इश्वर की सेविका रानी मरिया

धर्मसंघीय बुलाहट

अपनी स्कूली शिक्षा के अंतिम वर्ष में पी.वी. मेरी को समर्पित जीवन के लिए प्रभु येसु की बुलाहट महसूस हुयी। उन्होंने इस विषय में अपनी चचेरी बहन सिस्टर सोनी मरिया एफ.सी.सी. से बात की जिनको भी उस समय उसी प्रकार की बुलाहट महसूस हो रही थी। उसी इलाके में स्थित एफ.सी.सी. कॉन्वेंट की धर्मबहनों के संपर्क में आकर उन्होंने फ्रांसिस्कन क्लारिस्ट धर्मसमाज में प्रवेश करने का निर्णय लिया। मेरी को इस बात की चिंता थी कि उनके परिवार के सदस्यों की प्रतिक्रिया किस प्रकार की होगी। हिम्मत बटोर कर एक दिन उन्होंने अपनी इच्छा उनके सामने प्रकट की तो उनके भाइ-बहनों ने उसका विरोध किया और उन्होंने पिताजी से इस के लिए इजादत नहीं देने का अनुरोध किया। लेकिन उनके पिताजी ने कहा, “अगर वह इसकी इच्छुक है, तो हम क्या कर सकते हैं? अगर ईश्वर की इच्छा यही है तो हम उसके खिलाफ कैसे हो सकते हैं?” इस पर उनकी दादी ने कहा, “आप लोग मेरीकुंज के धर्मसंघ में शामिल होने का विरोध क्यों कर रहे हैं? कितने माता-पिता अपने बच्चों को पुरोहित या धर्मबहन बनते देखना चाहते हैं? लेकिन उन सब को वह सौभाग्य प्राप्त नहीं होता। प्रभु अपनी इच्छा से कुछ लोगों को चुनते हैं।“ दादी माँ की प्रज्ञा के सामने सब चुप हो गये।
3 जुलाई 1972 को मेरी और उनकी चचेरी बहन किडंगूर के फ्रांसिस्कन क्लारिस्ट कॉन्वेंट में अपना प्रार्थी-प्रशिक्षण (Aspirancy) शुरू किया। प्रशिक्षण के विभिन्न चरणों को पार कर – प्रार्थी-प्रशिक्षण (3.7.1972 से 30.10.1972 तक), अभ्यर्थी प्रशिक्षण (Postulancy 1.11.1972 से 29.4.1973 तक) तथा नवदीक्षा प्रशिक्षण (Novitiate 30.4.1973 से 30.4.1974 तक) – 20 साल की उम्र में 1 मई 1974 को मेरी ने अपना पहला धर्म संघीय ब्रत धारण किया और ’रानी मरिया’ नाम अपनाया।
प्रार्थी प्रशिक्षण तथा अभ्यर्थि प्रशिक्षण के दौरान उन्हें मार्गदर्शन देने वाली सिस्टर ग्लाडिस का कहना है – “उसके चेहरे पर हमेशा मुसकान थी और वह एक प्रतिभाशाली लडकी थी। वह सब कुछ पूर्णता के साथ करती थी और कभी कुछ शिकायत नहीं करती थी। उसे कभी सुधारने का मौका ही नहीं था। सत्य और न्याय के पक्ष में वह हमेशा खुल कर बात करती थी।” सिस्टर अल्ज़े मरिया ने, जिन्होंने रानी मरिया के साथ नवदीक्षा प्रशिक्षण प्राप्त किया था कहती हैं, “प्रशिक्षण के समय हम विभिन्न जिम्मेदारियों को निभाते थे। हम सब रानी मरिया को अपने दल में पाना चाहते थे। हम, गोशाला, शैचालय तथा घर साफ करते थे। इन दीन कार्यों में रानी मरिया हमेशा आगे रहती थी और वे सबसे पहले इन कार्यों को करती थीं। वे सूक्ति-प्रार्थनाओं (ejaculatory prayers) को जप कर हर घंटे को पवित्र करती थी।“ येसु का नाम लेने का इस आदत को सिस्टर रानी मरिया ने अपने जीवन के आखिरी क्षण तक बनाये रखा। अपनी अंतिम प्राण पीडा के समय भी वे ’येसु, येसु’ कह रही थी।
नवदीक्षा प्रशिक्षण की अधिकारी सिस्टर इन्फंट मेरी सिस्टर रानी मरिया की जीवनी में लिखती हैं, “वह प्रार्थना, पढ़ाई, नियमों के पालन, और जिम्मेदारियों में – संक्षेप में सब कुछ में - नेक और आदर्शवति थी। वह किसी से या किसी के कारण नाराज नहीं होती थी। जब दूसरों का मूल्यांकन करना पडता था, तब पक्षपात रहित रीती से सच्चाई का साक्ष्य देती थी, यह कार्य वह बारिकी से करती थी। वह हमेशा ईश्वर की इच्छा पर ध्यान देती थी। प्रोविन्स के उत्तर भारत की मिशन सलाहकार की जिम्मेदारी निभाते हुए जब सिस्टर इन्फंट मेरी मिशन प्रदेशों का दौरा करने के बाद अपना अनुभव नव दीक्षार्थियों के साथ बाँटती थी और उत्तर प्रदेश के मिशन प्रदोशों में मेहनत करने की ज़रूरत पर जोर देती थी, तब मेरी सब कुछ ध्यान से सुनती थी। इस प्रकार एक मिशनरी बुलाहट का बीज मेरी के हृदय में बोया गया। मिशनरियों के अनुभवों को सुन कर मेरी के हृदय में मिशन के प्रति उत्सुकता बढ़ती गयी। वे अकसर कहती थीं : “मैं भी उत्तर भारत में जाना चाहती हूँ - गरीबों की सेवा करने तथा उनके लिए मरने के लिए”।


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