्ष तक और आपके पशुओं के लिए छह वर्ष तक आपकी सेवा की। आप मेरी मज़दूरी में भी दसों बार उलट-फेर करते रहे।

42) यदि मेरे पिता का ईश्वर, अर्थात् इब्राहीम का ईश्वर, वह जिस पर इसहाक की भी श्रद्धा थी, मेरा साथ नहीं देता रहता, तो अवश्य आपने मुझे ख़ाली हाथों भगा दिया होता। लेकिन ईश्वर ने मेरे कष्टों और मेरे शारीरिक परिश्रम को देख कर पिछली रात आप को डाँटा।''

43) इसके उत्तर में लाबान ने याकूब से कहा, ''ये पुत्रियाँ तो मेरी ही पुत्रियाँ है; ये बाल-बच्चे भी मेरे ही बाल-बच्चे है; भेड़-बकरियाँ भी मेरी ही है। वह सब, जो यहाँ दिखाई देता है, मेरा ही है। किन्तु आज मैं अपनी ही पुत्रियों और उनके बच्चों के लिए कर ही क्या सकता हूँ?

44) इसलिए आओ, हम दोनों, मैं और तुम, एक सन्धि कर लें। वही हमारे बीच के सम्बन्ध का साक्षी हो।

45) तब याकूब ने एक पत्थर ले कर उसे स्मारक के रूप में खड़ा कर दिया।

46) याकूब ने अपने कुटुम्बियों से कहा, ''पत्थरों को जमा करो''। उन्होंने पत्थरों को इकट्ठा कर उनका ढेर लगा दिया और पत्थरों के उस ढेर पर बैठ कर भोजन किया।

47) लाबान ने उसका नाम ''यगर-साहदूता'' (साक्षी का ढेर) और याकूब ने 'गलएद' (साक्षी का ढेर) रखा।

48) लाबान ने कहा, ''यह ढेर आज हमारे बीच के सम्बन्ध का साक्षी हो''। उसने उसका नाम 'गलएद'

49) और 'मिस्पा' (निगरानी का स्थान) रखा, क्योंकि उसने कहा : ''जिस समय हम एक दूसरे से अलग रहेंगे, उस समय प्रभु हम पर निगरानी रखे।

50) यदि तुम मेरी पुत्रियों से बुरा व्यवहार करोगे या मेरी पुत्रियों के अतिरिक्त दूसरी स्त्रियाँ रखोगे, तो याद रखो कि चाहे कोई दूसरा व्यक्ति हमारे साथ हो या नहीं, ईश्वर तुम्हारे और मेरे बीच साक्षी होगा।''

51) लाबान ने याकूब से यह भी कहा, ''पत्थरों के इस ढेर और इस स्तम्भ को देखो, जिसे मैंने अपने और तुम्हारे बीच खडा कर दिया है।

52) पत्थरों का यह ढेर और यह स्तम्भ इस बात का साक्षी हों। तुम्हें हानि पहुँचाने के उद्देश्य से मैं इस ढेर और स्तंभ को पार कर तुम्हारे पार नहीं जाऊँगा और तुम भी पत्थरों के इस ढेर और स्तभं को पार कर मुझे हानि पहुँचाने नहीं आओगे।

53) इब्राहीम का ईश्वर और नाहोर का ईश्वर, अर्थात् उनके पूर्वजों का ईश्वर, मेरे और तुम्हारे बीच इस बात का साक्षी होगा।'' इस पर याकूब ने उस ईश्वर की शपथ खाई, जिस पर उसके पिता इसहाक की श्रद्धा थी।

54) इसके बाद याकूब ने पहाड़ पर एक बलि चढ़ायी और भोज के निमित अपने कुटुम्बियों को आमन्त्रित किया। उन्होंने भोजन किया और उसी पहाड़ पर रात बितायी।



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