संता पिता फ्रांसिस के सार्वजनिक दर्शन का सन्देश, 28 जनवरी 2015

पिता की सकारात्मक भूमिका - भाग - 1

Translated by Fr. Ronald Vaughan. Source:Zenit News


प्रिय भाईयों एवं बहनों, सुप्रभात!
हम परिवार पर अपनी धर्मशिक्षा को जारी रखेंगे। आज हम स्वयं को ’पिता’ शब्द द्वारा मार्गदर्शित होने देंगे। यह एक ऐसा शब्द है जो हम ख्रीस्तीयों को किसी अन्य शब्द से अधिक प्रिय है क्योंकि यह वह नाम है जिसके द्वारा येसु ने हमें ईश्वर को पिता कहकर बुलाना सिखाया है। इस शब्द के अर्थ ने नयी गहरायी जब पायी जब जिस तरह से येसु ने इसके द्वारा ईश्वर को सम्बोधित किया तथा इसके द्वारा उनका ईश्वर के साथ अपना विशेष रिष्ता प्रकट किया। ईश्वर - पिता और पुत्र और पवित्रात्मा - की घनिष्ठता का धन्य रहस्य जो येसु द्वारा प्रकट किया गया है हमारे ख्रीस्तीय विश्वास का केन्द्र है।
’’पिता’’ ऐसा विश्व व्यापक शब्द है जिससे सभी परिचित है। यह उस मूल रिष्ते को इंगित करता है जिसका अस्तित्व उतना ही प्राचीन है जितना की मानव इतिहास। आज, हम स्वीकारोक्ति के उस मुकाम पर पहुँच गये है कि हम कह सकते है कि हमारा समाज ’पिताहीन समाज है’। दूसरे शब्दों में, पिता का रूप, विशेषकर हमारे पाश्चात्य संस्कृति में, प्रतिकात्मक रूप से अनुपस्थित, लुप्त एवं हटा दिया गया है। शुरूआत में इस बात को मुक्ति के रूप में देखा गया था; मुक्ति पिता-स्वामी से, मुक्ति उस पिता से जो बाहर से ठोपे गये कानून का प्रतिनिधित्व करता था, मुक्ति उस पिता से जो बच्चों की खुषी का नियंत्रक था, मुक्ति उस पिता से जो युवाजनों के उद्धार एवं स्वायत्तता बाधा था। इस तरह, कुछ मौको पर ’अधिकारवादिता’ कुछ घरों में पुनः स्थापित हुयी, कुछ अवसरों में यह दमनकारी था, उन माता-पिताओं के लिये जो बच्चों से नौकरों जैसा बर्ताव करते थे तथा जो उनके विकास के लिये जरूरी व्यक्तिगत आवश्यकताओं का अनादर करते थेे; ऐसे पिता जिन्होंने अपने बच्चों को उनका मार्ग स्वतत्रंता के साथ चुनने में मदद नहीं की, लेकिन बच्चे को स्वतंत्रता के साथ बढा़ना आसान काम भी नहीं है। ऐसे पिता जो उनके बच्चों को भविष्य एवं समाज के निमार्ण के लिये जिम्मेदारी उठाने में मदद नहीं करते: यह निश्चित तौर पर एक अच्छा दृष्टिकोण नहीं है।
लेकिन जैसा कि अक्सर होता है कि हम एक अति से दूसरी अति को ओर अग्रसर होते हैं। हमारे समय की समस्या आक्रमक पिता की मौजूदगी नहीं बल्कि उनकी गैर-मौजूदगी है; उनका छिपे रहना है। पिता कभी-कभी अपने आप और अपने काम में और अपनी व्यक्तिगत आवश्यकताओं में इतने मग्न रहते हैं कि वे अपने परिवार को भी भूल जाते हैं। और वे छोटे एवं युवा जनों को अकेले छोड देते हैं। ब्यूयर्स आयर्स में धर्माध्यक्ष होते हुये भी मैंने उस अनाथ-पन को देखा जो आज के युवाजन जीते है। मैंने अक्सर पिताओं से पूछा कि क्या वे अपने बच्चों के साथ खेलते हैं। लेकिन उत्तर बुरा था, ज्यादात्तर मामलों (उनका कहना था): ’’मैं ऐसा नहीं कर सकता क्योंकि मेरा काम बहुत ज्यादा है...’’ लेकिन पिता अपने बच्चे से दूर थे जो बढ़ रहे थे। और उसने अपने बच्चे के साथ न खेला और न उसके साथ समय बिताया। अब मैं इस मन्न्-चिंतन के दौरान सभी ख्रीस्तीय समुदायों से यह कहना चाहूँगा कि हमें और अधिक ध्यान देना होगा। पिता समान व्यक्त्तिव की नन्हें बच्चों एवं युवाजनों के जीवन से अनुपस्थिति रिक्तता तथा जख्म पैदा करती है जो बहुत खतरनाक भी हो सकती है। और बच्चों एवं युवाओं के भटकने के कारणों को इसी अनुपस्थिति में पा सकते हैं, अच्छे उदाहरणों तथा दैनिक जीवन में आधिकारिक मार्गदर्शन का अभाव; रिश्तों में करीबीपन की कमी, पिताओं के ओर से प्रेम में कमी, बच्चों एवं युवाओं के भटकने का कारण है। अनाथ-पन होने का अहसास जो हमारे अधिकांश युवाजन जी रहे है हमारी सोच से कहीं अधिक गहरा है।
वे परिवार के भीतर ही अनाथ है क्योंकि उनके पिता अक्सर अनुपस्थित रहते हैं, शारिरिक रूप से तो वे घर दूर रहते ही है लेकिन इससे कहीं अधिक जब वे घर में रहते हैं तो वे पिता की तरह व्यवहार नहीं करते, वे अपने बच्चों के साथ बातचीत नहीं करते। वे अपनी शैक्षणिक जिम्मेदारी पूरी नहीं करते; वे अपने बच्चों को अपने शब्दों के साथ-साथ अपने उदाहरणों द्वारा वे सिद्धांत, मूल्य, जीवन के नियम, जिनकी उन्हें उतनी ही जरूरत जितनी रोटी की, प्रदान नहीं करते हैं। पिता की उपस्थिति की शैक्षणिक गुणवत्ता तब और भी अधिक ज़रूरी हो जाती है जब पिता को काम की बाध्यता के कारण घर से दूर रहना पड़ता हो। एक समय ऐसा प्रतीत होता है कि पिताओं को इस बात का उचित ज्ञान नहीं कि उनका परिवार में क्या स्थान है और बच्चों के प्रति उनकी शैक्षणिक जिम्मेदारियों को कैसे निभाना चाहिये है। इस तरह, संदेह के कारण वे बचते है, पीछे हट जाते है और अपनी जिम्मेदारियों की अवहेलना करते है। शायद वे ’बच्चों के साथ एक’ जैसे एक असम्भाव्य रिष्ते की शरण में जाते है। हालॉकि यह सही है कि हमें अपने बच्चों के साथी बनकर रहना चाहिये लेकिन यह भूले बिना कि हम पिता है। अगर आप बच्चों के साथ एक होकर केवल साथी के समान व्यवहार करेंगे तो इससे बच्चे को कोई लाभ नहीं होगा।
इसमें भी, नागरिक समुदायों की, अपनी संस्थाओं के साथ, भी इन युवाजनों के प्रति कुछ जिम्मेदारी होती है जिसे हम पैतृक कह सकते हैं, जिसकी कभी उपेक्षा की जाती है या फिर बुरे तरीके से निभायी जाती है। इस के फलस्वरूप कई युवक गलियों के अनाथ बन जाते हैं जिनसे हम परिचित हैं, शिक्षकों के द्वारा परित्यक्त, जिनपर वे विश्वास कर सकते थे, आदर्षों के अनाथ जो हृदय को जोषीला बना सकते थे, मूल्यों एवं आशाओं के अनाथ जो उनको बनाये रख सकते थे। वे शायद मूर्तियों से भरे है, लेकिन उनको कोई कार्य नहीं दिया गया है; वे पैसे के भगवान द्वारा धोखा खाते है तथा वास्तविक सम्पन्नता से वंचित किये जाते है।
और अब यह हम सबके लिये भला होगा, पिताओं एवं बच्चों के लिये, कि हम उस प्रतिज्ञा को फिर से सुने जिसे येसु ने अपने शिष्यों से की थीः ’’मैं तुम लोगों को अनाथ छोड़कर नहीं जाऊँगाः’’ (योहन 14:18)। वे वास्तव में, मार्ग है- जिनका अनुसरण करना चाहिये, शिक्षक है- जिसे सुनना चाहिये, आशा है- जो संसार का बदल सकती है, वह प्रेम है- जो नफरत पर विजय प्राप्त कर सकता है इस तरह यहॉ भाईचारे का भविष्य हो सकता है तथा सभी के लिये शांति।
आप में से कोई शायद मुझसे कहेगाः ’’लेकिन, पापा, आपने आज बहुत नकारात्मक बातें कहीं। आपने केवल पिताओं की अनुपस्थिति तथा जब वे अपने बच्चों के करीब नहीं होते तो क्या होता है इसके बारे में बताया।’’ यह सच है। मैं इसी बात पर जोर देना चाहता था क्योंकि अगले बुधवार मैं इस धर्मशिक्षा को जारी रखते हुये पितृत्व की खुबसूरती पर प्रकाश डालूँगा। इसलिये मैंने अंधकार से शुरूआत कर प्रकाश में आने की सोची। ईश्वर आपको इन बातों को अच्छी तरह समझने में मदद करे। धन्यवाद!


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Praise the Lord!