ईशवचन विषयानुसार

दुनियावी जीवन

लूकस 12:15-20: “तब ईसा ने लोगों से कहा, ’’सावधान रहो और हर प्रकार के लोभ से बचे रहो; क्योंकि किसी के पास कितनी ही सम्पत्ति क्यों न हो, उस सम्पत्ति से उसके जीवन की रक्षा नहीं होती’’। (16) फिर ईसा ने उन को यह दृष्टान्त सुनाया, ’’किसी धनवान् की ज़मीन में बहुत फ़सल हुई थी। (17) वह अपने मन में इस प्रकार विचार करता रहा, ’मैं क्या करूँ? मेरे यहाँ जगह नहीं रही, जहाँ अपनी फ़सल रख दूँ। (18) तब उसने कहा, ’मैं यह करूँगा। अपने भण्डार तोड़ कर उन से और बड़े भण्डार बनवाऊँगा, उन में अपनी सारी उपज और अपना माल इकट्ठा करूँगा (19) और अपनी आत्मा से कहूँगा-भाई! तुम्हारे पास बरसों के लिए बहुत-सा माल इकट्ठा है, इसलिए विश्राम करो, खाओ-पिओ और मौज उड़ाओ।’ (20) परन्तु ईश्वर ने उस से कहा, ’मूर्ख! इसी रात तेरे प्राण तुझ से ले लिये जायेंगे और तूने जो इकट्ठा किया है, वह अब किसका ह़ोगा?’

एफेसियों 5:15-20: “अपने आचरण का पूरा-पूरा ध्यान रखें। मूर्खों की तरह नहीं, बल्कि बुद्धिमानों की तरह चल कर (16) वर्तमान समय से पूरा लाभ उठायें, क्योंकि ये दिन बुरे हैं। (17) आप लोग नासमझ न बनें, बल्कि प्रभु की इच्छा क्या है, यह पहचानें। (18) अंगूरी पी कर मतवाले नहीं बनें, क्योंकि इस से विषय-वासना उत्पन्न होती है, बल्कि पवित्र आत्मा से परिपूर्ण हो जायें। (19) मिल कर भजन, स्तोत्र और आध्यात्मिक गीत गायें; पूरे हृदय से प्रभु के आदर में गाते-बज़ाते रहें। (20) हमारे प्रभु ईसा मसीह के नाम पर सब समय, सब कुछ के लिए, पिता परमेश्वर को धन्यवाद देते रहें।“

रोमियों 12:1-3: “अतः भाइयो! मैं ईश्वर की दया के नाम पर अनुरोध करता हूँ कि आप मन तथा हृदय से उसकी उपासना करें और एक जीवन्त, पवित्र तथा सुग्राह्य बलि के रूप में अपने को ईश्वर के प्रति अर्पित करें। (2) आप इस संसार के अनुकूल न बनें, बल्कि बस कुछ नयी दृष्टि से देखें और अपना स्वभाव बदल लें। इस प्रकार आप जान जायेंगे कि ईश्वर क्या चाहता है और उसकी दृष्टि में क्या भला, सुग्राह्य तथा सर्वोत्तम है। (3) उस वरदान के अधिकार से, जो मुझे प्राप्त हो गया है, मैं आप लोगों में हर एक से यह कहता हूँ- अपने को औचित्य से अधिक महत्व मत दीजिए। ईश्वर द्वारा प्रदत्त विश्वास की मात्रा के अनुरूप हर एक को अपने विषय में सन्तुलित विचार रखना चाहिए।

1 योहन 2:15-17: “तुम न तो संसार को प्यार करो और न संसार की वस्तुओं को। जो संसार को प्यार करता है, उस में पिता का प्रेम नहीं। (16) संसार में जो शरीर की वासना, आंखों का लोभ और धन-सम्पत्ति का घमण्ड है वह सब पिता से नहीं बल्कि संसार से आता है। (17) संसार और उसकी वासना समाप्त हो रही है; किन्तु जो ईश्वर की इच्छा पूरी करता है, वह युग-युगों तक बना रहता है।“

मारकुस 4:18-19: “दूसरे बीज काँटों में बोये जाते हैं: ये वे लोग हैं, जो वचन सुनते हैं, (19) परन्तु संसार की चिन्ताएँ, धन का मोह और अन्य वासनाएँ उन में प्रवेश कर वचन को दबा देती हैं और वह फल नहीं लाता।“

मारकुस 8:36-37: “मनुष्य को इससे क्या लाभ यदि वह सारा संसार तो प्राप्त कर ले, लेकिन अपना जीवन ही गँवा दे? (37) अपने जीवन के बदले मनुष्य दे ही क्या सकता है?”

तीतुस 2:1-15: “तुम ऐसी शिक्षा दो, जो सही धर्म-सिद्धान्त के अनुकूल हो। (2) वृद्धों को समझाओं कि उन्हें संयमी, गम्भीर एवं समझदार होना चाहिए और विश्वास, भ्रातृप्रेम एवं धैर्य में परिपक्व। (3) इसी प्रकार वृद्धाओं का आचरण प्रभु-भक्तों के अनुरूप हो। वे किसी की झूठी निन्दा न करें और न मदिरा की व्यसनी हों। वे अपने सदाचरण द्वारा, (4) तरूण स्त्रियों को ऐसी शिक्षा दें कि वे अपने पति और अपने बच्चों को प्यार करें, (5) समझदार, शुद्ध और सुशील हों, अपने घर का अच्छा प्रबन्ध करें और अपने पति के अधीन रहें, जिससे लोग सुसमाचार की निन्दा न कर सकें। (6) नवयुवकों को समझाओ कि वे सब बातों में संयम से रहें, (7) और तुम स्वयं उन्हें अच्छा उदाहरण दो। तुम्हारी शिक्षा प्रामाणिक और गम्भीर हो। (8) तुम्हारे उपदेश हितकर और अनिद्य हों। इस प्रकार विरोधी किसी भी बात के विषय में हमारी निन्दा न कर सकने के कारण लज्जित होगा। (9) दासों को समझाओ कि वे सब बातों में अपने स्वामियों के अधीन रहें, आपत्ति किये बिना उनकी आज्ञाएं मानें (10) और चोरी नहीं करें, बल्कि पूर्ण रूप से ईमानदार बने रहें। यह सब करने से वे हमारे मुक्तिदाता ईश्वर की शिक्षा की प्रतिष्ठा बढ़ायेंगे। (11) क्योंकि ईश्वर की कृपा सभी मनुष्यों की मुक्ति के लिए प्रकट हो गयी है। (12) वह हमें यह शिक्षा देती है कि अधार्मिकता तथा विषयवासना त्याग कर हम इस पृथ्वी पर संयम, न्याय तथा भक्ति का जीवन बितायें (13) और उस दिन की प्रतीक्षा करें, जब हमारी आशाएं पूरी हो जायेंगी और हमारे महान् ईश्वर एवं मुक्तिदाता ईसा मसीह की महिमा प्रकट होगी। (14) उन्होंने हमारे लिए अपने को बलि चढ़ाया, जिससे वह हमें हर प्रकार की बुराई से मुक्त करें और हमें एक ऐसी प्रजा बनायें जो शुद्ध हो, जो उनकी अपनी हो और जो भलाई करने के लिए उत्सुक हो। (15) तुम इन बातों की शिक्षा देते हुए उपदेश दिया करो और अधिकारपूर्वक लोगों को समझाओ। कोई तुम्हारा तिरस्कार नहीं करे।“

2 पेत्रुस 1:2-11: “आप लोगों को हमारे ईश्वर और प्रभु ईसा के ज्ञान द्वारा प्रचुर मात्रा में अनुग्रह और शान्ति प्राप्त हो! (3) उनके ईश्वरीय सामर्थ्य ने हमें वह सब प्रदान किया, जो भक्तिमय जीवन के लिए आवश्यक है और हम को उनका ज्ञान प्राप्त करने योग्य बनाया है, जिन्होंने हमें अपनी महिमा और प्रताप द्वारा बुलाया। (4) उन्होंने उस महिमा और प्रताप द्वारा हमारे लिए अपनी अमूल्य और महती प्रतिज्ञाओं को पूरा किया है। इस प्रकार आप उस दूषण से बच गये, जो वासना के कारण संसार में व्याप्त है और आप ईश्वरीय स्वभाव के सहभागी बन गये हैं। (5) इसलिए आप पूरी लगन से प्रयत्न करते रहें कि आपका विश्वास सदाचरण से, आपका सदाचरण ज्ञान से, (6) आपका ज्ञान संयम से, आपका संयम र्धर्य से, आपका धैर्य भक्ति से, (7) आपकी भक्ति मातृ-भाव से और आपका भ्रातृ-भाव प्रेम से युक्त हो। (8) यदि ये गुण आप लोगों में विद्यमान हैं और बढ़ते जाते हैं, तो ये हमारे प्र्रभु ईसा मसीह का ज्ञान प्राप्त करने में आप को निष्क्रिय एवं असफल नहीं होने देंगे। (9) जिस व्यक्ति में ये गुण विद्यमान नहीं हैं, वह अन्धा है, टटोलता फिरता है और यह भी भूल जाता है कि उसके पुराने पाप धुल चुके हैं। (10) इसलिए भाइयो! आप अपना बुलावा और चुनाव सुदृढ़ बनाने का पूरा-पूरा प्रयत्न करते रहें। यदि आप ऐसा करेंगे, तो निश्चित ही कभी विचलित नहीं होंगे। (11) और हमारे प्रभु एवं मुक्तिदाता ईसा मसीह के अनन्त राज्य में आपका स्वागत किया जायेगा।“


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Praise the Lord!